बेटी - 9 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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बेटी - 9

काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 9

(भ्रूण का आत्म कथन)

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

समर्पणः-

माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’

मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

ससुराल संवारी कभी? बेटों ने कम सुना।

दोनों कुलों संवारती, बेटी को ही सुना।

विधि का विधान मानती, बेटी सदाँ रही-

पितु गेह के ही साथ में, पति गेह भी बुना।।271।।

कंटक पथों में नहीं डिगे, ऐसी है बेटिय़ाँ।

सिकवा नहीं कोई कभी, कम खा के रोटिय़ाँ।

हो गईं निछावर देश हित, हॅंसते हुए सदाँ-

काँटों की डगर फूल ही, बाती है बेटिय़ाँ।।272।।

मेरी, सुन रही माता, दहक अंगार है नारी।

सम्भाले ही रखो मन में, दुनिया जानती सारी।

महरवाँ हो कभी जिस पर, लगे वह प्यार की बुलबुल-

इज्जत गर नहीं कीनी, लगे वह जहर से भारी।।273।।

देखो गौर से उसको, नारी सृष्टि की सरगम।

जने प्रहलाद, धु्रव उसने, खड़ी रही सत्यपथ हरदम।

अनेकों रूप हैं उसमें, अनेको भूप है उसमें-

गहरे घाव भर देती, ऐसे प्यार की मरहम।।274।।

धन्य है कूँख उस माँ की, विवेकानन्द जहाँ आए।

भगत, आजाद की जननी, जवाहर मोती उपजाए।

राधा-किशन भी जिसकी, अनूठी गोद में खेले-

वो भारत-मात है प्यारी, जिसके गीत सब गाए।।275।।

सरस्वती, लक्ष्मी, गवरी, शक्ति रूप है नारी।

अधिष्ठात्री धरा की है, जीवन स्त्रोत है नारी।

जबत की मान मर्यादा, इसी को पूजकर पाते-

भूलना मत कभी इसको, सृजन का मूल है नारी।।276।।

नरी के बिना यह जान लो, संसार सूना है।

नरी जो नहीं, तो मान लो, विश्व वंश ऊना है।

नरी सब गुणों की खानि, है अवतार पौरुष की-

नरी के विना नर का, सभी अस्तित्व सूना है।।277।।

नारी संस्कारों की, अनूठी लोरिय़ाँ जानो।

वही श्रंगार अवनी का, सृजन संसार का मानो।

उसकी अंजुली में बहुत कुछ, संसार नहीं समझा-

उसे व्यवहार आदर का, सही अवतार ही मानो।।278।।

नारी अड़ गई जब-जब, वहाँ यमराज भी हारे।

डिगी नहीं सत्य का धरती, खड़ी यमराज के द्वारे।

अचंभित कर दिया यमराज को भी, प्रश्न अपनों से-

आखिर, जीतकर लौटी, किये यमराज मुँह कारे।।279।।

नारी की अमित गाथा, कोई जान नही पाए।

ब्रम्हा, बिष्णु, शंकर भी, जिसकी गोद में आए।

बनी अनुसुइया माता, वही नारी धरोहर है-

नहीं कोई बड़ा उससे, सुयश संसार ही गाए।।280।।

जभी छेड़ी गई नारी, बनी महाकाल सी काली।

दुर्गा है वही दुर्गम, कहाती खप्परों वाली।

लक्ष्मीबाई बनकर के, अहिल्या बन गयी वोही-

सभी संसार गाता है, उसकी नहीं मिटी लाली।।281।।

सम्भालो आज नारी को, उसे सम्मान ही देकर।

नहीं जीता कोई अबतक, उससे टक्करें लेकर।

हुई खुशहाल तब दुनिय़ाँ, जब-जब नारिय़ाँ पूजी-

नया संसार मिलता है, इज्जत मान ही देकर।।282।।

