बेटी - 6 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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बेटी - 6

काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 6

(भ्रूण का आत्म कथन)

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

समर्पणः-

माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’

मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

मानवों की सोच हेटी, नारियों के साथ है।

बाँध देते उम्र छोटी, गृहस्थी में हाथ है।

उलझ जाता शोच सारा, उलझनों की भीड़ में-

भर दिया सिन्दूर गहरा, जिंदगी के माथ है।।146।।

सिर्फ गृहणी उसे माना, आदमी की सोच ने।

सोचकर, अनपढ़ बनादी, क्रूर, दुष्टी पोच ने।

बहुत सारी रूढ़ियों को, सामने उसके रखा-

जकड़ दी, बहु बंधनों में, निर्दयी की सोच ने।।147।।

इस तरह अनपढ़ बनाकर, आदमी चलता रहा।

नारियों को राख बंधन, खूब ही छलता रहा।

जाग जाओ अब भी माता, पढ़ा दो इकबार तो-

हम जमाना बदल देंगी, युग जमाना कह रहा।।148।।

माँ मेरा अस्तित्व कैसे, दोष का पर्याय है।

यही तो मानव प्रवृति का, नया एक अध्याय है।

नियम को तजके चले जो, दोष अनेकों दो भलाँ-

नियती के नियमों का पालन, क्यों? कहाँ? अन्याय है।।149।।

दोष है मानव प्रवृति का, मुझे दोषी मत कहो।

नियम तोड़े है तुम्हीं ने, दोष मुझपर मत मढ़ो।

मारते अवैध कहकर, कौनसा यह ज्ञान है-

ज्ञान को सार्थक बनाकर आपनी हद में रहो।।150।।

राह भटके स्वयं तुम हो, दोष हम पर मढ़ रहे।

उदर में पसरी कहानी, मैटने को बढ़ रहे।

बने मानव के नियम और, तोड़ता मानव रहा-

दोष दे हमको मिटाते, पाप कैसे गढ़ रहे।।151।।

निर्दोष हम हैं, माँ मेरी, सोच को नव सोच दो।

बदलने नारी व्यवस्था, एक नया सा सोच दो।

चल पड़े मानव नियम से, तब सभी कुछ न्याय हो-

मैटने इस भ्रूण हत्या का, नया पथ जोड़ दो।।152।।

इस तुम्हारे सोच का, स्वागत करेगी मानवी।

दूर होंगी वह व्यवस्था, जो बनी है दानवी।

प्रकृति पथ पालन रहेगा, दोष का अवशान हो-

व्यवस्था की यह धारा, तब पुजेगी ज्यौं जाहन्वी।।153।।

निर्भया मैं भ्रूण हूँ माँ, तेरे उदर में पल रही।

आपकी संवेदनाऐं, किस कदर से चल रहीं।

कर रही मैं मनन-चिंतन, आपके ही साथ में-

आ रहीं हूँ सगज करने, जिस तमस तुम छल रहीं।।154।।

मानवी की सभ्यता की, नींब धरने आ रही।

छल-कपट प्रबंचना के, गीत तेरे गा रहीं

जब सुनूँ संबाद तेरे, उछल पड़ती उदर में-

धैर्य की धरती सजाने, नये युग को ला रही।।155।।

यदि अबांछित अस्वस्थ्य-गर्भ, उदर में हो कहीं आया।

गर्भपात कानून को, सरकार ने तब ही बनाया।

मान्यता दे-दी उसे, बहात्तर सन् बीच में-

मातु-पिता का बोझ हल्का, करन को कानून बनाया।।156।।

मान्यता की धारणा से, लिंग परीक्षण गहरा गया।

बन गया व्यवसाय जैसा, क्रूरता को पा गया।

सोच तब, शासन ने, इस पर रच दिया कानून एक-

जो रहा गर्भपात विरोधी, उन्नीस सौ चैरानवै हुआ।।157।।

सोचा था विज्ञान मानव, समानुपाती भाव ले।

खोज थी मशीनी व्यवस्था, बेटा-बेटी बता दे।

किन्तु इसका भार-भारी, बेटियों पर पड़ गया-

बचाते बेटा ही केवल, बेटियो को हटाते।।158।।

लिंग परीक्षण किया तो, बेटी उदर पाई।

था प्रशव पहला, मगर चिंता उभर आई।

बहुत कुछ जद्दो-जहद की, मगर वह हारी-

माँ हृदय के सामने, गहरी खड़ी-खाई।।159।।

शिशु को बचाने सोचती, क्या-क्या रही मन में।

