तुलसी के ’’मानस’’ की पृष्ठभूमि
राधारमण वैद्य
कलियुग के बाल्मीकि, मुगल काल का सबसे महान् व्यक्ति, बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक, सर्वतोमुखी ’’प्रतिभा’’ तथा निरन्तर विषपान करके आशा और विश्वास की अद्भुत वाणी बोलने वाल, तुलसी जैसा जागरूक समाज द्रष्टा, स्नेहमयी सशक्त वाणी में उद्बोधन का अमर मंत्र देने वाला एक युग निर्माता भारत को सहस्त्रों सदियों बाद मिला था। शुक्रनीति का ऐसा अनुशासन है कि ’’कलाकार आलेख्य के प्रति उसे लिखने के पहले समाधिस्थ हो, जब समाधि में उसका वह सांगोपाग दर्शन कर लेगा, जब आलेख्य प्रत्यक्षमूर्त उसकी समाधि में उठ जायेगा, तभी वह अपने विषय के अंकन में सफल हो सकेगा।1
हमारे सम्पूर्ण को रगने वाला यह चितेरा संवत 1631 वि0 तक 60 वर्ष की लम्बी (आरंभिक 14-16 वर्ष छोड़कर) ऐसी ही समाधि में स्थित रहा और जब आलेख्य प्रत्यक्ष मूर्त हो उसकी समाधि में उठ आया, तब उसके अंकन में जुट गया। यह सब हुआ’ भलि भारत भूमि, भले कुलजन्म, समाज शरीर, भलो लहि कें।2
जब भारत देश, जो ब्रह्मावर्त ब्रह्मषि देश और मध्यदेश की इकाईयों में बदलता हुआ अपनी सीमाओं को ’’उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्य, पश्चिम में विनशन, (सरस्वती नदी के मरूथल में अदृश्य हो जाने का उत्तरी बीकानेर का प्रदेश) और पूर्व में प्रयाग3 तक विस्तृत कर सका। बौद्ध काल में आर्य संस्कृति की यह सीमा रेखा सदानीरा के उस पार पहुँची तो मिथिला, अंग, और मगध भी क्रमशः इस मध्यदेश की सीमा में सम्मिलित हो गये। भारत की रचना कई बार में पूरी हुई। गुप्त युग के आर्यावर्त की सीमा मुगल युग में बल्ख और गजनी तक मानी जाती थी। मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में जायसी ने ’’हेमसेत गौर गाजना4 ’’ वाले सूत्र में गजनी से गौड-बंगाल, तक भारत की सीमा कही है। विन्ध्य पृष्ठ, जहाँ इस महान् मनीषी की काया और हृदय पोषित हुआ, के विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र का मध्यदेश से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। पृथक भूमियों की दृष्टि से उसके तीन भाग थे-पश्चिम में अवन्ति (मालवा), मध्य (ओंकार-मान्धाता से जबलपुर तक का प्रदेश) और पूर्व में दक्षिण कौशल (छत्तीसगढ़)। बोलियों की दृष्टि से ये तीनों हिन्दी के ही अभिन्न अंग हैं। इसी के मध्य में करूष (बघेलखण्ड) जनपद था, उसी पट्टी में पछाँह की और दशाणां (भेलसा धसान) के छोटे जनपद थे ।5
इस विस्तृत मध्यदेश, जो भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का मेरूदण्ड है, मैं आर्य और निषाद, (आग्नेय परिवार) इन दो जातियों का सांस्कृतिक आदान-प्रदान खुलकर हुआ है। आर्य जाति की वैदिक परम्परा और निषादों की लोक परम्परा इन दोनों के समन्वय से मध्यदेश की संस्कृति का जो सूत्र बना, वह ‘लोक वेदे च’ वाले वाक्य में निहित है6 तथा जिसे तुलसी ’’नाना पुराण निगमागम सम्मत’’ समझकर स्वीकारते हैं और जो आगे चल कर सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति का आधार बना। यक्ष, गन्धर्व सिद्ध और किन्नर आदिक किरातीय जातियाँ, जिन्होंने आर्यो को ’’पत्रम पुष्पम् फलम् तोय’’ की पूजा विधि दी, कृषि कर्मी और ग्रामीण संस्कृति वाली मुण्डा, मुण्डारी, मानख्येर, खासी (खश) शवर हो कुर्कू, संथाल, भूमिज, आदिक, आग्नेय या निषाद जातियाँ अपने सम्पर्क, सौहार्द, संघर्ष और घृणा से धीमे धीमे प्रभावित करती रही7 और एक सामाजिक संस्कृति को जन्म देती रही। जिसे कबीन्द्र रवीन्द्र अपनी एक विराट कविता ’भारत तीर्थ’ में कहते हैं- ’एहं भारतेर महामानवेर भारत तीरे8 किसी को भी ज्ञात नहीं किसके आव्हान पर मनुष्यता की कितनी धारायें वेग से बहती हुई कहां कहां से आई और इस महासमुद्र में खो गर्इ्र, आर्य, अनार्य, द्रबिड़ ,चीनी, शक, हुण, पठान और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आये और सबके सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गये-मेरे रक्त में सबका स्वर ध्वनित हो रहा है।