परम शक्ति है, धरा शक्ति है, उमा रमा ब्रम्हाणी।

जगतातीत, जननी, जगतारित, जिसकी अमिट कहानी।

उभय भाँत जग संकट हरने, प्रगट भईं जग माही-

लीला अमित करी जग आकर, जयति-जयति जग रानी।।283।।

नारियो के सामने माँ, कई समस्याऐं खड़ीं।

घोर संकट में भी जीकर, आज तक उनसे लड़ीं।

कम कदर दी मानवों ने, नारियों को आज तक-

इसलिये नारी शशक्तिकरण, प्रथा चल पड़ी।।284।।

कितना सहा है मानवों को, रूप गृहणी धारकर।

कैद सा जीवन बिताया, चिंतनों को मारकर।

नहीं मिला शिक्षा उजाला, अॅंधेरे ढोती रहीं-

भोग्या खुद को बनाया, भोगती मन मारकर।।285।।

चहर दीवारी में बाँधा, मुक्त जीवन कहाँ रहा।

मोहिनी उसको बनाकर, और अवला ही कहा।

नहीं दिखाया ज्ञान दीपक, सृजन की अवनी कही-

इस तरह पूरा ही जीवन, अंधकारों में रहा।।286।।

सोचलो माँ चिंतनों में, इस तरह कब तक जियें।

जागना खुदको पड़ेगा, जहर कब तक यौं पियें।

हमें भी नर तन मिला, क्या नहीं हम कर सकें-

पैर अपनों पैं खड़ी हो, गूदड़ी अपनी सियें।।287।।

इस तरह से नारियों ने, जागरण अपना किया।

खुल गईं वे पोल सारीं, मानवों ने जो किया।

चल पड़ी कंधा मिलाकर, प्रगति की इस दौड़ में-

निकलते आगे दिख रहीं, कर दिया चैंड़ा हिया।।288।।

आज के इस दौर में, पीछे नहीं है नारिय़ाँ।

आसमाँ तक उड़न की, उनने करी है त्यारिय़ाँ।

हर कहीं चैराहे पर भी, वे खड़ीं संगीन ले-

चढ़ गईं पर्वत शिखर पर, खूँद दीं सब झारिय़ाँ।।289।।

सागरों की दूरियों को, पार उनने कर लिया।

कूप-मण्डूकी प्रथा का, अंध सारा हर लिया।

अब नहीं डरतीं कहीं भी, युद्ध में तूफान में-

बनीं है अवला से सवला, विश्व छोटा कर दिया।।290।।

चल रहीं वे धड़क होकर, विश्व के हर पटल पर।

नहीं रहा भय का तकाजा, अब बनाया विश्व घर।

तोड़कर पाखण्डी बंधन, मुक्त हो अब चल पड़ी-

नहीं रहा है कोई आंतर, कौन नारी-कौन नर।।291।।

मिटैगी सारी समस्या, एक हो जब चल पड़े।

सामने नहीं कोई होगा, पैर अंगद जब गढ़ें।

भेद के सागर पटेंगे, एक दुनिय़ाँ होयगी-

मानवी की विजय होगी, एक पहाड़ा सब पढ़े।।292।।

विश्व के नव चिंतको! नव गीत ऐसा गाइये।

विश्व की नारी व्यथा पर, गौर तो अपनाइये।

बिसमता की यह व्यवस्था, अब कहीं भी, न रहे-

महिला शशक्तिकरण की, नित पहल होनी चाहिये।।293।।

इस तरह बेटी बचा, कर्तव्य का पथ मान लो।

भ्रूण हत्या की कहानी, यों मिटे यह जान लो।

पढ़ाना-बढ़ाना बेटियों को, प्यार का उपहार दे-

गढ़ेगी गौरव पताका, विश्व में पहिचान लो।।294।।

सतकर्म हैं, सतधर्म है, सत्य को पहिचानिये।

बेटी-बेटा एक ही है, नहीं अपनी तानिये।

आज कंधा दे रहीं है, अरु मुखाग्नि ही यहाँ-

भेद का फंडा नहीं हैं, एक है सब, जानिये।।295।।

नरियों की अमर गाथा, कठिन है गाना, उसे।

जगत की हितकारणी है, कौन पहिचाना उसे।

विश्व की सारी सरगमें, उसी की सरगम भरी-

विश्व का प्रतिरूप है, मनमस्त पहिचानो उसे।।296।।