बेटी - 8 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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बेटी - 8

काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 8

(भ्रूण का आत्म कथन)

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

समर्पणः-

माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’

मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

माँ तुम्हारे रूप् कई है, जनमते हो बालिका।

कुछ समय तक योवना, नारि फिर, गृह चालिका।

सृष्टि की संचालिका भी, है तुम्हारा रूप ही-

सृजन संग, संहार करती, बन तुम्हीं तो कालिका।।211।।

सब जगह अस्तित्व तेरा, देखलो न दिख रहा।

सृष्टि की हर स्वाँस का भी, लेख सारा लिख रहा।

स्वयं को भूलो नहीं माँ, तुम विराटी रूप हो-

दिव्य दृष्टि से निहारो, तुम्ही में सब दिख रहा।।212।।

माँ तुम्हें मालूम नहीं है, आदमी कितना चतुर।

तुम्है भोली समझकर के, चाल चलता वे फिकर।

बना कर के कई बहाने, कार्य अपने कर रहा-

सजग हो रहना पड़ेगा, मिट गए है कई घर।।213।।

काल तुमने सुनी थी, अखबार की वह दास्ता।

घुमाने को ले गया था, जंगलों की रास्ता।

क्या किया गाड़ी के अन्दर, आपने भी यह पढ़ा-

चीखती नारी रही वह, वह किया जो चाहता।।214।।

भ्रूण में बेटी मिटाने, पुरूष निर्दयी हो गया।

आँपरेशन को कराने, जंगलों में ले गया।

नहीं बताया पत्नी को सच, सैर करने को कहा-

डाँक्टर को सेट करके, हल समस्या कर गया।।215।।

जगरुक शासन हुआ तब, कैमरे सी0सी0 लगे।

लिंग परीक्षण हो सके नहि, डाँक्टर भय में पगे।

हो गया चैपट अब धंधा, सोचते इस हाल में-

खोजली तरकीब तब नव, खुश भए जैसे जगे।।216।।

मनवों को दी सलाहें, स्वस्थ्य घर मत आइए।

तुम फसोगे, हम फसैंगे, भूल नहीं कर जाइए।

घूमने का कर बहाना, लाइए सुनसान में-

आँपरेशन मशीनें साथ होगीं अब नहीं घबराइए।।217।।

खबर कानों-कान नहीं दो, लोग समझें सैर है।

पहुँचना उन खाड़ियों में, जहाँ झाड़ी खेर है।

आऐंगे हम भी वहाँ पर, कोई समझेगा नहीं-

होय हल सारी समस्या, समझ का बस फेर है।।218।।

कम्प्यूटरों का जो विधाता, आदमी जब हो खड़ा।

होयगा कम्प्यूटर कैसे? आदमी से फिर बड़ा।

राह अपनी जान सकता, पूर्व चलने से, वही-

प्रश्न से उत्तर प्रथम दे, आदमी इतना बड़ा।।219।।

मात खाएगा प्रशासन, आदमी नहीं हारता।

काम सारे होंयगे वे, जो करों में धारता।

हो रहीं, अब तक मिटीं नहीं भ्रूण हत्या आज भी-

प्रशासन कितनौऊॅं सजग हो, दरिंदों से हारता।।220।।

नारियों के हृदय में तो, भ्रूण हत्या डर भरा।

इस तरह करता रहा सब, खून मेरा ही मरा।

आदमी का क्या बिगड़ता, दर्द झेलें नारिय़ाँ-

इसलिये वे मना करती, समझ लो मानव-जरा।।221।।

रच सको षणयंत्र कोई, हल समस्या होयगी।

हो गई पैदा जो बेटी, जिंदगी तुअ रोयगी।

टाँग दो खूँटी पै शासन, धरे रहै सब कैमरे-

कर सको तो वही कर लो, चैन निंदिया होयगी।।222।।

लोभ के ये भेड़िये, अनजान जगहों में छिपे।

पावन गृहों में भ्रूण हत्या, द्वार देहरी बस लिपे।

सोचना इस पर पड़ेगा, मानवी को आज फिर-

बंद यह करना पड़ेगा, कर रहे जो छिप-छिपे।।223।।

समझ लो मानव कहानी, मातु रहना समझकर।

जबरजस्ती कर रहे है, साथ चलना जानकर।

