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बेटी - 1

काव्य संकलन ‘‘बेटी’’

(भ्रूण का आत्म कथन)

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

समर्पणः-

माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’

मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

-पूर्वाभाष-

ओ बिजेता विश्व मानव, है कहां वह ज्ञान तेरा।

मानवी की दुर्दशा पर, क्या कभी चिंतन ने घेरा।

किस तरह की हो गई है, विश्व में तेरी कहानी-

डर रहा है आदमी से, आदमी का स्वयं चहरा।।

क्या हुआ जो फूलबस्ती, नागफनियों को उगाती।

रात की बहती हवा यह, गीत कैसे आज गाती?

क्या धरा की धरिता में, आ गई है कमी कोई-

वेदना की यह कहानी, आज क्यों सबको डराती।।

भीड़ इतनी बढ़ गई क्यों,उल्लुओं की है जमीं पर।

शेर माँदों में छिपे क्यों, जश्न मनते गीदड़ों घर।

कूक कोयल की कहीं न, काग के भौंड़े तराने-

शांति का सूखा घरौंदा, लहलहाते दक्खिनीं भर।।

हो गए चौराहे खूनी, बीथियों की व्यथा गहरी।

हर डगर पर लूट अड्डे, वायु की आवाज बहरी।

सूर्य भी कॅंपते उगा है, रोशनी का हाल क्या कहैं-

रात की इस चाँदनी पर, मूक बनकर खड़े प्रहरी।।

जिंदगी का हाल क्या है? यह बताना कठिन होगा।

सुन लई गर आसमां ने, टेर देकर आज रोगा।

और तुम भी देखते हो, चुप खड़े अपनी डगर पर-

जाऐगी कहाँ तेरी दुनियाँ, बदल लो अपना ये चौंगा।।

लौट आओ जमीं अपनी, मानवी की विनय मानो।

घोर नर्तन कर लिया है, बदल दो अपनो ये गानौ।

बचाना बेटी तुम्हें है, पढ़ाना तुमको है बेटी-

मानवी की ये पुकारें सुन, सम्भालों अपनों बानौ।।

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

(चिंतन की ओर एक कदम)

चिंतनों के ओ! मसीहा,

कलम तो कर-ले।

आज के परिवेश पर,

कुछ गौर तो कर-ले।

रोदनों अरु क्रंदनों का,

अवशाद यह कैसा?

