मेरी पगली...मेरी हमसफ़र - 9 Apoorva Singh द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मेरी पगली...मेरी हमसफ़र - 9

कमरे में आकर मैंने आरामदायक कपड़े पहने और लैपी ले बेड पर बैठ कर काम करने लगा!कुछ देर काम करने के बाद मेरे कानो में श्रुति के जोर से बुलाने की आवाज आई, 'भाई कहां है आप' कहते हुए वो कमरे के अंदर चली आई।आवाज सुन मैंने उसकी ओर देखा।उसके चेहरे पर परेशानी देख मैं समझ गया अर्पिता के साथ फिर कोई गड़बड़ हुई है वो ठीक नही है मैंने लैपी बन्द कर उठकर श्रुति के कमरे की ओर दौड़ा और एक नजर चारो ओर डाली!अर्पिता मुझे कहीं नही दिखी!बाथरूम का दरवाजा खुला था उसमे से पानी गिरने की आवाज सुनाई दी।शायद वो अंदर है सोचते हुए मैं बाथरूम के दरवाजे तक पहुंचा।मेरी नजर फर्श पर बेहोश पड़ी अर्पिता पर पड़ी!वो सर से लेकर पैर तक भीग चुकी थी फिर भी बेहोश थी।मैं घबराते हुए उसके पास पहुंचा और उसे उठाकर बाहर ले आया।उसकी आँखे बन्द थी एवं चेहरे पर शिकन !उसे लाकर मैंने श्रुति के कमरे में पड़ी कुर्सी पर बैठा दिया।श्रुति आ चुकी थी।मैंने उससे अर्पिता के कपड़े बदलने के लिए कहना चाहा लेकिन कह नही पाया।शब्द अटक गये।श्रुति समझ गयी और बोली 'उसने करने का कहा तो मैं हां कह अर्पिता के लिए हॉट कॉफी बना कर कॉफी मग में लाने का कह वहां से बाहर चला आया।बाहर आते हुए मेरी नजर वहीं दरवाजे पर हैरान खड़े परम पड़ी जिसके कान से फोन चिपका था वो किरण से बाते कर रहा था।ये देख मैं ख्याल आया 'गयी भैंस पानी में' वो कुछ बोलने को हुआ हुआ मैंने आगे बढ़ कर उसके हाथ से फोन ले कट कर दिया।

'भाई ये सब अर्पिता यहां कैसे सुबह जो हादसा हुआ वो' वो हड़बड़ाते हुए बोला।उसके लफ्ज जैसे गले में ही अटक गये हो।जिन्हें बाहर निकालने के लिए उसे बहुत मेहनत करनी पड़ रही हो कुछ ऐसा हाल हो गया था छोटे था।उसे देख मैंने सब बताता हूँ चलो मेरे साथ'कहा और वहां से रसोई की ओर गया।परम चला आया तो कॉफी फेंटते हुए मैं उसे अर्पिता के बारे में बताने लगा,'मैं जब काम से कानपुर गया था तो ये मुझे वही सेंट्रल पर बेहोश मिली थी!सुबह जो हादसा हुआ था उसमे अर्पिता के मां पापा खो चुके हैं उनका कुछ पता नही चल रहा है।इसलिये वो बहुत ज्यादा परेशान है!' उस पर किरण के घर में भी कुछ ऐसा हुआ जिसकी खबर शायद किसी को नही और वो नही चाहती कि उसके बारे में किसी को भी पता चले।तो बस जब तक चीजे वापस से हमारे पक्ष में नही हो जाती तब तक इस राज को राज ही रखना है।जब तक अर्पिता खुद सबके सामने नही आना चाहती।ये जीवन उसका है उसे कैसे जीना है ये निर्णय वो खुद करेंगी।ठीक है छोटे' बोलकर मैंने उसके चेहरे की ओर देखा जो अभी भी असमंजस में वहीं खड़ा था।मेरी बातो को समझ वो बोला 'ठीक है भाई मैं किसी से नही कहूंगा।'उसे सुन मैंने राहत की सांस ली और खुद से बोला,'उफ्फ ये बहाने बनाना भी न कितना मुश्किल काम है।मुझसे ये ही उटपटांग काम ही नही होते।बहाना ही तो था ये और क्या नाम दूँ मैं इसे!मैं बस चाहता था कहीं और रहने की जगह वो मेरे सामने रहे!जिससे जब भी उसके कदम लडखडाये उसका शान उन्हें सम्हाल सके!बिन कुछ जताये चुपके से किसी सैंटा की तरह बस उसके चेहरे पर मुस्कान बिखेरता रहे।'

