राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 12 राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 12

शक्ति के प्रतीक हनुमान: ’हनुमान बाहुक’ पर एक दृष्टि

राधारमण वैद्य

मनीषियों का ऐसा मत है कि नाम-रूप से व्यक्त सभी पदार्थो में शक्ति तत्व धर्म, और गुण रूप से व्यक्त हो रहा है, इसी से पदार्थ का परिचय होता है। इस शक्ति तत्त्व की उपासना अनादि काल से संसार में होती आ रही है। इसी प्रकार शिव तत्व की उपासना भी अति प्राचीन है। पर यह शक्ति तत्त्व और शिव तत्त्व अपना नाम बदलता रहा, यद्यपि रहा सदैव ही पूजनीय और सर्वोपरि ही। और यह बदलते हुए नाम ही भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय कहलाने लगे तथा अपनी-अपनी पुष्टि में शास्त्र और सम्मतियों की रचना होने लगी। कई बार शक्ति तत्त्व और शिव तत्त्व एक ही सम्प्रदाय में मिला-जुला मिलता है। कुछ मनीषी कहते हैं कि शक्ति तत्त्व और शिव तत्त्व भारतभूमि की अनादिकालीन है और उसमें भागवतधर्मी वैष्णवता आर्यकालीन देन है। पर वे इतने समन्वित हो चुके हैं कि बिलगाये नहीं जा सकते। फिर भी जिस भू-भाग में जिसका प्रभाव अधिक रहा, वहाँ की सांस्कृतिक उपलब्धियों में उन्हीं का रंग स्पष्ट, प्रत्यक्ष और उजला-उजला लगता है। आर्य-प्रभावी क्षेत्र में भागवतधर्मी वैष्णवता और अनार्य प्रभावी क्षेत्र में शैव शाक्त मत-अलग अलग या संयुक्त रूप में दिखाई देते हैं।

वैष्णव प्रभावी क्षेत्र में राम शिव तत्त्व को आत्मसात् कर चुके और जैसे शिव का एक रूप शक्ति संयुक्त भी है, इसी प्रकार उनमें भी शक्ति अन्तर्निहित मानी गयी। शिव पंचायतन के आधार पर राम पंचायतन ने भी अपना रूप स्पष्ट किया। यह काम एक दिन में नहीं हुआ। श्रीमद् भागवद्गीता, महाभारत का शान्तिपर्व, पा´्रात्र, रामानुजाचार्य आदि आचार्यो के प्रमुख ग्रंथ के माध्यम से लगभग डेढ़ हजार वर्ष के लम्बे समय में हो सका। पर जो कुछ हुआ, वह हुआ खूब दृढ़ और गहरा, जो सहसा न उखाड़ा जा सके। इसी के साथ-साथ शिव, सूर्य, शक्ति, विष्णु और गणेश की समन्वित रूप में, उनमें बिना किसी पार्थक्य के, आराधना और उपासना करने वाला बुद्ध भारतीय समाज भी जन्म लेकर विकसित होता चला गया।

वैष्णवधर्मी सम्प्रदाय में रामानुजाचार्य का तारक राम मंत्र रामानन्द ने ग्रहण कर उसका सगुणियों और निर्गुणियों दोनों में खूब प्रचार किया। तुलसी कहते हैं-

राम एक तापस तिय तारी।

नाम अमित खल कुमति उधारी।।

भगवान् राम अपने सम्पूर्ण वैभव, समस्त ऐश्वर्य के साथ लोक-मानस में समाते चले गये और

जो इच्छा करही मन माहीं।

राम कृपा कछु दुर्लभ नाहीं।।

यह भाव ही सबका भाव बनता गया। समन्वय के अद्वितीय धनी, फिर भी मौलिक उद्भावना के उत्प्रेरक तुलसी की दृष्टि में व्यापकता और गहराई, दोनों असाधारण है, उनकी पकड़ अपूर्व है। उनकी सहृदयता और संवेदनशीलता पंडित और मूर्ख दोनों को हिला देने की शक्ति रखती है। युग-पुरूष की दृष्टि, दार्शनिक की गहरी पैठ, सच्चे कवि की रससिद्ध वाणी से सम्पन्न यह अकेला कवि अपनी उपरिलिखित सम्पूर्ण उपलब्धि (परम्परा) का उपयोग नये रूप में युग मानस को प्रकट करने में समर्थ हो सका।