स्वयं के अवशान का भी, ख्याल क्षण-क्षण में

इस भंवर के बीच ही, चिंतन हरा भटका-

भावनाऐं बिजलिय़ाँ ज्यौं, चमकतीं घन में।।160।।

वैज्ञानिकों की सोच का, दुरूपयोग हुआ भारी।

बेटियों के भ्रूण पर भी, आ गई महामारी।

माँ विवश थी, फाँस गई थी, भंवर दवावों के-

सोच कुंठित हो गया था, इस तरह हारी।।161।।

गर्भ के महिमान शिशु की, आकृति पर सोचती।

रूप-रंगत अब यबों को, भाव-भावित पोषती।

छू रही हे क्ल्पना ले, प्यार कर पुचकारती-

लेरियों में गुनगुनाहट, बहुत कुछ यौं खोजती।।162।।

यदि हुआ बालक उदर में, ग्राफ इज्जत बढ़ेगा।

मन और सम्मान के संग, किसमतों को गढ़ेगा।

बलिका के आगमन में, भाग्य रेखा उच्च होगी-

दोऊ कुल उद्धार कारक, विश्व जिसको कहेगा।।163।।

विश्व में सबसे बड़ी है, मातु की ममता कहानी।

सभी रिस्तों के गगन में, गॅूंजती जिसकी रवानी।

पालती गर्भस्थ शिशु को, संस्कारों की धरा पर-

ढालती संबेदनाऐं जो सभी की जानी-मानी।।164।।

सास साँसें भर रही है, उदर में बेटी जब आई।

ससुर की कहानी कहैं क्या, पौर से खटिया उठाई।

ननद की भौंहैं मटकती, पति के वे-मेल ताहने-

लिंग परीक्षण क्या हुआ? किसी ने रोटी न खाई।।165।।

दोष किसका है यहाँ पर? भ्रूण हत्या हो रहीं है।

आंख अंशुअन से भरी है, शून्यता यहाँ रो रही है।

चूक किससे हो गई है, दोष किस पर छोड़ते है-

क्या नहीं लगता तुम्हैं यह, प्रायश्चित अवनि धो रही है।।166।।

नरियों का रुदन कहता, भ्रूण हत्या बढ़ रही हैं

स्वास्थ्य भागों रोक कितनी, शिखर पर ही चढ रही है।

नहीं रुका अबतक यह क्रंदन, भ्रूण हत्या काफिलों का-

अनगिनत दास्तानें कहतीं, आसमां तक बढ़ रही हैं।।167।।

बताते सर्वे हमारे, देश की तकदीर कैसी?

बेटिय़ाँ घटतीं दिखीं यहाँ, बालको की बाढ़ ऐसी।

एक हजारी लाल है तब, नौ सौ तैतीस बेटिय़ाँ हैं-

देश किस दिश जा रहा हैं, बताती है औसत ऐसी।।168।।

एम0 पी0 हालातें गहरीं, हैं विषमता की कहानी।

एक हजारी बालको पर, नौ सौ नब्बै बेटी जानी।

अन्य प्रांतों की कहैं क्या, ग्राफ नीचा हो रहा है-

इक्कीस सदवी क्या रहेगी, मरेगी यहाँ कौन नानी।।169।।

आर्थिक संसाधनों ने, मानवों की रीढ़ि तोड़ी।

व्यवस्था खर्चीली कितनी? रास्ता जिसने है मोड़ी।

कोशिशें करते सभी हैं, बेटिय़ाँ नहीं उदर आयें-

कर रहे कईएक उपक्रम, गुणसूत्रों की जोड़-जोड़ी।।170।।

सुन रही हो माँ मुझे क्या, जान सकता कौन कब।

भूल जाओ तैनसिंह को, अरु हिलैरी नाम अब।

जिस तरफ भी हम चलेंगीं, राह बनती जायेगी-

बहुत अन्तर आ गया है, मान लेना बात सब।।171।।

आपका है काम इतना, पालना और पढ़ाना।

दो सहारा उॅंगलियों को, सिखादो हमको चलाना।

मात भूलेंगीं नहीं हम, आपके अवलम्व को-

जान जाऐं हम सभी कुछ, घटाना और बढ़ाना।।172।।

बना दो लायक हमें तुम, हम जहाँ को जान लें।

श्रेष्ठ शिक्षा को गति दो, प्रगति को पहिचान लें।

ड्राइविंग हम ही करेंगी, संसार के बदलाव की-

शक्ति दो ऐसी हमें तुम, सभी कुछ यह, ठान लें।।173।।

उन पिशाची बेड़ियों को, तोड़ने की शक्ति दो।

क्रूरता की वे कलाईं, मोड़ने की शक्ति दो।

रक्त रंजित, वे घिनौने, खेल सारे बंद हो’

अंजनी हो माँ हमारी, दूध में वह शक्ति दो।।174।।

ज्ञान के सागर तरें हम, मैट दैं अज्ञान को।

दो हमें अद्वेत शक्ति, ले बना पहिचान को।

बंधन तुड़ाकर मुक्ति दें, समय की इस परिधि में-

समझ लें अपना गणित, लाभ को अरु हानि को।।175।।