धोखा कहीं भी खा न जाना, विनय करती आपसे-

सजग रहना हर घड़ी पर, बात मेरी मानकर।।224।।

जागना ही बस तुम्हारा, विश्व का बदलाव है।

मानवी तस्वीर का यह, इक नासूरी घाव है।

मनवों की धारणा में, एक रेखा खीच दों-

भेद हो निर्मूल जग से, यही तो सद्भाव है।।225।।

जब-जब उठे भू-चाल जग, तब-तब तुम्ही तो रोकती।

भटकते मानव को मग में, तुम्हीं तो बस टोकतीं।

उचित राहों पर जमाना, तुमहीं से चल सका था-

मचलते मानव भॅंवर में, स्वयं को ही झोंकती।।226।।

सुयस, के वे सेतु तेरे, बॅंधे हे संसार में।

चल रहा मानव उन्हीं पर, जीत में और हार में।

झाँखकर अपने ही गिरबे, देख तो इक बार माँ-

पुजेगा मातृत्व तेरा, उफनती इस धार में।।227।।

कठिन तो कुछ भी नहीं, खुद-खुदी पहिचान लो।

नेह सागर उर भरा है, आज भी तो मान लो।

काबिले-तारीफ नाविक, आपसा कोई नहीं-

लड़खड़ाती इस तरणी को, आप ही अब थाम लो।।228।।

तुम्हीं तो हो सृजन कारणि, पालनी संहारणी।

रूप तीनों में तुम्हीं हो, अवतरित अवतारणी।

खेल रचतीं हो तुम्हीं तो, भेद का, नानत्व का-

विश्व चलता आ रहा है, बस तुम्हारी सारणी।।229।।

है नहीं अस्तित्व जग का, तुम्हीं जग अस्तित्व हो।

जानना जिसका कठिन है, तुम वही तो तत्व को।

ज्ञान और विज्ञान जिसकी, खोज में अब तक जुटे-

माँ तुम्हीं साकार रूपक, निर्विकारी स्वत्व हो।।230।।

आज भी पहिचान ले नर, नारी के उस रूप को।

है वही उपमेय जग में, हो सका अनुरूप को।

कुछ नए उपमान गढ़कर, नर भलाँ देते रहै-

जान नहीं पाए अभी तक, उसके असली रूप को।।231।।

नर, दिये उपमान जितने, तौलकर देखा कभी।

रंग, बजन और गंध रोशनी, में कलंकी है सभी।

कस स्वयं इनको कसौटी, नारि के रंग रूप से-

सच उसे पहिचान लेगा, है समय तुमको अभी।।232।।

जानना है हर किसी को, विसमता की यह कहानी।

बहुत गहरा घाव है यह, है जरूरी दवा लानी।

यदि नहीं सोचा अभी भी, खाज है यह कोढ़ की-

कर को, उपचार कर लो, नहीं होगी बहुत हानी।।233।।

एक से मैंटै, मिटे नहीं, यह सभी का काम होगा।

पुरुष-नारी मिल करें यह, तब सफलता रूप होगा।

आयोग शाक्षी संगठन हों, दो कदम आगे अभीसे-

तो करो विश्वास, निश्चय, यह जहाँ से मिट सकेगा।।234।।

राजनैतिक धरातल जब, चल पड़ें इस ओर मिलकर।

स्वास्थ्य की सब भूमिकायें, न्याय देवें इस पहल पर।

समझ कर कर्तव्य अपना, हर कोई विश्वास के संग-

तब स्वर्ग आये धरा पर, अमन रंग बरसेंगे घर-घर।।235।।

संगठन आयोग संग जब, नारिय़ाँ बॅंध जायेंगी।

सभी का सहयोग मिलकर, एकता ही आयेगी।

नैट का दरिया बहे जब, स्वयं के इस स्वत्व पर-

होयगी ममता की मूरति, और माँ कहलाएगी।।236।।

इस तरह सब चिंतनों में, चेतना आ जायेगी।

मिटैगी सारी समस्या, वेदना हट जायेगी।

सब सूखी संतान होगी, एकता के रूप में-

भेद बेटा-बेटियों में, तब कहाँ से पायेगी।।237।।

चल पड़ी है आज नारी, पुरुष को ले साथ में।

मंच से उद्घोष करतीं, एकता ले हाथ में।

मिल रहा चतुद्र्विक समर्थन, इस कदम के वासते-

बेटी बचा- बेटी पढ़ा, भर गया सब माथ में।।238।।

हर कहीं पर गूँजती ध्वनि, उठ रहे दोऊ हाथ है।

तुम करो संघर्ष खुलकर, हम तुम्हारे साथ है।

भ्रूण हत्या नहीं होगी, आत्म हत्या नहीं कहीं-

रोएगी नहीं कहीं बेटी, प्रण इसीके साथ है।।239।।

