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निठल्लें - रेखा सक्सेना वासुदेव

निठल्लें प्रयोगवादी नाटक रेखा सक्सेना वासुदेव

नया रचने की मशक्कतः निठल्लें

समीक्षक- राजनारायण बोहरे

”निठल्ले” एक प्रयोगवादी नाटक हैं, जो रेखा सक्सेना वासुदेव ने वर्तमान युग की तल्ख सच्चाईयों को मंच पर बात-चीत के जरिये उजागर करने के लिये लिखा है। रेखा एक प्रोफेशनल नाट्य धर्मी हैं, वे न केवल रेड़िया पर अपनी पेशागत् अनिवार्यता के कारण नाट्य प्रस्तुति कराती रही हैं, अपितु अपने शौक के कारण भी छात्र जीवन से नाटक जुड़ी रही है। उनके निर्देशक और प्राध्यापक रहे ड़ा. के.बी.एल. पाण्ड़े के मतानुसार रेखा सक्सेना में एक बेधती हुई दृष्टि है जो समाज की विकृतियों को दूर से ताड़ लेती है। व हिन्दी रंगमंच के रूके हुये जल का प्रवाह बढ़ाने को सतत् उद्यमशील है।

इस नाटक में प्रमुख पात्र निठल्ला और निठल्ली हैं, जो आपसी संवाद में हमारे देश के तमाम शासकीय तंत्रों में घुस आई संड़ाध को तो उजागर करतें ही है, भारत-पाकिस्तान के आपसी रिश्तों, भारतीय नागरिकों की हड़ताल प्रियता, नारी जाग्रति आंदोलन में पुरूषों की सक्रियता, वर्तमान राजनीति में गांधीजी की ग्राहयता आदि पर भी विमर्श किया गया है। कुछ स्थानों पर हास्य भी आता है ंतो कहीं तात्कालिक घटनाऐं आती है।

निठल्ला, निठल्ली के संवादों को सपोर्ट करनें और बीच का गैप पाटनें के लिये एक कोरस ग्रुप भी है। यह कोरस ग्रुप संवादों के बीच में फिल्मी गाने भी गाता हैं और दूसरे प्रार्थना गीत भी। एक ऐसा ही प्रार्थना गीत और उससे जुडें संवाद देखिये-

कोरस वाले (गादर)

इतनी शक्ति हमें देना दाता

मन का विश्वास कमजोर हो ना

निठल्ली- हे प्रभु भ्रष्टाचार के नेक रास्ते पर,

निठल्ले- हम कदम मिला चलते रहें।

निठल्ली- हे प्रभु, दहेज का लेना-देना,

निठल्ले- इसी शान से करते रहें।

निठल्ली- हे प्रभु, सारे काण्ड़ आंख-नाक-कान बंद कर,

निठल्ले- देखते-सूंघते-सुनते रहें।

इस नाठक की भूमिका सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के तात्कालिन कुलपति और हिन्दी के सुचर्चित कवि शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखी है। वे इस नाठक में नुक्कड़ नाठक के सारे तत्व पाते हैं, बल्कि वे इस हिन्दी रंगमंच हाल ही में प्रचलित “स्किड़“ के आस-पास भी पाते है। हालांकि वे इसें एब्सर्ड़ नाटक की परिभाषा में भी शामिल मानते है। यही सब चीजें इस नाटक पर पुनर्विचार के लिये कुछ संकेत भी देती है। एक कृति जो कई विधा-रूपों में अट सकती हो यह या तो विलक्षण रचना होती हैं या फिर निःलक्षण अर्थात् कहीं भी न मान्य हो पानें वाली कृति। इन दिनों हिन्दी में पाठक नहीं लिखे जा रहे, बस प्रयोग चल रहें हैं या फिर नया महावरा ढूंढा जा रहा है।

नाटक विधा की कोई भी रचना हो, वह नाटकीयता की अपेक्षा जरूर रखती है। अभिनय की गुंजायस भी उसमें होना चाहिये। इस दृष्टि से प्रस्तुत नाटक बड़ा कमजोर है। इसमें समस्याऐ ंतो दुनिया भर की उठाई गई है, पर सारा नाटक निठल्ला-निठल्ली की बातचीत में ही पूरा हो जाता हैं, न कोई घटना घटती, न भावाविरेक होता न हीं कहीं स्वर बदलता है। देश में व्याप्त कर्म-हनता, आलस्य, कर्तव्य-च्युति, विकृतियां तो सब जानते है, उनकी आपस में सतह चर्चा मात्र करके कोई नाटक दर्शकों से नहीं जुड़ सकता, यह जुड़ाव हीनता इस नाटक में विद्यमान है। चूकि रेड़ियों नाटकों को दर्शकों के फीड़वेक का तुरन्त पता नहीं चल पाता, इसलिये रेड़ियों से जुड़ी लेखिका ने दस नाटक के उन पक्षों पर गौर नहीं दिया होगा। यों ही इसे नुक्कड़ नाटक और एब्सर्ड नाटकों की विशेषताओं से भी दूर महसूस किया जा सकता है।सारतः निठल्ले नाटक को हिन्दी रंगमंच में नया रूवरूप, नया परिवेश, नया चलन और नया रास्ता तलाश रहे प्रयोगवादी नाटकों की श्रृंखला में एक नाटक तो कहा जा सकता हैं, पर इसे बहुत सशक्त, अद्भूत, अनूठा, प्रभापूर्ण आदि इत्यादि कहना कठिन है।

पुस्तक- निठल्ले (नाटक) राजनारायण बोहरे

लेखिका- ड़ॉ रेखा सक्सेना एल-19, हाउसिंग कालौनी

प्रकाशक- आदित्य पब्लिशर्स बीना दतिया, (म.प्र.)

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