कवि एक ही युग में जीता हुआ अपने अन्य समकालीन बन्धुओं की अपेक्षा कुछ अधिक जीवित और चैतन्य होता है...कवि की अनुभूति जब कविता बनकर प्रकट हो जाती है तब उसके सहारे अन्य सहृदय लोग भी इस अनुभूति तक पहुॅच सकते हैं और तब उनके मुख से अनायास यह अभिनंदन फूट पड़ता है कि कवि की यह बात कैसी अनोखी किन्तु कितनी सत्य है। 9 तुलसी के सम्बन्ध में अक्षरशः सत्य होती है। तुलसी ने सम्पूर्ण अतीत को आत्मसात कर अपने युग की नव्ज पर हाथ रखा और सुयोग्य सुषेण की तरह संजीवनी सौंप दी। रामचरितमानस ऐसी ही औषधि बनकर उस युग के हाथ लगी। यह रसायन की प्रक्रिया से तैयार हुई एवं इसके भीतर अनेक औषधियों का रस समाहित है। कविता का लक्ष्य इस देश में किसी महान् उद्देश्य की सेवा करना रहा है। यहाँ के आचार्य उसे निरूद्देश्य आनन्द का साधन नहीं मानते थे।10
भारतीय साहित्य की विशेषता उसकी पारलौकिक प्रवृत्ति थी 11। इसलिये ‘भव सरिता तरनी’ ‘कलि कलुष विमंजनि’ तथा ‘कलि पन्नग भरनी’ रामकथा विद्वानों को विश्राम देने तथा सम्पूर्ण जन समुदाय का रंजन करने हेतु तुलसी द्वारा प्रणीत हुई। तुलसीदास जी कहते हैं कि हमने खूब देखें, बहुपंथ देखे, अनेक मुनि देखे, अनेक पुराण देखे, जहाँ तहाँ हमने झगड़ा ही देखा12। अतएव गुरु ने आदेश दिया कि ’राम भजन नीको’, और तुलसी को भी वह राजमार्ग सा लगा। वह तो विनम्रता वश यहाँ तक कहते हैं कि अगर उन्होंने पंडितों को हास्यरस की भी सामग्री प्रदान की13 तो भी उनका साहित्य सफल हुआ। यद्यपि वे खूब जानते हैं कि ’मंगल करनि हरनि कलिमल हरन तुलसी कथा रघुनाथ की।’
अब यदि तुलसीकालीन भारत पर दृष्टि डालें, जिसके सम्पूर्ण गौरव से वे परिचित हैं, तो हम जान सकेंगे कि तुलसी का ’’कलिमल’ क्या है। इतिहासकारों ने अकबर के शासनकाल को समृृद्धि और शांति का युग माना है परन्तु सामंतवादी शासन व्यवस्था शासक वर्ग की ही समृद्धि और शांति की विधायक होती है, साधारण जनता शोषण, अत्याचार, अभाव और विभिन्न प्रकार की विकृतियों की ही शिकार बनी रहती है।14 अकबर का युग भी ऐसा ही था और तुलसी अकबर के लगभग समकालीन थें। उस युग का शासक और उच्च वर्ग बिलासिता, कला, साधन (तथाकथित) आदि में व्यस्त रहता था15 या युद्ध करने में और इन सारे कार्यो के लिये धन प्राप्त करता था, जनता का शोषण करके। इसलिये जनता त्रस्त और दुःखी थी।16 परन्तु उसका कोई मार्ग निर्देश नहीं कर रहा था। धर्म के अन्य ठेकेदार, हठयोगी, विभिन्न संत सम्प्रदाय रूढिवादी, धर्मध्वज आदि परम्पराओं के प्रति अवज्ञा की भावना उत्पन्न कर17, चमत्कारों तथा अन्य साधारण उपायों द्वारा जनता को प्रभावित कर अपने-अपने मत में दीक्षित करने का प्रयत्न कर रहे थे।
