काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 5
(भ्रूण का आत्म कथन)
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
समर्पणः-
माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’
‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’
मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
तुम्हारी सोच के आगे, पुरूष भी हार जाता है।
तुम्हारे आंसुओं की धार में, वह बह भी जाता है।
सुनो तो, आदमी के सोच में, बिखराव होता है-
कहाँ हे पैर में ताकत, जिस पर थम वो पाता है।।111।।
तुम्हें कायर बना उसने, सबल खुदको बना डाला।
तुम्हारी सोच से उसका, बड़ा होता गया पाला।
तुम्हारा छीनकर सबकुछ, मालिक बन गया खुद ही-
तुम्हें भोली बनाकर के, पिलाई प्यार की हाला।।112।।
फॅंसकर जाल उनके में, जीवन भर तड़फ रोईं।
उनसे डर गईं जबसे, अपनी अस्मिता खोईं।
हती शासक, बनी शासित, घर की कैद में पड़कर-
सबल होकर, बनीं अबला, कहानी यही है गोईं।।113।।
तुम्हारे पास क्या कितना? विचारा हे कभी तुमने।
जगत तुमने रचाया है, संबारा है उसे तुमने।
सकल गुण रूप की खानी, सभी सिद्धि की दाता हो-
स्वयं को भूलकर बैठीं, ये हालत कर लयी तुमने।।114।।
समझो स्वयं को अब तो, तुम्हें हुँकार भरना है।
खड़ी होओ सबल बनकर, किसी से अब न डरना है।
जमाना आ गया फिर से, निजी इतिहास दुहराओ-
करने चल पड़ो अब भी, वही जो तुम्हें करना है।।115।।
रोकदो भ्रूण हत्या को, प्यार से पाल लो उसको।
खून हे मात वह तेरा, जाना क्या नहीं उसको।
पलता उदर जो तेरे, वही इतिहास है तेरा-
पलट लो प्यार के पन्ने, पता यह और है किसको।।116।।
न मारो उदर में उसको, न फैंको शून्य झाड़ी में।
न खुदको मारना सीखो, न डारो गहन खाड़ी में।
सभी को सजग कर डालो, बचो इस पाप से अब तो-
जीवन दान दे डालो, न रोवै कहीं पहाड़ी में।।117।।
माँ का हृदय है तेरा, जरा कुछ तरस तो खाओ।
बनाकर टोलिय़ाँ अपनी, सभी माँओं को समझाओ।
सबकुछ भूलकर पिछला, जीवन दान दो हमको-
हमारा खेल फिर देखो, हमें तुम गोद तो लाओ।।118।।
वादा कर रहीं तुमसे, दुनियाँ हम बदल डालें।
डरना है नहीं तुमको, बनेंगीं तुम्हारी ढालें
निष्ठुर मानवों के बंधनों को, तोड़ हम देंगीं-
निर्भया हो लड़ेगी हम, चलें अब कोई नहीं चालें।।119।।
तुम्हारे दुःख मैंटन की, हमने ठान ली मन में।
वे निर्भय भेड़िये अब तो, रहेंगे नहीं इस वन में।
उनकी हरकतों को हर कहीं पर, मात हम देंगीं-
खदेड़ेंगीं उन्हें हम, कुछ क्षणों में, मानवी रण में।।120।।
हमारी जिंदगी की दौड़ में, यदि आयें वे आगे।
पहन कर हायेंगीं ठाड़ी, रणथम्भौंर के बागे।