बेटी बचा-बेटी पढ़ा,

कुछ ध्यान तो धर ले।।

सृष्टि का उदगम यहीं से,

जो सृष्टि ने खेला।

किस तरह का खेल था,

अरु किस तरह खेला।

आरोह-अवरोहों को जगने,

सुचि सभ्यता माना-

इस तरह से देख लो,

संसार का मेला।।

चाह की-अनचाह की,

अनुपम कहानी है।

क्रूर नर्तन दाह की,

भी यह निशानी है।

मानवी उत्कर्ष का,

अरु पतन का चिंतन-

हर कोई गाता जिसे,

यह, वह रबानी है।।

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

माँ उदर में एक प्यारा, भ्रूण पलता था।

चिंतनों के ताप तपता, नित सम्भलता था।

उदर से ही देखता था, वह नया जीवन-

इस धरा को देखने, कितना मचलता था।।1।।

क्या सुना था मातु से, अरु क्या कहा उसने।

यह अनूठी बात कैसै, जान ली उसने।

है यही सम्बाद प्यारा, और न्यारा है-

विश्व के बदलाव की, भी सोच ली उसने।।2।।

बहुत कुछ सुनता उदर में, बहुत कुछ सहता।

मानवी के चिंतनों पर, सोचता रहता।

बेटी-बेटा पालने में, झूलता निशि-दिन-

जिंदगी के इस सफर की, दास्तां कहता।।3।।

माँ तेरा सारा ही चिंतन, सुनत यह बेटी।

हूँ उदर के बीच, फिर भी हूँ तेरी बेटी।

बो सभी अबशाद दिल के, भूल जा अबतो-

पाल ले मुझको निडर हो, कह रही बेटी।।4।।

उदर में, मैं आ गई, अहसास देती हूँ।

उर-उदधि स्नेह की, में नाव खेती हूँ।

आ रही हूँ माँ तेरी, अॅंगनाई में सजके-

रोशनी फैलाऊॅंगी, मैं जीवन ज्योति हूँ।।5।।

बाँधतो साहस, भवन तब होयगा रोशन।

बहक मत जाना, करो नित प्यार से पोषण।

जो कहैं, कहते रहैं, तुम मत सुनो, उनकी-

एक अवसर दो मुझे, तुम होओगी धन्-धन्।।6।।

भावना सुंदर सजाती है, उदर बेटी।

अच्छे सगुन सौगात, लाती है उदर बेटी।

प्यार का निर्झर सदा, उर में बहै कोमल-

स्वप्न की साकारता, लाती उदर बेटी।।7।।

बहकाबे में आना नहीं, है विनय यह मेरी।

कत्ल मत करना मेरा, मैं जिगर हूँ तेरी।

कौंख को उज्ज्वल करूँगी, सुयश देकर के-

सतवती हूँ, गार्गी हूँ, लक्ष्मी-तेरी।।8।।

आ गई हॅूं उदर, तो जीवन मुझे दे-दे।

तूँ मेरी माँझी बनी है, नाव तो खे-दे।

सातों समंदर पार जाऊॅं, देख तो मुझको-

धरा पर जन्नत उतारूँ, समय तो दे-दे।।9।।

बेटियों के आगमन में, जन्नतें होती।

कई जनम की संकलित, जो कालुषें धोती।

बेटियों को मत समझ, कमतर कभी माता-

बेटिय़ाँ अंतिम समय में, साथ ही देतीं।।10।।

लोभ के उन भेड़ियों के पास मत जा तूँ।

मानजा मेरी कही, मत हाथ ले चाकू।

नाम तेरा करूँगी, बेटों से बढ़कर के-

भूलकर मत खिलाना, मुझको तूँ तम्बाकू।।11।।

आसमां में उड़ रही जो, बहनें मेरी हैं।

खेलती जी-जान से, बे बहनें मेरी हैं।

कठिन क्या है?जो नहीं, में कर सकूँ जग में-

संगीन ले, सीमा खड़ी जो बहनें मेरी हैं।।12।।

मैं नहीं डरती कभी, तलवार, तीरों से।

बिकूँगी नहीं कभी-भी, मैं लाल हीरों से।

दुश्मनों को मात दूँगी, मैं खदेड़ूँगी-

डर रही हूँ तो सिर्फ, मैं तेरी पीरों से।।13।।

बुद्धि की देवी सरस्वती, माँ मुझे जानो।

विज्ञान-अधिष्ठात्री भुवन की, माँ मुझे मानो।

अणु, एटम की विधत्री, मैं ही हूँ सच में-

सृष्टि उदगम्, प्रलय की देवी मुझे जानो।।14।।

जानते है सब मुझे, मैं ज्वाला हूँ-ज्वाली।

विश्व मेरे में बसा, मैं कालिका काली।

तुम डरो नहिं, बस मुझे, अवसर जरा दे-दो-

धरा तक आने की मेरी, कर लो रखवाली।।15।।

ऐहसान तेरा होयगा, दे-दे मुझे जीवन।

मैट दूँगी मैं तेरे इस, हृदय की टीभन।

बहिनें मेरीं, दे रही हैं, मुखाग्नि अब तो-

पाओगी दुआ मेरी, बैकुण्ठ का जीवन।।16।।

सुन रही हूँ, उदर में, सब कहानी को।

अहसास करती हूँ निरंतर, तेरी पैशानी को।

फर्ज माता का निभाले, गोद तो धरले-

करना नहीं लज्जित कभी-भी, माँ के पानी को।।17।।

कठिन हालात में, जीना ही, सच्ची जिंदगी होती।

कहानी यौं भी कहते हैं सभी होती की नौं धोती।

नाविक है वही सच्चा, लड़ै तूफानों से डटकर-

जीवन कसौटी कसलो, पाओ, तली के मोती।।18।।

न कुछ-सी बात पर, ऐसे, तुम्हारा दिल जो घबराता।

लायक है वही गायक, जो महफिल बीच में गाता।

सभॅंल जाती हो सुन मेरी, मचलती हो कभी हटकर-

तुम्हारी देख नामर्दी, मेरा दिल भी तो घबराता।।19।।

उतर आता कभी लोहू, तुम्हारी नम-सी आंखों में

तड़फता दिल का ये पंक्षी, असमय गिरती पाँखों में।

असह होती है तब पीड़ा, उदर को पकड़ती कसकर-

अपना होश खो देती, उलझती अपनी साखों में।।20।।

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