मुझे ऐसा लगता है कि तुलसी का यह प्रयत्न और जाना बूझा प्रयत्न है। जन-मानस में कबीर की यह बात-’’बैश्नों की छपरी भली, ना साकत का बड़ गाँव’’-घर किये थी। वह मानने लगा था कि ’’साषत ब्रामण मति मिलै, विषैनो मिलै चँडाला’’ और वह ’’मानों मिले गोपाल’’ वाले भाव से (द्रष्टव्य- कबीर ग्रंथावली पृष्ठ 39 तथा कृष्ण भक्त हरिराम व्यास की वाणी-पद संख्या 215, 291 एवं साखी क्रमांक 134 से 146 तक)। इस पृष्ठ भूमि की युग की नब्ज समझने वाले तुलसी ने भली प्रकार समझ लिया था। शैवों और शाक्तों के प्रति उत्पन्न नफरत का जहाँ उन्हे पता था (’’तजि श्रुति पथ वाम पथ चलहीं, बंचक विरचि वेष जग छलहीं’’) वहाँ वे यह भी जानते थे कि शिव तत्त्व और शक्ति तत्त्व की जड़े कितनी गहरी है और वे लोक मानस में कहाँ तक समायी हैं। अतः राम के शिवत्त्व का चित्र प्रस्तुत करने में उन्हें जिन रंगों को भरना पड़ा, उन्हीं रंगों को जरा चटक करके वे हनुमान् के शक्ति रूप को भी प्रकट कर सके, उन्हें शक्ति स्त्रोत, अतुलित बलशाली तथा रूद्र अवतार बता सके। अनार्यदेव के रूप में तो वे प्रतिष्ठित थे ही। (देखिये डॉ0 सुनीति कुमार चाटुर्ज्याः भारत में आर्य और अनार्य, पृष्ठ 99) बड़ी चतुरता से दास भाव की भक्ति, राम में शिव तत्त्व प्रधान और शक्ति तत्त्व गौण रूप से उन्हीं में समाहित कर तथा हनुमान को ’’रूद्र के अवतार, महादेव, कामजेताग्रणी’ और पूर्ण शक्ति के रूप में प्रस्तुत करके वैष्णव धर्म सब प्रकार से पुष्ट कर सके, तुलसी हर एक के लिए उस रूप में आकर्षण भरकर प्रभू की मूरत को इस प्रकार सँवार सके कि जिसकी जो भावना हो, उसे वैसी ही मूरत उसीमें दिखाई देने लगे और आर्य एवं अनार्य तत्वों से बना भारतीय समाज उसे आराध्य मान सके।

साधना केवल उपास्य को आश्रय करके नहीं चलती, उपासक भी उसका मुख्य अंग होता है। शक्ति के ’’उत्तर’ को वह अपने संस्कारों और मान्यताओं के आधार पर ही स्वीकार करता है और वही तुलसी ने और तुलसी के जन मानस ने भी किया। फिर मुसलमानी प्रभाव में अखाड़ों में शक्ति के स्रोत के रूप में ’’अली’’ आ चुका था। इसलिए हनुमान को इस रूप में प्रस्तुत करना और भी आवश्यक हो गया था। सीता सुकुमारी थी, वह मुण्डमाला धारण नहीं कर सकती थी, खड्ग नहीं संभाल सकती थी। वह तो आनन्ददायिनी शक्ति थी। अतः हनुमान ही शक्ति के स्रोत के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे। भौतिक शक्तियों के मुकाबले में भी हनुमान को ही सवाया पाया और दैवी शक्ति के समक्ष ही वह हेठा न दिखा-