तुम्हारे शोषणों को याद कर, चुकता करें माता-
जरा अवसर हमें दे-दो, कलाई बाँध ले धागे।।121।।
भुलक्कड़ हो मेरी माता, कभी इतिहास नहीं देखा।
हम हैं आदि शक्ति ही, हमारा लेख है, लेखा।
अगर कोई सामने आया, कुचला पैर के नीचे-
पढ़ो तो उस कहानी को, हमारी अजब है रेखा।।122।।
ये दुनिया का तमासा सब, हमारा खेल है माता।
जिसको जान नहीं पाए, शंकर, विष्णु औ विधाता।
हमारे नाम अगणित है, गणना है नहीं उनकी-
सुयश औ कीर्ति की गाथा, सारा विश्व ही गाया।।123।।
हमारे बिन, विजय किसने, जहाँ में कब कहाँ पाई।
हमारी शक्ति के आगे, सागर भी बना खाई।
हिमालय की भी ऊॅंचाई, गर्व तज पैर तर लेटी-
हमें जाना नहीं तुमने, हमारी कितनी प्रभुताई।।124।।
वादा आज यह करदो, कि जीवन दान देओगीं।
घुमड़ते इस ववण्डर में, जीवन नाव खेओगीं।
तुम्हारे कर कमल में है, हमारा जिंदगी लेखा-
आशीर्वाद अब दे-दो, बड़ा उपकार लेओगीं।।125।।
हमको गोद जब लोगीं, सभी कुछ भूल जाओगीं।
कभै पावन हथेली ले, शीतल जल निल्हाओगीं।
झूला डालकर अॅंगना, झुलाओगी कभै हॅंसकर-
लोरी गीत गाकर के, हमें पलना सुलाओगीं।।126।।
नेहा सागरी लहरें बना, मुख चूमोगी हॅंसकर।
सुखद खुदको बनाओगी, मन से प्यार चुंबन कर।
तुम्हारे सामने उस क्षण, हजारों स्वप्न आयेंगे-
बहुत आनंद पाओगीं, जिसकी तौल है मन भर।।127।।
माना जन्म देना ही, बड़ा उपकार नहीं माता।
हमारा पाल पोषण भी, तुम्हारी ओर ही जाता।
हमें विश्वास है पूरा, जनम संग सब चुकाओगी-
तुम्हारे प्रेम सागर में, यह सागर डूब ही जाता।।128।।
जगत में है नहीं कोई, माँ से जो बड़ा होगा।
अमृत दान देतीं हो, जिसको सभी ने भोगा।
अनेकों कष्ट सहकर के, बड़ा सबको किया जिसने-
उसे गर भूलता कोई, बदतर ही वही होगा।।129।।
प्रथम शाला तुम्हीं होगीं, जहाँ इन्सान बनते है।
तुम्हारे गजब साँचे में, ज्ञान-विज्ञान ढलते हैं।
अजूबाँ क्या नहीं, बने नारायण, जहाँ नर भी-
अगम वाणी, अगोचर हो, सब तब प्यार पलते है।।130।।
बेटिय़ाँ है हम, है तुम्हारे घर घरौंदे, की ही तुलसी।
नीति, नैतिक की दवा है, मानवी जिससे हो हुलसी।
अंजुरी सी मंजरी है, पात परसत पतित पावन-
घर सुगंधों से भरैंगीं नित पुजैंगीं देव कुल सी।।131।।
एक तरु के पात सोचो, भिन्न कैसे हो सकैंगे।
कब रहैंगे बड़े-छोटे, भेद कैसे कर सकैंगे।
कहाँ है अन्तर बता दो, जो उठाते भेद के स्वर-
सोच को अब तो बदल-लो, सब तुम्हैं अच्छा कहैंगे।।132।।
इस बदन में हाथ दो हैं, बड़ा-छोटा कौन-सा है।
प्यार दोनों से करें सब, प्रश्न इसका मौन-सा है।
सिर्फ चिंतन को बदल लो, दैव की श्रेणी मिलेगी-
बेटा-बेटी एक ही है, उमय जीवन सोन-सा है।।133।।
