काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 2
(भ्रूण का आत्म कथन)
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
समर्पणः-
माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’
‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’
मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
कभी चुपचाप चल पड़ती, खुद को मानकर नर्वश।
विवेकी सोच को तोड़त, मिटाने अपना सर्वश।
पथ में कभी तो पग भी, तुमको माड़ते पीछे-
मगर चिंता की धारा में, बहती जा रही परबश।।21।।
अनेकों राह के रोड़े, खा कर ठोकरें कहते।
जरा, कुछ बात तो सुनलो, कहते-ठोकरें सहते।
उत्तम जिंदगी तुमने, कठिन तप से ही पाई है-
इसे खोओ नहीं यौं ही, सभी कोई, झेलकर, रहते।।22।।
डराता भी रहा तुमको, अंधेरी रात का साया।
झिल्लियां टोकती तुमको, दादुर भी तो टर्राया।
सन्-सन् वायु की आहट, तुम्हीं से बहुत कुछ कहती-
जरा कुछ सोच लो रुककर, सभी ने तुमको समुझाया।।23।।
ठोकरें, इंसान को, इंसानियत की राह देती हैं।
विषमता की घड़ी में आ, नइया आप खेती हैं।
न जाने, कौन-सी ठोकर, किस घड़ी, राह को मोड़े-
जीवन मुड़ गया जिस क्षण, हमारी वे सहोती है।।24।।
तुम्हारे लौटते कदमों का, दिल से मैं करूँ स्वागत।
हमेशाँ गीत गाएगा, तुम्हारा, सुनहरा आगत।
तुम्हारे, बदलते उस सोच का, ऐहसान है मुझपर-
किलकती, जिंदगी मेरी, प्रभू से यही तो माँगत।।25।।
तुम्हें भी याद तो होगा, तुम्हारी माँ के प्यारों का।
आंगन उछलता होगा, मौसम के बहारों का।
कितनी बार तुमने ही, रंगीलीं तितलिय़ाँ पकड़ीं-
माँ की गोद हॅंसती थी, बरसता मेह प्यारों का।।26।।
सावन झूलता होगा तभी, अमुआं की डगारों पर।
मल्हारें झूमती होंगी, झूलन की बहारों पर।
तुमसे मिलत तो होंगी, तुम्हारी दौड़कर गुइय़ाँ-
बरसता होयगा मौसम, तुम्हारे उड़त बारौं पर।।27।।
कितनी खुष नसीबी हो, माँ के आंगना खेली।
पिता, भईया की बाहों में, कितनी आशिषें लेली।
माँ के बैठकर कंधा, नदिया नहाने जाती-
कभी घोड़ा बनाकर के, पिता की पींठ पर खेलीं।।28।।
खिलाने कुछ, बुलाती माँ, चुनमुन प्यार से कहते।
बहाना बनाकर भागीं, गुनमुन आ रही कहते।
खेल में मस्त थी इतनी, सुनि नहीं माँ पुकारों को-
जिंदगी दौड़ थी प्यारी, अनौखी दौड़ मे रहते।।29।।
इन्ही बचपन की दौड़ों में, मुझे माँ कब खिलाओगीं।
अपनी प्यार की बाहों में, मुझको कब झुलाओगी।
डिठौना कब लगाओगी, मेरे भाल में हॅंसते-
मुझे लोरी सुनाकर के, कबै झूला झुलाओगी।।30।।
मैं भी चाहती बचपन, जिसे तुम जीत कर अईं।
फिसलती आंगना हॅंसते, मिट्टी माँजने खाईं।
तरसते नयन है मेरे, तुम्हारे नयन से मिलने-
मिलें कब नेह के चुंबन, मिलै कब प्यार का भाई।।31।।
सनेहों की अमिट दौलत, तुम्हारी ही तो काया हूँ।
सही मैं लाड़ली तेरी, तुम्हारी नेह छाया हूँ।
बाहर आने दो मुझको, मेरी चाह इतनी सी-
तुम्हें फूलों सजाऊॅंगी, तुम्हारी महा माया हूँ।।32।।
तुम्हारे प्यार का कर, प्यार देने जब उदर आता।
मुझे लगता यही माता, जिंदगी गीत ही गाता।
तुम्हारे आहिस्ता कर में, खेलती जिंदगी मेरी-
खुशनुमा हो किलकती हूँ, सही कहती हूँ मैं माता।।33।।
आना चाहती बाहर, तुम्हारे प्यार के कर में।
भरूँ किलकारिय़ाँ कैसे, तुम्हारे मोहिनी घर में।
कैसी है तेरी दुनियाँ, मैं भी जानना चाहूँ-
बदलता सोच क्यों पलपल, तेरे सोचते उर में।।34।।
तुम्हारे सोच का दरिया, मेरे उर भी बहता है।
अॅंधेरे में, अकेले मे, तुम्हारा सोच कहता है।
समय की दौड़ वह कैसी? अॅंधेरो में जवानी यौं-
प्यार का वह समंदर तो, चारों ओर बहता है।।35।।
नहीं मर्यादा कोई भी, तुमको रोकने पाई।
सॅंजीले प्यार की धरती, सदाँ प्यारों भरी पाई।
नहीं था और कुछ जग में, प्यार का ही बसेरा था-
प्यार का ही सबेरा था, अब यह समझ में आई।।36।।
नहाईं प्रेम सागर में, जवानी की बहर गाई।
कितना क्या जिया तुमने, अब तक बता नहीं पाई।
तुम्हारी जिंदगी बहती रही, नदियाँ फुहारों सी-