काहु भरोसी है वाहन कौ, कोउ बाँधव के बल जोर जनावै।

काहू के रूप स्वरूप धनौ, कोउ भूपन के ढिंग बैठक पावै।

काहू के द्रव्य को गर्व धनौ, अति चातुर हो चतुरंग कहावै।

मेरे तो एक तुम्हीं हनुमान हनौ, किन वाह जो मोहिं सतावै।।

धीरे धीरे उनकी संज्ञा संकटमोचन हो चली। सब जान गये कि इन्होंने ’काज किये बड़ देवन के’’ फिर कौन सा संकट है, जो इनसे टाला न जा सकेगा ? इस सामर्थ्य तो पूर्व से ही सर्वविदित थी, पर अब लोक-मत में गहरी पैठ गयी। इस ’’बज्र देह दानव दलन’ से प्रार्थना कर उठे कि ’‘ः वेगि हरौ हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारौ।’’

हनुमान बाहुक, जिसकी रचना का काल सन् 1600 ई0 के लगभग अनुमाना गया है तथा जिसकी पद्य संख्या के अनुसार 208 तथा सन् 1909-10-11 के अनुसार 190 है, मै। एक बाहु क्या सर्वाँग पीड़ा शमन हेतु प्रार्थना या मंत्र दिये गये हैं। यद्यपि कतिपय विद्वान, कवितावली में ही इसको सम्मिलित मानने के कारण इस ग्रंथ की अलग सत्ता नहीं स्वीकारते, पर कुछ विद्वान इसे अलग ही मानते हैं और इसकी पा्रमाणिकता पर किंचित मात्र भी शंका नहीं करते। परन्तु अधिक प्रचलित होने और कण्ठस्थ किये जाने से पाठ-भेद निश्चित हो गया है, जो अन्वेषण की अपेक्षा रखता है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि मंत्र-तंत्र विश्वासी जन समुदाय के लिए तुलसी ने विभिन्न रोग शमन हेतु यह कुछ मंत्र रचे और कुछ हनुमान के प्रति अगाध भक्ति और अनन्य विश्वास के कारण उनके कण्ठ से बरबस फूट निकले। ये सब स्फुट और मुक्तक छन्द ही थे, केवल हनुमान् की आराधना करने वाले निष्ठावान भक्तों में उनका समूहबद्ध पाठ आरंभ कर दिया गया और वही ’’हनुमानाष्टक’ और हनुमान बाहुक के रूप में प्रसिद्ध हुआ है। इनमें कहीं-कहीं पर स्पष्ट कीर्ति गायन है और कहीं-कहीं मंत्रों की सी भाषा, जो शाक्तों और तांत्रिकों की कृपा से समाज में गहरी पैठ थी, में पीड़ा शमन का विश्वास प्रकट किया गया। यथा--

’’जयति हनुमान बलवान, पिंगाक्ष शुचि

कनक गिरि सरिस तनु रूधिर धीरं।

अंजनी सूनु सिय-रमा प्रिय कीश पति

दलन निश्चर कटक वीरं।

दहन शकारि बन महा बुध ज्ञान धन

सुयश कहि निगम सब सुमति धीरं।

समुझि भुज जोर कर जोर तुलसी कहै

हरहु दुख दुसह भव विषम पीरं।।’’

’’कर्म के पाप-परिताप कैधों श्राप हू तें,

बाढ़ी शीश पीर सो तौ महादुखदाई है।

यंत्र-मंत्र टोटकादि औषधि अनेक किये,

घटत न नेक मानो अबलंब पाई है।

तुलसी कहत कर जोरि छल छाँड़ि नाथ,

तुमतें बली न जग और अधिकाई है।

विनय मान महावीर दूर कीजे शीश-पीर,

रामदूत तेरौ यश सर्व वेद गाई है।।’’

तुलसी का यह विश्वास-’’घोर यंत्र-मंत्र कूट कपट कुयोग रोग हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत है’’- सबका विश्वास बनता चला गया और लोग शीश-पीर, नैन पीर, कान, दाँत, बाहु और सर्वांग पीर से छुटकारे के लिए हनुमान की हाँक सुनाने लगे, कपिराज की आन और हनुमान की दुहाई देने लगे। यह सारा हनुमान बाहुक ऐसी ही हाँकों, आनों और दुहाईयों से भरा है।