सोचकर ऐसा, सभी कोई, बेटियों को भी बढ़ाओ।
वे पढ़ेगी खूब, मन से, इस धरा पर लौट आओ।
आनि होगी जिंदगी की, अरु वतन की शान होंगी-
विश्व में डंका बजेगा, बेटियों को सब पढ़ाओ।।134।।
अभी तक जो त्रासदी थी, मैंटना उसको पड़ेगा।
व्यवस्था की इस दिशा को, मोड़ना तुमको पड़ेगा।
मत समझना भार घर का, सुमन है तेरे वतन की-
युग सुगंधों से भरैंगी, प्यार तो देना पड़ेगा।।135।।
क्या कभी अंदाज कीना, चाहतीं कितना हैं तुमको।
हर घड़ी पर सामने हो, भूलती विल्कुल न तुमको।
यदि कहीं बिल्ली भी कूँदी, बस तुम्हीं को टेरतीं है-
जहन में कितनी बसी हो, क्षण-क्षणों पर रहैं तुमको।।136।।
जनम पालन हक तुम्हारा, तो पढ़ाना भी पड़ेगा।
प्रथम शाला तुम्हीं तो हो, राह पर आना पड़ेगा।
उदर में तुमने ही माता, अभिमन्यु को था पढ़ाया-
चक्रव्यूही इस समर को, जिताना तुमको पड़ेगा।।137।।
उदर से हुँकार भर कर, पिता को जिसने पुकारा।
अष्टवक्रा की कहानी, सुना दो अब तो दुबारा।
प्रश्न दुर्लभ का भी जिसने, जनक को उत्तर दिया था-
पिता के संग, सभी को ही, छुड़ाकर लाया था कारा।।138।।
भरत माँ की क्या कहानी? जो समर संग्राम करती।
दुर्घर्ष रण-कौषलों से, दैत्य दल संहार करती।
सौर्य के कर्तव्य पथ से, वह बनी दशरथ दुलारी-
बे नहीं क्या बेटिय़ाँ थी, पीढ़ियों की याद भरती।।139।।
मान गए यमराज हारी, क्या नहीं बेटी तुम्हारी?
नहीं हटी थी सत्य पथ से, सत्य की बनकर पुजारी।
पुज रही सावित्री जग में, ले खड़ी गौरव पताका-
बे सभी कहानी रटा दो, लाड़िली कहती तुम्हारी।।140।।
और भी है बेटिय़ाँ, इतिहास जिनसे है भरा।
गोद माँ की ही पढ़ी सब, गीत गाती है धरा।
पढ़ाना तुमको हमें है, चुकाओ दायित्व अपना-
ज्ञान का दीपक जलादो, जो प्रकाशों हो भरा।।141।।
उस जमाने की सुनो मत, जो रचे पाखण्ड धरती।
बेटिय़ाँ घर की बसीहत, रहें जो पर्दों में मरती।
क्या जरूरत है पढ़ाना? रोटिय़ाँ घर में बनाना-
सृजन की केवल धरा है, कहाँ जरूरत और पड़ती।।142।।
निकलने दो नही घरों से, शान डूबेगी तुम्हारी।
क्या करेंगी पाठ पढ़के, करेगा को द्वार बुहारी।
पाठ-पुजा सिर्फ घर में, मंदिरों तक जाने दो मत-
वे अशुच हैं हर समय ही, बात क्या तुमने विचारी।।143।।
सोच घटिया मानवों का, वेद नहीं उनको पढ़ाना।
पाठशाला जायेंगी तो, पढ़ बुनेंगी ताना-बाना।
जान जायेंगी हकीकत, तो पुरूष कमजेर होगा-
बराबर में खड़ी होंगी, फिर पकाए कौन खाना।।144।।
घटैगी यौं पुरूष सत्ता, पोल सब खुल जाऐगी।
इस तरह पुरूषत्व पथ की, होलिका जल जाऐगी।
ढोंग अरु पाखण्ड में, उनको रखो तुम बाँधकर-
रूढ़िवादी रचो दुनिय़ाँ, शान तब रह पाऐगी।।145।।