अगणित विभिन्न विदेशी जातियों के समाज में आ मिलने से जो वर्ण भिन्नता और वर्ण विरोधी स्थिति या उपस्थिति हुई, उसने स्मार्त व्यवस्था को बड़ा धक्का पहुँचाया। बौद्ध धर्म में वज्रयान बड़ी तीव्रता से शाक्तों की ओर बढ़ता आ रहा था, उधर शाक्त धर्म प्रायः सर्वथा तांत्रिक हो चला था। धीरे- धीरे तारा, प्रज्ञा, पारमिता और शक्ति में भेद न रहा और दोनों की विधि क्रियायें तांत्रिक हो गई थी। उन्होंने घोषित किया कि जो ब्राह्मण (स्मार्त) धर्म में धर्म है वह हमारे लिये अधर्म है और जो उनके लिये अधर्म है वही हमारे लिये धर्म होगा। उन्होंने तप द्वारा वासनाओं को जीतने की जगह अतिभोग से उनका निरादर करना उचित समझा और भारत का सामाजिक मेरुदण्ड टूट गया। हुआ तो यह था विशेषतः वर्णादि बाह्मण (स्मार्त) व्यवस्था के विरोध में विद्रोह के रूप में, पर एक बार शूद्रादिकों को (नयी जातियों के आने से जिनकी शक्ति बढ़ गई थी) जो अवसर मिला, तो उन्हांेने सभी प्रकार के असामाजिक विद्रोह करने शुरू किये।18 उनके नेता भी अधिकतर या तो टूटे हुए ब्राह्मण थे या निम्नजातीय साधक। सिद्धों की परमपरा जगी। साधक स्वयं तो आचरणतः शाक्त थे, पर इस प्रकार की शाक्त वज्रयानी या साधारण स्मार्त विरोधी जनता कौन संभाल सके। पालों (शूद्र और बौद्ध) के शासन में स्थिति अधिकाधिक बिगड़ती गई और कापालिक औघड़ आदि अनेक पंथ उठ खड़े हुये। सुरा और नारी का साधनाओं में उपयोग होने लगा।19 मन्दिरों तक पर यौन उत्खचन जा चढ़े और प्रकृत माने जाने लगे। यह व्यवस्था या कुव्यवस्था मुगल काल तक चलती रही।
इसके अतिरिक्त मध्यदेश में ग्वालियर, सोनागिर (दतिया) देवगढ़ (ललितपुर) के आस-पास जैन श्रावकों का काफी जोर था। राजा तक इनके प्रभाव में थे, नंगे और लुच्चे (नग्न-लुंचित) सामाजिक रूप को बिगाड़ रहे थे। दक्षिण में भी इन्हीं जैन श्रावकों का प्रभाव इसी प्रकार का था। बारह ज्योर्तिलिंगों के अतिरिक्त जगह जगह शैव (कापालिक, कालमुख, पाशुपत, लिंगायत आदि) का प्रभाव फैला हुआ था। इधर कालपी, पदम् पवांया (ग्वालियर) कुण्डेश्वर, भारेश्वर, महेश्वर, त्रिपुर,ी मन्दसौर, उज्जैन आदि इनके प्रसिद्ध स्थान थे। कुण्डे पुज रहे थे। भैरवी चक्र का प्रभाव सर्वत्र था20।
आचार्य शुक्ल लिखते हैं- नांथ पंथी रमते जोगियों के प्रभाव से जनता अंधी भेड़ बनी हुई तरह-तरह की करामातों को साधुता का चिन्ह मानने लगी थी जो हृदय सबके पास होता है, वही अपनी स्वाभाविक वृत्तियों द्वारा भगवान की ओर लगाया जा सकता है-इस बात पर परदा-सा डाल दिया गया था- लोक की इसी दशा को लक्ष्य करके गोस्वामी जी को कहना पड़ा था कि- ‘गोरख जगायो लोग, भगति भगायो लोग’
उस काल मूड़-मुड़ा वैरागी मिलना बड़ा सुलभ था। मन, बचन और कर्म से शैव थे और अभिमान वश अन्य देवा (वैष्णावादि) की निन्दा करते थे। अपार सम्पत्ति जोड़ मदमत्त हो रहे थे, प्रगल्भता उनका स्वभाव था बुद्धि से उग्र21 और हदय विशाल दंभ से भरा था। शाक्त, कापालिक, अघोरी और तथाकथित येागी अशुभ और अभद्र वेश और आभूषणों को धारण करते, भक्षाभक्ष खाते22 और पूरी तरह से परतिय-लम्पट23 एवं कपट में सयाने अभेदवादी ज्ञानी24 और सिद्ध बने डोलते थे, ऐसे केवल ब्राह्मणेतर जाति के लोग ही नहीं थे बल्कि ब्राह्मण भी निरक्षर, लोलुप,कामी, आचार हीन तथा वृषली स्वामी थे। निम्नवर्गीय (ब्राह्मणेत्तर जाति वाले) जप-तप और अनेकानेक ब्रत करते हुये व्यास पीठ से पुराण कहते फिरते हैं तथा अपनी कल्पना के आधार पर आचरण सिरज लेते थे 25 अजीब स्थिति थी।
कन्या पूजा धर्म हो गया था। विन्ध्याचल (मिर्जापुर) में नग्न कुमारी की पूजा होने लगी थी। औघड़ कापालिक (सहजिया मरमिया) आदि अनेक पन्थ उठ खडे हुये26। समाज में एक बड़ी सेना उनकी तैयार हो गई थी जो कि निम्नवर्गीय थे, अवर्ण अस्पृश्य थे, विदेशी थे, वर्ण च्युत थे। वज्रयान और शाक्त दोनों को वे स्वीकार थे। दोनों ने उनका स्वागत किया27। तंत्रों का सिद्धान्त था कि जो सिद्धियाँ तप और ज्ञान से नहीं मिलतीं, वे रजक और चाण्डाल कन्या के संभोग से मिल जाती हैं। कुलार्णाव तंत्र में लिखा