इस संदर्भ में जब हम विचार करते है, तो आज जब भूत-बाधा से छुटकारे के लिए हनुमान् के नाम का स्मरण अपने प्रतिद्वद्वी पहलवान को पछाड़ने के लिए बजरंगबली की पुकार, और गुरूमुख से एकान्त में सीखे आँख-कान-दाँत, शीश-पीर एवं बिच्छू के विषशमन तक के मंत्रों में प्राप्त हनुमान की आन और दुहाई विस्मयकारी नहीं लगती। समझ में आने लगता है कि आज के विश्वास या अंधविश्वास का जगत कैसी-कैसी पगडंडियाँ पार करता हुआ यहाँ तक आया होगा। हनुमानचालीसा जो तुलसी की रचना के रूप में अप्रमाणिक सिद्ध हो चुकने पर भी लोगों के हाथ से नहीं छूटा, के प्रति भी इसी पृष्ठभूमि के कारण विश्वास दृढ़ है।

अतएव जहाँ हमें सन् 1616 ई0 और सन् 1623 ई0 के बीच फैले ताऊन के प्रकोप की इतिहास सम्मत पुष्टि इन छन्दों में मिलती है, वहाँ जब सामान्य में गहरे पैठे विश्वास के स्रोत का विद्धत वर्ग को युक्-ियुक्त लगे या न लगे, पर मुझे अवश्य लगा। असल मंे, दिनकर के कथनानुसार हर युग अपने कवि की प्रतीक्षा किया करता है और साथ ही यह भी कि हर कवि अपने युग का ही कवि होता है- इस संदर्भ में यदि विचार करें, तो लगता है कि यह युग की ही पुकार थी, जिसने कवि को वाणी दी। परन्तु ’’तुलसीदास के पात्र ऐसे नहीं है, उनकी अलौकिकता हमारी नगण्यता को नहीं बल्कि हमारी ग्राहिका शक्ति को उत्तेजित करती है। हम उसी मार्ग पर चलने को आतुर हो जाते हैं’’ (हजारी प्रसाद द्विवेदी) तुलसी तो अपेन काव्य से भावी समाज की नींव डाल रहे थे। आज तीन सौ साढ़े तीन सौ वर्ष बाद इस विषय में कोई सन्देह नहीं रह गया कि उन्होंने सचमुच ही भावी समाज की सृष्टि की थी। आज उत्तर भारत में स्थान-सथान पर संकट-काटन, संकट हरन, संकट मोचन या दुश्मन फटकार हनुमान के चबूतरे बने दीखते हैं, हर मंगल और शनिवार को लोग चोला, प्रसाद चढ़ाने या दर्शन मात्र के लिए इस ओर बँधे खिंचे चले जाते हैं, हनुमान चालीसा, हनुमानाष्टक का स्नान के साथ ही पाठ आरम्भ कर उठने, अथवा अमावस-पूनो संकट मोचन पर कथा बँचाने को तैयार दीख रहे हैं, उसके पीछे तुलसी हैं। सामान्यतः तुलसी की देन ’रामचरितमानस’ ही स्वीकारी गयी है, पर हनुमान का संकट मोचक रूप और सर्वसुलभ देव की भाँति उनकी स्थापना तुलसी की ही देन है। तुलसी भी अनन्य निष्ठा और अटूट विश्वास जिसमें वे कहते हैंः ’’कान सुनी बिनती जन् की तब मारूतिनन्दन कीन निवारा’’, अथवा ’’कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुम सों नहिं जात है टारो’’जन-जन की निष्ठा और उसके विश्वास में बदल गया।

वैष्णव मत में उग्रभाव की आराधना नृसिंह के माध्यम से की गयी है, पर राम-कथा के प्रतिपादन के पश्चात् उस भाव को भी वीर वेश में हनुमान की मूर्ति देखकर तसल्ली हुई होगी। उग्र भाव युक्त वीर बजरंग (बज्र अंग) का महत्व वर्णन करने में तुलसी कहते हैं--