समझ में तब कहीं आई, जीवन ठोकरें खाई।।37।।
नहीं अंजान थी बिलकुल, बहारों में रंगीली थी।
नहीं रोके रुकीं खुद से, बो धरती ही संजीली थी।
सोचा-होयगा जो कुछ, अभी जीवन जियो जी-भर-
जमाना था खड़ा आगे, बही गुदड़ी तो सीं-ली थी।।38।।
भोगना पड़ रहा तुमको, बहारें लौट नहीं आई।
उदर में पीर होती है, कच्ची रोटिय़ाँ खाईं।
हजम का नही कोई फण्डा, साथी अब नही कोई-
दर्द की पीर अब समझीं, बिभाईं पैर फट आई।।39।।
अंधेरो से भरी दुनिय़ाँ, कहीं सूरज नहीं दिखता।
राहों में भरा कीचड़, भाग्य के लेख सब लिखता।
दूभर हो गई दहरी, आंगन बहुत चैड़ा था-
समझ में सिर्फ यह आया, यहाँ नही कोई है किसका।।40।।
समय चलता रहा आगे, समय को रोक नही पाए।
समस्या से भरा जीवन, किसको कौन समुझाए।
खड़ा था प्रश्न एक आगे, इसमें दोष है किसका-
निभाया प्यार का मारग, प्यार में दोष कहाँ पाए।।41।।
कर्म का फल अवस्य मिलता, कोई मैट नहीं सकता।
ये गीता की ही वाणी है, यही तो वे भी कहता।
भलाँ नहीं चाह हो फल की, कर्म के साथ फल तो है-
किया है कर्म जो तुमने, उसको रोक को सकता।।42।।
फल से फलित जब बिरछा, उसे सब प्यार से सेते।
करैं दिन-रात रखवाली, जीवन नाव ही खेते।
उसे नही काटता कोई, पर्यावरण कहानी यह-
तुम क्यों काटतीं उसको, शिक्षा सभी तो देते।।43।।
तुम्हारा ही तो चिंतन है, उसे स्वीकार अब कर लो।
नहीं घबड़ओ ओ माता, उसको गोद में धरलो।
कहाँ है दोष यहाँ मेरा, प्यार का में खिलौना हूँ-
प्यार को प्यार रहने दो, प्यार को शीश निज धरलो।।44।।
माँ तुम्ही हो मानवी, मानव कहाती हो।
कोसतीं हो क्यों मुझे, आंसू बहाती हो?
प्यार की गहरी हिलारें, क्यों नहीं मुझको-
आसुओं से तर-व-तर हो, क्यों नहातीं हो।।45।।
संसार सागर है, कहानी तुम नहीं समझी।
जिंदगी एक रवानी है, क्या नहीं समझी।
अमानत हूँ तुम्हारी ही, मुझे अब प्यार से लेलो-
प्यार में पाया मुझे, क्या प्यार नही समझी।।46
प्यार की मूरत तुम्हारी, में कहाऊॅंगी।
प्यार बरसेगा धरा पर, जब में आऊॅंगी।
भूल जाओगी पुरानी, दास्ताँ अपनी-
प्यार ही भगवान है, संगीत गाऊॅंगी।।47।।
इसलिए बेटी है, मूरति प्यार की।
नेह की प्रतिमा, बड़े उपकार की।
नही कही ढूढ़े मिली, उपमा कोई-
पूज्यतम बेटी हुई, संसार की।।48।।
डरीं क्यों बेटियों से, समझ में यह नहीं आता।
बेटी माँगती कब है, जिस से डर रही माता।
जिसने बात नहीं मानी, ऐसी कौनसी बेटी?
बेटी वहाँ चली जाती, जहाँ तुम भेजती माता।।49।।
तुम्हारे उदर में आकर, कभी क्या कष्ट देती है।
तुम्हारे कौनसे सपने, आकर चुरा लेती है।
फिर क्यों डर लगे तुमको, उदर आने का बेटी से-
परीक्षण क्यों करातीं हो? वह क्या नहीं चहेती है।।50।।
उदर में जो रहा पलता, वही संतान है तेरी।
परीक्षण किस लिए फिर है, मुझसे द्वेश क्या है री।
प्यार को बाँटती क्यों हो, बराबर की कहानी जो-
जमाना आज बदला है, बात कुछ मान लो मेरी।।51।।
सुनकर उदर में बेटी, उदासी आई क्यों मन में।
नर्वस हो गयीं ऐसे, जैसे प्राण नहीं तन में।
चेहरा हो गया फीका, लाली गुम हुई सारी-
घर के बीच रहकर भी, लगो तुम, ज्यौं खड़ी वन में।।52।।
भलाँ अनचाह में मानो, उदर में कोई हो आया।
प्यार का ही तो विरबा है, प्यार की ही तो है छाया।
प्यार को प्यार से पालो, नहीं नफरत करो उससे-
तुम्हारे भाग्य का लेखा, वही बनकर के है आया।।53।।
बनाकर संगठन अपना, मनुज से पूँछ तो लेना।
बेटी किस तरह छोटी, बराबर हक नही देना?
मेरी मानना यह है, उत्तर है नही उन पर-
खुद से समझ लो माता, मेरा मान लो कहना।।54।।
ऐसा भेद क्यों पाला, समझी भार क्यों बेटी।
चले पद चिन्ह् जो त्हारे, कैसे हो गई हेटी।
मेरे जन्म लेते ही, घर में मातमी छाती-
कहीं भी नहीं बजै थाली, जन्में आज जहाँ बेटी।।55।।
खुशी के नहीं बटे लड्डू, बेटी आई जिस घर में।
चली बन्दूक नहीं कोई, खुशी देखी न घर भर में।
ऐसा कौन सा भय है, जहाँ अभिशाप हो बेटी-
बेटी पाप धोती है, फिर क्यों भूत है शर में।।56।।