है-’’प्रवृत्ते भैरवी चक्रे संवेवर्णा द्विजातयः’’ तथा ज्ञान संकलनो तंत्र कहता है-’वेद शास्त्र पुराणानि सामान्य गणिका इव’’ इन तमाम बातों से शास्त्रों के प्रतिकूल वातावरण बनने लगा था, बहुत कुछ बन चुका था। उनके वामाचार से सभी खिन्न और ऊबे हुये थे28। इस पृष्ठभूमि को तुलसी ने खूब समझा था। यही कारण है कि वे हनुमान को सकल सिद्धिदाता, शक्ति रूप तथा रुद्र रूप वामदेव पुरारि, कामजेताग्रणी के अवतार रूप में प्रतिपादित कर सके29। गाँव-गाँव, गली-गली दुश्मन फटकार, संकटमोचन, वज्रदेह-दानव दलन, शक्तिस्रोत, हनुमान के चबूतरे बनवा सके और चूंकि इन्होंने ’काज किये बड़ देवन’ के इसलिये सब प्रार्थना करने लगे, ’’वेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कुछ संकट होय हमारो’’ धीरे-धीरे वह शिव और शक्ति की भाँति सहज देव हो गया उसके स्मरण मात्र से भूत-पिशाच व्याधि से मुक्त और सम्पूर्ण सिद्धियाँ सुलभ हो गई। रामचरित मानस की भाँति हनुमान का इस रूप में प्रतिष्ठापन भी तुलसी का एक मौलिक योग है।
संत साहित्य के प्रबल स्वर, सूफीमत के प्रभाव, और कृष्ण भक्ति धारा के अनुग्रह भाव का तुलसी ने भरपूर उपयोग किया। साहित्य जगत की सम्पूर्ण कच्ची मिट्टी, जो यहाँ-वहाँ बिखरी थी, उसको भली प्रकार कूट कर, अपने पदार्थ मिला कर, एकदिल किया और फिर जो मूर्ति गढ़ी उसके सौन्दर्य के आलोक में चार सौ वर्ष कट गये। सारा उत्तर भारत (विशेष रूप से मध्यदेश) बदल गया और जो हो गया वह सबका अंजाना नहीं है, यह सब बड़ा सुनियोजित हुआ। गोस्वामी जी लिखते हैं-
हृदय सिन्धु मति सीप समाना, स्वाती सारद कहंहि सुजाना।।
जो बरखै बर बारि बिचारू। होहि कबित्त मुक्ता मनि चारू।।
जुगति वेधि पुनिपोह अहि, रामचरित बरताग।
पहरहिं सज्जन विमल उर, सोभा अति अनुराग।।
तुलसी सत्य के संग्रहकर्ता थे, उन्होंने प्रचलित सिद्धान्तों की अच्छी बातों को स्वीकार किया, पर उनके भ्रम उत्पन्न करने वाले अंशों का विराध किया और डटकर विरोध किया। श्रुति-सम्मत-पथ का विरोध करने वाले निर्गुणियें संतों की उच्छखृंल स्थापनाओं का दृढ़ विरोध करते हुये उनकी भर्त्सना की है30। वैसे निर्गुण और निराकार का विरोध वैष्णव विचार धारा में डट कर आ चुका था31। तुलसी ने अन्य धर्मो के सिद्धान्तों, आराध्यों आदि की महत्ता को स्वीकार करते हुये उन्हें अपने आराध्य और सिद्धान्त का ही एक अंग बना दिया है और इस प्रकार उनकी स्वतंत्र और पृथक सत्ता और महत्व का उन्मूलन करने का चातुर्यपूर्ण सफल प्रयास किया। ज्ञान और भक्ति के द्वन्द्व का शमन करने के लिये दोनों के समन्वय की घोषणा करते हुये भी अंत में भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध कर देतें हैं32। भक्ति के लिये तुलसी के मत में ज्ञान और भावना का समन्वय है, चातक के प्रेम का आदर्श है, चातक की-सी अनन्यता, कष्ट-सहिष्णुता और सहजता होना आवश्यक है33। साथ ही सबके कल्याण की भावना का होना अनिवार्य है लोक-कल्याण के लिए विवेक और वैराग्य का होना आवश्यक है। क्योंकि-
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।
गोस्वामी जी का यह मोह स्वार्थ-बोधक और वैराग्य विरोधी है, तभी तो इसे सम्पूर्ण व्याधियों की जड़ तथा अनेक सालने वाले कष्टों का कारण मानते हैं34। इसी भाँति तुलसी का दारिद्र (दैन्य) भी ध्यान देने योग्य है35। उनके ’दारिद्र-दलैया’’, राम तो सर्वत्र है ही पर रुद्रावतार हनुमान, जो राम काज करने को आतुर रहते हैं, भी हैं। यदि दैन्य की उत्प्रेरक वृत्ति लोकपरक है और उसका केन्द्र एक ही व्यक्ति नहीं, लोक अथवा विश्व है, तो वह दैन्य व्यक्ति और लोक दोनों के मंगल का हेतु है। यही दैन्य का उदात्त रूप तुलसी का प्रेय है। इसी दैन्य-दलन हेतु श्री राम का अवतार हुआ है। रामजन्म का मुख्य हेतु है अन्याय का नाश, दारिद्रता अथवा ’कलिमल’ का जीवन के सम्पूर्ण अन्याय का आमूल विरोध और उसके नाश का सफल प्रयत्न।