स्वर्ण शैल संकाश कोटि रवि तरूणतेज धन।

उर विशाल भुजदण्ड चण्ड नख वज्र-वज्र तन।

पिंग नयन भृकुटी कराल रसना रद आनन।

कपिश केश कर्कश लंगूल खल दल बल भान।

कह तुलसीदास बस जासु उस मारूति सुत मूरत विकट।

संताप ताप ता पुरूष के सपने नहिं आवत निकट।।

तुलसी का चलाया ’वज्र अंग’’ जन सामान्य ने वजरंग करके स्वीकार किया और ’’अली’’ के सादृश्य पर तथा उक्त संदर्भ में पूर्ण सार्थक ’’बली’’ जोड़ लिया तथा आज तक उसी का जयकारा लगता चला आया।

श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र अपने ‘विश्व कवि तुलसीदास’ शीर्षक निबन्ध में लिखते हैंः ’’हनुमत्पूजा का नये सिरे से नये रूप में प्रसार किया। काशी में बारह स्थानों पर हनुमान के मन्दिर बनवाये। उनके साथ अखाड़ों की योजना हुई ...उन्होंने जो सामाजिक दृष्टि उत्तर में प्रसारित की उसे सम्यक रूप में हृदयंगम किया दक्षिण के प्रसिद्ध महात्मा समर्थ गुरू रामदास ने, जिन्होंने नियम बनाया कि प्रत्येक गाँव में ’’मारूति मंदिर’’ होना चाहिए और उसके निकट कीर्तन-संकीर्तन, शरीर संवर्धनादि करना चाहिए। धार्मिक ओट में किस प्रकार सामाजिक अथच राजनीतिक आन्दोलन चल रहा था, इसका रहस्य तुलसीदास के प्रयत्नों में सन्निहित है।’’

’’तुलसी के काव्य की सफलता का एक और रहस्य उनकी अपूर्व समन्वय शक्ति में है।’’ समन्वय के प्रयत्न में समझौते की जरूरत होती है- ऐसा मनीषियों का मत है। तुलसीदासजी जहाँ सर्वांग रक्षा मन्त्र (हनुमानबाहुक) की रचना कान, आँख, शीश, दाँत, बाहु की पीड़ा शमन हेतु प्रसारित मन्त्रों के रूप में करते है, वहाँ उनका कवित्व भी बरबस फूट पड़ता है। यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि काशी में भयंकर महामारी फैली, तुलसी को भी प्लेग की गिल्टी निकली और ’’पाँय पीर, पेट पीर, बाहु पीर, मुँह पीर, जर्जर शरीर पीर मयी’’ हो गया, सम्भवतः इसी रोग से वे सं0 1680 वि0 (सन् 1623 ई0) के श्रावण मास में साकेतवासी हो गये। उसी काल की आरत-वाणी इस हनुमानबाहुक में समायी हुई है। कवि का परिपक्व व्यक्तित्व अत्यन्त विनम्रभाव, सच्ची अनुभूति, अपने आराध्य पर अटूट विश्वास इसमें वरवस प्रकट हो उठे। देखिए-

जीवों जग जननी के जीवन के जन कहाय

मरिवे कों वाराणसी वारि सुरसरि को।

तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक प्रमोदक है

ऐसौ ताहि शोच पोच करि है नजरि को।।

मोकों झूठो साँचौ लोग राम को कहत तब

मैरे मन मान है न हर को न हरि को।

भारी पीर दुसह शरीर तें विकल होत

सोउ रघुवीर बिन दूर सकै करि को।।

बड़े भरोसे से तुलसी कहते हैं-

मोल ही बिकानो बलि बारे ही तें

ओट राम नाम की ललाट लिख लई है।

कुंभज के किंकर विकल बड़े गोखुरनि

हाय हाय राम राय ऐसी कहूँ भई है।।

इस सबके लिए वह अपने इष्ट श्रीराम को कष्ट नहीं देना चाहते, क्योंकि तुलसी को मरने पर तो काशीवास के कारण मोक्ष का तो भूरा भरोसा है ही, यथा-- ’मारिये तो अनायास काशीवास खास फल ज्याइये तौ कृपाकर निरूज शरीर हो’’ तथा अपनी रक्षा का भार तो वे संकटमोचन हनुमान को बचपन से ही सौंपे बैठे हैं और वे सारी संभार करते चले आ रहे हैं, उदाहरणार्थ द्रष्टव्य-

