श्यामसुंदर तिवारी - मैं किन सपनों की बात करूं राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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श्यामसुंदर तिवारी - मैं किन सपनों की बात करूं

श्यामसुंदर तिवारी एक तपे हुए गीतकार हैं , जिनके पास नवल बिंब ,नवल कथ्य और नवल भाषा है। श्याम तिवारी जी का नवगीत संग्रह "मैं किन सपनों की बात करूं " पिछले दिनों शिवना प्रकाशन से छप कराया है, जिसमें तकरीबन 66 नवगीत संग्रहित हैं ।
संग्रह के नव गीतों का मूल स्वर व्यवस्था के सड़े गले नियमों से मोह भंग और आम आदमी के छले जाने का छोभ है। सँग्रह की कुछ रचनाओं में मां , परिवार, समाज और प्रकृति से जुड़े आशावादी गीत ही हैं । कई रचनाओं में पहले खंड में निराशा तो आखरी में उसी रचना में आशा जागृत होकर आती है।
शीर्षक गीत देखिए -
मैं किन सपनों की बात करूं
दुनिया जैसे बाजार हुई,
सच की है सब से ठनी हुई।
फैला है धुआं हवाओं में,
ज्वाला है मन के गांवों में ।
मैं किन अपनों की बात करूं,
अपने ही धता बताते हैं।।

कवि को अपनी मां के बहाने सृष्टि की समस्त माँओं से लगाव है ।नवगीत "घर का कोना कोना अम्मा " (19)में वे शिद्दत से मां की चर्चा करते हैं...
घर का कोना कोना अम्मा,
भरा भरा सा लगता है ।।
तुम रहती हो घर में ये घर,
हरा भरा सा लगता है।।
अपनी आंखों से ही तुम,
सबके मन को पढ़ लेती हो।
बांध आंसुओं को पल्लू में,
हर एक दुख सह लेती हो।
हर जवान दुख तेरे कारण ,
जरा जरा सा लगता है ।।
घर का कोना कोना अम्मा....

गीत , रचना या कहें कविता पर कवि को अगाध विश्वास है। अच्छी दुनिया का सृजन भी गीतों से होगा, तो बिगड़े हालात को गीत ही सुधरेंगे । वे अपने गीत "तुम कह दो तो आज बसा दूँ"( 23)" बैठो दो पल पास" (37) " एक गीत में जाने कितने गीत बसे" (50) 'नीला गगन उजास लिखूंगा' (51) गीत बैठो दो पल पास का यह अंश देखिये-
बैठो दो पल पास सुनाऊंगा जीवन के गीत।
सूरज का रथ निकल चुका है सांझ सिंदूरी मीत।
गांव गांव चौपाल में थी ओके थे ताश के पत्ते ।
बारादरियां में महफिल थी
मिलन प्रेम थे सस्ते ।।
देश न जाने कब कैसे फिर आज गया है जीत।।
सुनाऊंगा जीवन के गीत


गांव से जुड़ी यादों को कवि बार-बार चुभलाते हैं ,उनकी कल्पना का गांव दोष रहित है, स्नेह में डूबा है ,जहां बची हो छाव (54 )अब तो गांव चलें (74) आँच है अब भी अलावों में (35) देखिए-
आँच है अब भी अलावों में ।
रहेंगे कब तलक अभावों में ।
कौन जाने कहां तक तम हैं ,
एक किरण की आस में हम हैं
न जाने फिर बोर कब होगी ,
रात काली मोर कब होगी।
अभी भी पट्टी नयन भर है,
रह गया पढ़ना किताबों में ।।
आँच है अब भी अलावों में

गीतका र के मन में बिगड़ते हालात के सुधारने व क्रांति के की उम्मीद कायम है। गीत रात में बात करती हैं (49) झुलस गए हैं पंख (61) दृष्टव्य से है।
कवि खुद की जागृति को बड़ा मानता है। वह कहता है कि अगर व्यक्ति स्वयं जागृत हो जाए तो सब कुछ ठीक हो जाएगा ।गीत वहां अंधेरा फैल रहा है (71 )गीत देखें
गहन अंधेरा फैल रहा है
तट के चारों ओर सखा ।।
नाव न छोड़ो जल है गहरा ,
डरता है मन थका थका ।।
चलो चलें घर दीप जलाकर,
रोशन आंगन द्वार करें।
सबसे पहले अपने घर का
तम मेटें उजियार करें।
नभ पर देखो सुर्ख कालिमा
सूरज भी है झुका झुका ।।
डरता है मन थका थका

नवगीत के लिए जरूरी विम्ब और रूपक की भाषा तो श्याम तिवारी जी के पास भी है ,किरनों ने लिख डाली धूप की किताब(72) मन की नाव भाव की मछली (77) उजियारा ने सब चुरा लिया (79) इस नजरिए से दृष्टव्य है । देखिए-
उजियारा ने सब चुरा लिया ,
पर अंधियारे बदनाम हुए ।
निशि उतरी धीरे से छत पर ,
आकर दीपक के पांव छुए।
इतराता है बाजारों में ,
पहली किरणों का भुनसारा ।
इस बंजारों की बस्ती में ,
हर रात टूटता एक तारा।
गूंगा सवाल दो रोटी का ,
उत्तर सारी आवाम हुए।।

कवि ने अपने गीतों में भाई वायवी वर्णन नहीं किए , अनेक गीतों में दार्शनिक विचार भी सहज रूप से प्रस्तुत किए हैं, ऐसे गीतों में दुख के पाँव बड़े लंबे हैं (52) नैना दो हैं (53) सुख दुख दो पहिए इस मन के ( 49) देखने योग्य हैं-
दुख-सुख दो पहिए इस मन के ।।
दौड़ रहे हैं पद पर तन के।।
क्या खोया क्या पाया इसमें
छोड़ उलझना तू ।
ढूंढ नया दिन नई किरण बस
अंतर सुख को छू ।
भट्टी में तब चुका निकल अब
खरा स्वर्ण बन के ।।
दुख-सुख दो पहिए जीवन के....

श्याम सुन्दर तिवारी न केवल गेय गीत रचते बल्कि वे विचार वान गीत भी पूरी शिद्दत से रचते और सुनातेहैं।
बोलचाल की भाषा और सरल शैली के यह गीत सबकी समझ में आते हैं।
नवगीत के विधान के अनुकूल होने से निये विम्ब,नया शिल्प और नया कथ्य लेकर आये ये गीत पढ़ने सुनने में अच्छे लगते हैं।
प्रकाशन में कम रुचि होने से उनके गीत सँग्रह के आने के देरी हुई लेकिन अब वे लगातार छपते रहेंगे, और हमको शानदार गीत पढ़ने का मौका मिलता रहेगा।
राजनारायण बोहरे