तुलसी का सम्पूर्ण ’स्व’ लोकमय, परमार्थमय हो चुका था। इसलये ‘स्वान्त सुखाय रघुनाथ गाथा’ लोक भाषा में रची गयी और इसमें लोक परम्परा का, नारा पुराण निगमागम सम्मतं कहकर स्वीकृति भी मिल गई है, पर यह सब पूर्व सुनियोजित और विवेकपूर्ण ढंग से हुआ है। इसीलिये ‘मानस’ उनके लोकनायक रूप का प्रतिनिधित्व करता है। मानस का कवि व्यासगद्दी पर आसीन हो युगदृष्टा के स्वर से समाज का नियमन करता दिखाई देता है और ‘पत्रिका’ में वही उस उच्चासन से नीचे उतर मानव के अन्तस में प्रवेश कर उसके शुभ को उभारने का अप्रत्यक्ष प्रयत्न करता है दार्शनिक ऊहा पोह से हट मानव मन के शुद्धिकरण द्वारा मानव-कल्याण का सन्देश देता है36--उसी अन्याय के परिहार का प्रयत्न है।
इसी मानव कल्याण के लिये उन्होंने स्त्री का कामिनीरूप में, विलास साधन के रूप में महत्व कम किया37। अब मर्यादित स्थिति में उन्हें सब ओर का अकल्याण ही दिखाई देता था ’’दारिद्री दुखारी देखि मुसुरभिखारी भीरू, लोभ मोह काम कोह कलिमल हेरे हैं।’’ वैसे लोभ, मोह, काम, क्रोध के छुटकारे के लिये योग की साधना सर्वविदित थी पर तुलसी की दृष्टि इन सबकी जड़ कलिमल पर है, जो उस काल की सम्पूर्ण परिस्थिति को अपने में समेटे है। ’’अस्थि चर्म मय देह’’ जैसी प्रीति श्रीराम के प्रति होने से भीति से छुटकारा पाने जैसा श्रेष्ठ और सार्थक ज्ञान ’रतनावली’ के द्वारा दिया गया हो38। अथवा नहीं पर तत्कालीन सामाजिक वातावरण से अवश्य मिला होगा जिसके कारण उनका शान्त सुभाव गा उठा-- परिहरि देह जनित चिन्ता’ ’अविचल हरि भक्ति लहोगो’’39। उनका इष्ट राम भी अन्याय के विरोध में कहता है कि एक बार सुधि भर मिले तो फिर निमिष मात्र में काल को भी जीत कर ले आऊँगा40। अत्याचार अनाचार के विरोध में यदि मृत्यु के मुँह में जाना पड़े, तो जाने में गौरव ही है। वही गीता ज्ञान- ’मरेंगे तो स्वर्ग, जीतकर जीवित रहेंगे, तो चैन सुख और आनन्द’’। कथानक की बनावट तो देखिये- सीता भूमिपुत्री है पृथ्वी ने ही गाय बन कर ब्रह्मा से रावण के जुल्मों से रक्षा की प्रार्थना की थी और विष्णु ने कहा था- ’’हरहऊं सकलि भूमि गरूआई’’। अतः सामान्य जन संगठन या लोक शक्ति जहाँ न हथियार न दीक्षित सेना न रथ और न अंगरक्षक, मदान्ध राज शक्ति से जूझ सकती है, रावण जैसी महाशक्ति को ललकार सकती है। मानव मात्र के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला क्षात्र-धर्म है। क्षात्र धर्म के इसी व्यापकत्व के कारण हमारे मुख्य अवतार क्षत्रिय है। (महापंडित राहुल सांकृत्यायन एवं डॉ0 रांगेय राघव प्रभृ़ित्त विद्वान, रामकृष्ण और महाबीर गौतम आदि अवतार माने जाने वाले क्षत्रियों का प्रयत्न ब्राह्माणों के विरूद्ध किये गये विद्रोह के रूप में देखते हैं) पर फिर भी छात्र धर्म एकान्तक नहीं हैं। उसका सम्बन्ध लोकरक्षा से है। मनुष्य की सम्पूर्ण रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर ले जाने और उदात्त करने की सामर्थ्य उसमें है। संसार में मनुष्य मात्र की समान वृत्तिक भी नहीं हो सकती- इस बात को भूलकर जो उपदेश दिये जाते हैं, वे पाखण्ड के अन्तर्गत आते हैं। वृत्तियों की भिन्नता के बीच से ही मार्ग निकल सकेगा, वही लोक रक्षा का मार्ग होगा, वहीं धर्म का चलता हुआ रूप होगा।