टूँकने को घर-घर डोलत कंगाल बाल

ज्यों कृपाल नाथ नातौ पाल पोसो है।

करी है संभार सब अंजनी कुमार सो न

आपनों बिसार है यो मेरेई भरोसो है।

इतनी परेखौ सब भाँति समरथ्य आज

कपिराज साँची कहो कि त्रिलोक तो सौ है।

शासति सहत दास न कीजिये परिहास

चेरे कौ मरण खेल बालकन कैसौ है।।

इस प्रकार सम्पूर्ण हनुमान् विषयक छन्दों से हनुमान का जीवन्त चरित्र तो प्रकट हुआ ही, संकटमोचन के मंत्र फुरने लगे। आन, हाँक और दुहाई काम करने लगी। निराश जन मानस में साहस, विश्वास और निष्ठा घर कर उठी, और उदात्तवाणी तथा स्फूर्तिप्रद क्रियायें जनमानस में ऊपर उठने का उत्साह भरने लगी। वे उनका संग पा जाने पर उल्लसित हो, उमगते हुए, सन्मार्ग पर चलने में जो विघ्न बाधाएँ आवें, उनको जीत सकने का, साहस पूर्वक प्रयास करते हुए ’’मान प्रतीति भजौ तुलसी सहि नाम भलो हनुमान् सुदानी’’ कह उठे। सारा मध्यदेश संस्कृति, विश्वास, निष्ठा, बल और सहारे में एक जुट हो गया और उसी रूप में आज तक चला आया।

हमारी भारतीय सामासिक संस्कृति, जो आर्य, अनार्य सूत्रों से बिनी है, उसे समझने के सफल प्रयत्नकर्ता और सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री एवं विचारक डा0 सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ऋग्वेद के दशम् मण्डल के छियासीवें सूक्त में आये वृषाकप और तमिल में पुरूष जाति के बंदर के लिए प्रयुक्त ’अण-मन्ति’ और हनुमान हनुमन्त को एक सूत्र में पिरोकर उसके प्रागार्य युग से अब तक की लम्बी यात्रा को समझने की चेष्टा करत हैं। पर तुलसी का कवि जो अपनी परम्पराओं के स्पन्दन को अनुभव करने तथा युग-कल्याण के लिए उसका सही रूप पहचानने में सिद्धहस्त था, इसको भली भांति समझकर उस युग में शाक्त और शैव सम्प्रदाय के अतिरेक से पैदा की गई असामाजिक स्थिति से बचाने और एक नया रूप देने में अपने अनूठे विश्वास और आस्था के कारण इतना अधिक सफल हुआ कि उनका विचार जन-जन का विचार बन गया। इसी वजह से आज का देवालय हनुमान के बिना अपूर्ण लगता है। शिवालय हो या देवालय हनुमान के बिना अपूर्ण लगता है। शिवालय हो या देवी का स्थान सिन्दूरयुक्त हनुमान अवश्य होंगे। अखाड़े तो उनके बिना चलते ही नहीं। पर अब नये आर्थिक और राजनैतिक प्रभाव से परिस्थितियाँ बदल चली हैं। धार्मिक आस्थाएँ अपने समन्वित रूप में भी ढीली पड़ने लगी है। साम्प्रदायिकता का तो जमाना ही गया। जीवन के मूल्य बदलने लगे हैं। मान्यताएँ बदल गई है, और बिखराव आरंभ हो गया है। पर शक्ति का जो भी आधार होगा, कल्याण की किरणों जिस ओर से भी फैलेगीं, उसी ओर से गीता का यह श्लोक इंगित होगा--

’’यद्-यद् विभूतिमत् सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेर्जोऽश सम्भवम्।।

गीता- 10/41

जो कुछ भी हो, नये मूल्ये बनेंगे, नया विश्वास, नया बल और सहारा सूझेगा, जिससे हमारा विशाल और दृढ़ तंत्र विश्रृंखल होने से बच जायगा। उसमें सामासिकता बनी रहेगी और नयी शताब्दी कहेगी कि ’’कोई बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’।

जहाँ कहीं सफलता है, वहीं धर्म है, जहाँ यहीं विभूति हैं वहाँ भगवान का अंश है।

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