"प्यार में जताना!पाना ये सब तो बहुत पीछे छूट जाता है।प्यार तो वो खूबसूरत एहसास है जिसे हम जितना जियेंगे उतना ही कम लगेगा!"

मेरी भुनभुनाहट सुन परम बोला, 'आपने कुछ कहा भाई।'पता चला ये एक और बदलाव हुआ मुझमे कभी कभी बुदबुदाना भी सीख गया मैं।अपनी ही हरकतों पर मैं खुद पर हैरान हो रहा था।

'नही छोटे,मैने कहा कॉफी फेंट चुका हूँ।अब बस दूध तैयार कर उसमे डालना बाकी है सो वही कर लूं।' मैंने बाते बनाते हुए उससे कहा।वो मान गया बोला 'ठीक है भाई।मैं कमरे में जाता हूँ' कह वो वहां से चला गया।

मैं भी कॉफी का मग लेकर श्रुति के कमरे में अर्पिता के पास पहुंचा।मेरी नजर कुर्सी पर बेहोश बैठी अर्पिता पर टिकी जिसकी गर्दन लुढ़क कर किनारे आ चुकी थी।

मैंने श्रुति को कॉफी पकड़ाई और आगे बढ़ अर्पिता को अपनी बांहो में उठाया।देखने में हल्की फुल्की लगने वाली मेरी पगली का वजन इतना भी कम नही था कोई उसे यूँही उठा पाये।'तभी इतनी मजबूत हो' मैं मन में दोहराया और अर्पिता को उठाकर बेड पर लिटा दिया।उसके सर से तकिया लगा मैं वहां से अपने कमरे की ओर आने लगा लेकिन इस बार फिर उसके आँचल ने मुझे रोक लिया।श्रुति दूसरी ओर होने के कारण ये देख नही पाई।मैंने उसे हटाया और बाहर चला आया!इस घटना के बाद हम जब भी आसपास होते उसका आँचल और मेरी घड़ी दोनो ही हमारी तरह एक डोर से बंधने लगे।वो डोर कायनात का इशारा थी हमें एक दूसरे से ही जुड़ना है।लेकिन उस समय न वो इसे समझी और न ही मैं समझ पाया।कमरे में आकर मैं पूरे दिन का पेंडिंग काम करने लगा।उसे करते करते मुझे नींद आ गयी और मैं बेसुध सा वहीं आगोश में चला गया।उन दिनों यही तो हाल रहता था मेरा,व्यस्तता इतनी थी कि कब नींद आ जाये कुछ पता नही रहता था।रात के दो बजे जाकर मेरी नींद टूटी।तो मन में सबसे पहला ख्याल आया 'मुझे एक बार अर्पिता को जाकर देख लेना चाहिए।उसे होश आया कि नही।वो ठीक है।श्रुति तो बहुत गहरी नींद में सोती है।अर्पिता ने अगर उससे कुछ कहा भी तो वो एक बार मे तो उठेगी नही!!कहीं उसे कुछ चाहिए तो नही।'