भारत में धर्म का जीवन से अत्यन्त सांस्कृतिक और घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। धर्म को अलग करके भारतवर्ष की राजनीति तथा समाज को नहीं देखा जा सकता। भारत का सांस्कृतिक रूप धर्म के आवरण में पला है और उसकी स्मृति का मापदण्ड है। विभिन्न विचार धाराओं का संघट्ट ही आज विस्मयबोधक एकत्व के रूप में आ चुका है तब उसको अलग-अलग सूत्रों में विघटित कर देना वास्तव में एक कठिन बात ही है। आर्यो के आने पर इस भूमि पर दो विचारधारायें बह रही थीं। कालान्तर में आर्यो का आनन्दवाद, दुःखवाद और विलासवाद से हिल-मिल गया 41। उसके साथ ही योग (दुःखवाद) और राशेश्वर मत (विलासवाद) आदि प्रायः सभी में पाये जाने लगे। आनन्दवाद के प्रावल्य में सर्वप्रथम विलासवाद को सामाजिक बंधनों में बांध दिया और सुख-दुःख सभी आनन्द मूलक हो गया42। यही आनन्दवाद ’चिन्मय देहेन्द्रिय विशिष्ठ’ होता है, जब आनन्द का उपभोग करने के लिये भक्ति के साम्राज्य में भोक्ता और भोग्य दोनों ही पारस्परिक साहचार्य में रत होते है 43। शाणिडल्य सूत्र में पूरानुरक्ति कहा गया। चैतन्य के लिये प्रेम परमसार बना। तुलसी का ’अविचल हरि भगति’’ जिसको वे अनुग्रह भाव से44 प्राप्त करना चाहते हैं यही सनातन आनन्द भाव है। राम का प्रिय लगना ’’कामहि नारि पियारि जिमि’’ आनन्दोन्मुख विलास वाद की ओर ही इंगित करना प्रतीत होता है।
तुलसी के बाद तुलसी से पूर्व-सदैव ही जायसी का ’हेमसेत गौर-गाजना’ वाला मध्यदेश सम्पूर्ण भारत, जिसकी सीमाये अंग्रेजी राज्य में स्पष्ट हुई, को प्रेरणा देता रहा, आर्य संस्कृति को प्रभावित करता रहा, हिन्दू-संस्कृति का मेरूदण्ड रहा है। कभी वेद और पुराण फैले, कभी बौद्ध और जैन धर्म ने इसी के माध्यम से अपनी विचारधारा को प्रसार दिया, कभी शांकरमत को दिग्विजय का श्रेय मिला। तुलसी के ’’मानस’’ को भी यही से फैलाव मिला। जब कभी (तुलसी के बाद) बाहर जाने वाला हिन्दू प्रवास पर गया वह रामचरित मानस को अपने साथ लेता गया। लोग समझे कि यही भारत का बाइबिल अथवा कुरान है। यही हिन्दू धर्म है।
मनीषियों का कथन है--इतिहास मनुष्य की तीसरी आँख है। पुराण एवं लौकिक परम्परायें इतिहास ही हैं। डॉ0 हजारीप्रसाद द्विवेदी इस सम्बन्ध में बात करते हुये कहते हैं--तांत्रिक ऐसे आदमी का शव चुनते हैं जो कुलीन हो तुरन्त मरा हो प्रसन्नचित्त मरा हो। वीरगति को प्राप्त हुआ है, इस शव को औधें मुंह लिटाकर साधक तंत्र-मंत्र करता है जब शव, शिव ही जाता है तो उसका मुंह उलट जाता है और वह पूंछता है बोल क्या चाहता है ? भीरू किस्म का साधक यह सुनते ही सिट्टी पिट्टी भूलकर खुद शव हो जाता है उससे ऊँचे दर्जे का साधक स्थिर चित्त बना रह पाता है पर यह मझौले दर्जे का साधक छोटी-मोटी सिद्धियों के प्रलोभन में डोल जाता है। सफलता चरितार्थता फुलफिलमेन्ट का अधिकारी वही होता है। तत्कालीन इतिहास कुलीन शव है। तुलसी गम्भीर साधक और प्रतिफल शिवरूप रामचरित मानस।
आधुनिकता की तीन शर्ते हैं- एक इतिहास बोध, दूसरे इह लोक में ही कल्याण होने की आस्था और तीसरी व्यक्तिगत कल्याण की जगह सामूहिक कल्याण की एषणा-इस संदर्भ में तुलसी स्पष्टतः आधुनिक थे। अतएव यह स्वीकार करने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं कि सत्य के अद्भुत संग्रहकर्ता प्रचलित सिद्धान्तों की अच्छी बातों को स्वीकार और उनके भ्रमपूर्ण अंशों का विरोध करने वाले किसी व्यक्ति, पंथ, मत, सम्प्रदाय विशेष के अंधानुयायी न होकर स्वतंत्र विचारक शुभ का संग्रह करने वाले45 तुलसी, कालीदास के बाद पहले साहित्यकार हैं जिन्होंने हमारे सम्पूर्ण को