कोई सपना नहीं पलेगा, झुरमुटों और झाड़ि में।

ढेर कूड़ा-करकटों में, खण्डहरों और खाड़ी में।

गोद में खेलेगा बचपन, यही तो पैगाम है-

सब निभाऐंगे वचन को, खुले में, नहीं आड़ में।।240।।

झेल लेंगे संकटो को, नहीं मुड़ें पीछे कदम।

वचन का पालन करेंगे, जब तलक, दम में दम।

चल पड़े पग प्रगति पथ पै, नहीं रुकेंगे अब कहीं-

है सभी संघर्ष साथी, वे हमारे उनके हम।।241।।

होयगे जब भाव पावन, मानवी के सोच के।

फिर कदम कैसे डिगेंगे, सोच के, संकोच के।

मिटैगी दूषित कहानी, इस धरा की पीठ से-

एक नया संसार होगा, सब कहै यह सोच के।।242।।

नई व्यवस्था की व्यवस्था, इस जहाँ जब होयगी।

इक नई माला के मणिका, यह व्यवस्था पोयगी।

समय का बदलाव होगा, मिल रहे संकेत हैं-

शांति और सद्भाव समता, की सुवह यहाँ होयगी।।243।।

एक नया संबाद आएगा, जहाँ की गोद में।

मनवी हरषाएगी यहाँ, मोद में-आमोद में।

चल पड़ेगी तभी दुनिय़ाँ, एक अनोखी राह पर-

सुनहरा संसार होगा, लगे हैं सब सोध में।।244।।

आज की यह आपा-धापी, स्वयं ही मिट जायेगी।

प्रकृति अपने नए स्वरों में, गीत नूतन आएगी।

नहीं छिड़ेगा कोई अनगढ़, स्वरों का संवाद भी-

कुछ समय को धैर्य धर लो, नयी सुबह यहाँ आयेगी।।245।।

जब चला मानव कभी भी, मानवी के साथ में।

लौट कर आई प्रगति भी, उसके कोमल हाथ में।

कर्तव्य पथ का वह मसीहा, बॅंध रहा कर्तव्य संग-

नया ही सब कुछ मिला है, तब उसे सौगात में।।246।।

जलेंगी शिक्षा मशालें, अज्ञ-तम नहीं रहेगा।

हर कहीं शिक्षा का सागर, मुक्त होकर बहेगा।

खिलेंगे नव दल कमल-के, गंध के आनंद में-

सप्त रंगी रोशनी ले, नया सूरज उगेगा।।247।।

तब, अमां की वह कहानी, धरा से मिट जायेगी।

उल्लुओं की वे आवाजें, कहीं से नहीं आयेंगी।

एक नए वातावरण में, होयेगा संसार यह-

तब कहीं चारौ दिशन में, मानवी हरषाएगी।।248।।

सुनो तो मिन्नतें बेटी! उसे अवनी पै आने दो।

सृजन की वह कहानी है, उसे दुनिया में गाने दो।

पता नहीं, गीत उसके से, कितना प्यार बरसेगा-

सजा लो डोलिय़ाँ उसकी, प्यार संसार आने दो।।249।।

बचाओ बेटियों को, तो तुम्हें संसार पूजेगा।

पढ़ाओ बेटियों को, तो तुम्हें संसार पूँछेगा।

बेटी पढ़ गई तो, सृजन का संसार नव होगा-

दोऊ कुल आनि है बेटी, मान संसार गूँजेगा।।250।।

उसे दे, धन्य हो जाओ, शिक्षा का अमिट गहना।

सजा दो ज्ञान-गौरव से, यही है आपसे कहना।

पढ़ाईं बेटियां जिनने, जमाने में पुजे है वे-

आशिशें पाओगे बेटी, धन्य हो! और क्या कहना।।251।।

बेटी घर बुहारी है, दोनों कुल उजारी है।

नया सेसार लाती है, बेटी युग किनारी है।

रूप है आदि शक्ति का, उसे पहिचान लो भाई-

बहारें आयेंगी उससे, सुमन आंगन कियारी है।।252।।

पलालो उदर में उसको, गुजारिश आपसे इतनी।

उसे धरती में आने दो, गुजारिश आपसे इतनी ।

पता क्या गार्गी, अनुसुइया, सीता यही हो बेटी-

कभी अंदाज क्या कीना, उदर में मिट गई कितनी।।253।।

तुम्हारे इस घृणित पग से, धरती कप रही प्यारे।

उसे गोदी में आने दो, जगेंगे भाग्य ही त्हांरे।

तुम्हारा घर स्वर्ग होगा, जभी किलकारिय़ाँ गूँजें-

तुम्हारे द्वार नाचेंगे, स्वर्ग के देवता सारे।।254।।

बेटी प्यार का उपहार लेकर, आई दुनिय़ाँ में।

सुहाना सा, अमिट संसार लेकर, आई दुनिय़ाँ में।