उद्वेलित किया है, प्रभावित किया है उसको एक विशेष दिशा में मोड़ दिया है। उन्होंने यह सब शुक्र नीति के आदेश का पालन करते हुए किया है जो मूलतः किसी भास्कर्य को दिया गया है जिसमें कहा गया है-एक प्रतिमा का विशिष्टगुण उसकी वह सामर्थ्य है जिससे वह ध्यान तथा योग की सहायिका होती है, अतः मानव मूर्तिकार को ध्यान परायण होना चाहिये। किसी प्रतिमा के स्वरूप को जानने के लिये ध्यान के अतिरिक्त दूसरा कोई साधन नहीं प्रत्यक्ष दर्शन भी (काम का नहीं) तुलसी ने अपने हीरे को तराशने के लिये ध्यान की खरात पर चढ़ा पूरे मनोयोग से उसके विभिन्न पहलुओं को छीला। हीरा रूपी उनका ’रामचरित मानस’ हम सबके समक्ष है ही। मैंने उन छीले हुए विभिन्न पहलुओं में से कुछ को समझने का यह प्रयत्न किया है।
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संदर्भ संकेत-
1. भगवत शरण उपाध्यायः भारतीय कला और संस्कृति की भूमिका (2) कवितावलीः उत्तरकाण्ड छन्द 33 (3) हिन्दी साहित्य- भाग-1 (संपादक धीरेन्द्र वर्मा) भौगोलिक और मानव वैज्ञानिक पृष्ठभूमि-पृष्ठ 3, डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल (4) जायसीः पद्मावत 426, 9, 498, 8 (5) हिन्दी साहित्य-सम्पादक धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ 11 (6) वही, पृष्ठ 7 (7) डा0 हरदेव बाहरी- भाषा का इतिहास, वही पृष्ठ 135 (8) हैमारेचित्त, पुण्यतीर्थ जागोरे धीरे, एई भारते महामानवेर सागर तीरे केह नाहि जाने, कार आव्हाने, कत् मानुषेर धारा दुवारे स्त्रोते एलोकोथ हते हेमाय आर्य, हैथा अनार्य हेथाय द्राविड चीन-शक, हण, दल, पठान मोग लएकदेहै हलोलीम रणधारावाहि, जय गान गाहि, उन्माद कलरवे, भेदिमारूपध, गिर-पर्वत यारा ऐसे छिली सबेे तारा मोर माझे सबाई विराज केहो, नहे-नहे दर आभार शोणित रयेछे ध्वनिति तारि सर।।
भारत में आर्य और अनार्य-डा0 सुनीति कुमार चाटुर्ज्या पृष्ठ 53।
(9) दिनकरः संस्कृति के चार अध्याय, पृ0 4
(10) काव्यं यशसेऽर्थ कृते व्यवहार विदे शिवेत रक्षतये।
सद्यः परिनिवृर्त्तये कान्ता सम्मित तयोपदेशे युजे। ....काव्यप्रकाश
तथा-कीरति भनित भूति भलि सोई। सुरसरि सम सबकहँ हित होई।
(11) हिन्दी साहित्य की भूमिका- हजारी प्रसाद द्विवेदी।
(12) बहुमत मुनि, बहुपंथ पुराननि जहाँ तहाँ झगरौं सौ।
तथा-दंभिन्ह निज म िकल्पि करि, प्रकट किये बहुपंथ। रा0च0मा0 बा0 97(क)
(13) तिन्ह कहं सुखद हास रस एहू-तथा हसिवे जोग हंसे नहि खोरी। बा09
(14) खेती न किसान को भिखारि को भूखि बलि बनिक को बनिज ना चाकर को चाकरी, जीविका विहीन लोग सीथिमान सोचबस कह एक एकन सौं कहां जाई का करो। .............तुलसीकृत कवितावली
(15) संस्कृत रीति ग्रंथों का प्रणयन हो चुका था, हो रहा था। यह दरबारी कविता श्रृंगार प्रधान थी।
......दृष्टव्य-रांगेय राघव, प्रा0भा0पा0 और इतिहास पृ0 473
(16) राजनाथ शर्मा: हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास पृ0 280 कवितावली, तुलसी ग्रंथावली, दूसरा खण्ड पृ0 225 रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ0 342, डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास पृ0 222,
(17) दोहावली- दोहा 555, रामचरित मानस उ0 100 (ख) दोहावली दोहा 554 दोहावली दोहा 553, राचरित मानस उ0-99 (ख)
(18) दृष्टव्यः कलियुग वर्णन, रामचरितमानस उत्तर, 97 से 102 तक, विनय पत्रिका पद 139-आश्रम बरन धरम विरहित जग लोक वेद मरजाद गई है तथा-भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय कला और संस्कृति की भूमिका, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास-पृ0 138-140