बेटा द्वार बंदनवार, है त्यौहार सा उत्सव-

बिना बेटी का घर तो, घर नहीं, माना है दुनिया में।।255।।

सही में, जन्नतों की जन्नतों का रूप है बेटी।

पिता के भाग्य का दर्पण, माँ का सौभाग्य है बेटी।

हिमालय से अधिक ऊॅंची, कीरति की पताका है-

स्वर्ग से भी कही बढ़कर, सुखद संसार है बेटी।।256।।

बेटी आ गई जिस घर, जन्नत आई है मानो।

पुकारा प्यार से बेटी, तो जन्नत आ गई जानो।

बेटी अवतरण गंगा, सभी तीरथ उसी घर में-

बेटी से भरा घर है, तो सूना घर नहीं जानो।।257।।

आंगन महकता दिखता, लगै फूलों सा बेटी से।

द्वारे, दैहरी सजतीं, रंगोली- द्वार बेटी से।

बेटी हास यौं लगता, कि मंगल की कहानी है-

हजारों दुःख हटें दिल से, मिलत दीदार बेटी से।।258।।

बेटी कुहुक कोयल सी, सितारों की रवानी है।

स्वरों में यौं लगे-मैना, चाल बुलबुल निसानी है।

बेटी की चहक में है, हजारों चहक चुनमुन की-

सुनत आबाज मन भरता, लगै आबाज जानी है।।259।।

पिता के घर रही जब तक, आंगन फूल की क्यारी।

रंगोली द्वार की अनुपम, सजाती वह रही सारी।

वही ससुराल में जाकर, बनें मौसम बहारों का-

गृहस्थी की बजा सरगम, लक्ष्मी हो गई प्यारी।।260।।

बिना बेटी का घर सच में, प्यारा घर नहीं होता।

अधूरा सा लगे सबकुछ, सारी रौनके खोता।

स्वरों का साज है बेटी, मधुर आबाज है बेटी-

बेटी गीत गीता का, सभी की कालुशें धोता।।261।।

हुआ काफूर दर्दे दिल, बहारें आयें खुशियों की।

मधुर मुस्कान ले हॅंसती लगे बरसात खुशियों की।

करती प्रश्न कई सारे, बैठकर गोद में बेटी-

दुनिया दूर हो जाती, महकती महक खुशियों की।।262।।

श्रावणी आस की अवनी, तीज त्यौहार है बेटी।

अखती सूवटा पूजन, बिमल विश्वास है बेटी।

सभी सुख बासते, करती प्रभू से हर समय मिन्नत-

कपता माँ के बॅंधी बंधन, चली ससुराल है बेटी।।263।।

न भूलै भाई पितु-माँ को, कभी ससुराल जाकर भी।

किसी को नही कभी कोसै, भलाँ एक जून खाकर भी।

निभाती फर्ज सब अपना, भले ही जल गई घर में-

सर्मपण से भरा जीवन, समय काटा है हॅंसकर भी।।264।।

करो सम्मान बेटी का, भलाँ बेटा नहीं-बेटी।

न रोको आने दो उसको, सुयश संसार है बेटी।

क्या दुनिया है नहीं उसकी? खेलने दो उसे हॅंसते-

सृजन का सार है बेटी, वृहद संसार है बेटी।।265।।

करो भगवान से मिन्नत, कि बेटी आए घर मेरे।

बेटी लक्ष्मी हैं सुन, खुलेंगे भाग्य ही तेरे।

स्वर्ग बैकुण्ठ होगा घर, तेरा बेटी के आने से-

बुलालो बेटिय़ाँ हॅंसकर, मिटैंगे तेरे भव घेरे।।266।।

बेटी हमारे दिलों में, पावन है ओस सी।

आंगन बहारों से भरे, किलकन संतोष सी।

जीवन के सभी मोड़पर, दिखती है वह खड़ी-

भटका कहीं तो आ खड़ी, सच्चे उपदेष सी।।267।।

दुतकार, भूलकर नहीं, बेटी को प्यार दो।

बेटों से कहीं अधिक सा, उसको उपहार दो।

चलना तुम्हारी राह पर, सीख है उसीने-

बेटा को मोटर साइकल, तो बेटी को कार दो।।268।।

जीवन के सभी मोड़पर, अपने को सवारा।

हॅंसती रही है हर समय, सह दुःख अपारा।

स्पर्स खुरदुरे में भी, नहीं पंथ से हटी-

दोनों कुलों की आनि को, बेटी ने सम्भारा।।269।।

बेटे पुजे है बहुत कम, पुजतीं है बेटिय़ाँ।

बेटों से दो कदम, सदाँ आगे है बेटिय़ाँ।

दोनों कुलों की मान है, दोनों की शान है-

बेटे अगर हीरे हुये, तो मोती है बेटिय़ाँ।।270।।