(19) बल्देव उपाध्याय- धार्मिक स्थितिः हिन्दी साहित्य सं0 धीरेन्द्र वर्मा पृष्ठ 99-101
(20़) व्यास वाणी पद 291 वीरसिंह देव चरित-प्रथम प्रकाश, विज्ञान गीता पृष्ठ 74-75 तथा रतनावली छन्द 19।
(21) धन मद मत्त परम वाचाला। उग्र बुद्धि उरदंभ विशाला-उत्तर, 97-3
(22) जाके नख अरू जटा विशाला, सोई तापस प्रसिद्ध कलि काला। अशुभ वेष भूषन धरें भच्छा भच्छ जे खांहि-उत्तर काण्ड 98(क़)
(23) पर तिय लम्पट कपट सयाने, मोह दोह माया लपटाने, तेई अभेद वादी ग्यानी नर, देखा मैं चरित्र कलियुगकर।
(24) विप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार, सठ वृषली स्वामी। केशवदास, विज्ञानगीता पृ0 77 (दृष्टव्य)
(25) सूद्र करहिं जप तप व्रत.......।
़(26) भगवतशरण उपाध्याय- भारतीय कला और संस्कृति की भूमिका पृ0 105
(27) अरू भूले षट दरसन भाई, पाखंड भेष रहे लपटाई--कबीर ग्रंथावली दृष्टव्य केशवदास, विज्ञानगीता, सप्तम प्रभाव, कलियुग वर्णन।
(28) वैश्नों की छपरी भली न साकत बड़ गाँव तथा शाक्त ब्राह्मण मति मिले विषनों मिले चंडाल, अंक माल दे भेटिये मानो मिलेगुपाल-कबीर ग्रंथावली पृ0 39 तथा विशेष दृष्टव्य, भक्त कवि व्यास जी, साखी पृ0 134 से 146
(29) दृष्ट्व्य विनयपत्रिका, पद संख्या 25 से 26 एवं हनुमान वाहक तथा-- अंजु मंगल मोर मय मारूत पूत। सकल सिद्धि कर कमलतल सुमिरत रघुवर दूत।।.....................दोहावली 229
धीर वीर रघुवीर प्रिय सुमिरि समीर कुमार।
अगम सुगम सब काज करू करतल सिद्धि विचार। दोहावली 230।
(30) हम लखि लखहिं हमारू लखि हम हमार के बीच।
तुसली अलखहिं का लख, राम नाम जपु नीच।
(31) दृष्टश्व- सूरदास के, भ्रमरगीत, तथा नन्ददास के भंवरगीत।
(32) अगुनहिं सगुनहिं नहि कुछ भेदा तथा ज्ञानहि भगतहिं नहिं कुछ भेदा।
तथा अस विचार जे मुनि विग्यानी जॉचहिं भगति सकल सुख खानी।
(33) परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीडा सम नहिं अधमाई।।
(34) मोहु सकल व्याधिन्ह कर मूला। तथा मोह दस मोलि तत भ्रात अहंकार
(35) दारिद दसानन दबाई दुनी दीनबन्धु तथा दशमुख दुसह दारिद दरिवेकों।
(36) दृष्टव्य राजनाथ शर्मा, तुलसी साहित्य का मूल काव्य, हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास पृ0 272
(37) दीप सिखा सम जुवति तन, मन जनि होसि पतंग।
भजहिं राम तजि काम मद करसि सदा सत्संग।।
(38) लाज न आवत आपको दोरे आयहु साथ। धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहो मैं नाथ अस्थि चर्म मय देह मम तामै ऐसी प्रीति। तेस जो श्रीराम मह होति न तो भवभीति।....रामचन्द शुक्ल हि0सा0 का0 इतिहास पृ0 128
(39) परिहरि देह जनित चिन्ता दुख सुख सम बुद्धि सहौंगी।।विनय पत्रिका 172
(40) एक बार कैसेहु सुधि जानौगे, कालहु जीति निमिष महँ आनौ।।
(41) दृष्टव्य रांगंेय राघव -प्राचीन भारतीय परम्परा और इतिहास पृ0 467
(42) आचार्य मूलताः जाति स्यादा चारः शास्त्र मूलकः।
वेद वाक्यं शास्त्र मूलं वेदः साधक मूलकः
क्रिया मूलं साधकश्च क्रियापि फल मूलिका।
फलै मूलं सुखम चव सुखमाचन्द मूलकम।।
तथा- ध्वन्यालोक में अभिनव गुप्त ने सभी रसों को आनन्दमूलक माना है। यथा शब्द सामर्थ्य भाण हृदय संवाद सुन्दर विभावानुभाव समुदित प्राङनिविष्ट रत्यादि वासनानुराग सुकमार स्वसर्विदा नन्द चर्त्रणव्यापार रूपो रसनीयो रसः।
(43) नारदीय पांचरात्र
(44) श्री रघुनाथ कृपालुकृषाते- विनयपत्रिका पद 172
(45) शुक्रनीति-अध्याय 4 विभाग 4, 147 150। भगवतशरण उपाध्याय-कालीदास का भारत, भाग 2 पृ0 31।
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