मैं उठकर श्रुति के कमरे की ओर गया और दरवाजे को हल्का सा धक्का दिया तो दरवाजा तुरंत खुल गया।मै अंदर चला आया मैंने एक पल अर्पिता को जी भर निहारा।अब उसके चेहरे पर कोई शिकन नही,कोई दर्द नही बल्कि हमेशा सजने बाली वो छोटी सी मुस्कुराहट है।हां,वो नींद में भी मुस्कुराती है।उसके चेहरे पर छोटे छोटे बाल निकल कर आ गये जो उसके माथे को ढंक रहे थे।उस पल उसके चेहरे पर फैली मासूमियत को देख मैं बोला, 'तुम्हे देख कोई नही कहेगा अर्पिता कि तुम्हे तुम्हारे स्वभाव के कारण 'तीखी छुरी' भी कहते है।उसे सर्दी लग रही थी।कम्बल तो सारा श्रुति ने खींच लिया था।जो आधा उसके उपर और आधा नीचे जमीन पर पड़ा था जिसके कारण अर्पिता सिमट कर दो का अक्षर बनी जा रही थी।उसे देख मैंने आगे बढ़ श्रुति का ब्लैंकेट उठाया और दोनो को ओढा कर वापस अपने कमरे में चला आया।नींद उस पल तो भाग चुकी थी सो मैंने अपनी डायरी और कलम उठाये और उसमे अपनी भावनाओं को लिखने लगा।जो मैं अक्सर किया करता।

आसमां का परिंदा मैं।स्वच्छंद उड़ान भरते रहना मेरी चाह थी।
आसमां में ही था घर मेरा और वहीं मेरी राह थी।
उड़ते हुए मैं एक दिन किसी फ़रिश्ते की नजरो का शिकार हो गया।
स्वछंदता की चाह खत्म हुई और मुझे उन नजरो से प्यार हो गया।
बड़ी बड़ी है आँखे उसकी!उसकी मुस्कान बेमिसाल है।आसमां के इस परिंदे को हुआ उस फ़रिश्ते से पहली नजर वाला प्यार है।

लिखते हुए मुझे कब नींद आ गई मुझे पता नही चला और मैं डायरी पर हाथ रख टेबल पर सिर टिकाकर सो गया।

कुछ ही देर हुए होंगे कि अचानक ही मेरे मोबाइल में
अलार्म बजता है।यूँ अचानक ही कान के पास अलार्म बजने से मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।मैंने फोन उठा कर अलार्म बंद किया और सोचने लगा कि ये अलार्म लगाया तो लगाया किसने।ढाई बजे का अलार्म तो मैंने स्कूलिंग और कॉलेज के समय भी नही लगाया था तो अब क्या लगाता।मैंने मुड़कर दरवाजे की ओर देखा लेकिन वहां कोई नही है।मुझे बड़ी हैरानी हुई।मैं उठ कर अपनी बिखरी पड़ी टेबल सेट करने लगा जहां मेरी नजर पेपर वेट के नीचे रखे राइटिंग नोट पर पड़ी!ये क्या है और किसने रखा सोचते हुए मैंने उत्सुकता वश उसे उठा कर पढ़ा।जिस पर लिखा था

"प्रशान्त जी, यूँ टेबल पर सिर रखकर नही सोना चाहिए,गर्दन और कंधे अकड़ जाते हैं, इसीलिए जगाने के लिए माफी ☺️" ये देख मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गयी और मन ही मन सोचा 'ये तुम ही हो अप्पू'।उसका ये अंदाज मुझे भा गया।उस नोट में उसकी खुशबू और उसका स्पर्श था और वो पहला अनोखा तरीका था उसका मुझसे बात करने का।मैंने वो राइटिंग नोट अपने कबर्ड में रखे एक छोटे से डिब्बे में सम्हाल कर रख लिया जिसमे मैं अपनी सारी अनमोल यादें रखता था।मैं मुस्कुराते हुए बेड पर जाकर लेट गया।मन में उसका ख्याल घूमने लगा 'इसका अर्थ है अब जाकर अप्पू तुम्हारा दिमाग शांत हो पाया है।कल से कितना ज्यादा परेशान थी तुम।मैं तो एक पल को डर ही गया था कि कही तुम पर इस घटना का ज्यादा असर न पड़ जाये।मैं एक बार तो देख ही लूं तुम अब क्या कर रही हो।'
सोचते हुए मैं उठा और टेबल से वो नोट बुक उठा कर अपनी जेब में रखी।परम की ओर एक नजर मारी जो मेरे उठते ही पूरे बेड पर घूमते हुए लुढ़क रहा है।उसकी नींद न खराब हो इसीलिए चुपके से कमरे से बाहर निकल आया और दरवाजा हल्का सा बन्द कर दिया।हॉल में मद्धम रोशनी जल रही है लेकिन क्यों सोचते हुए मैंने उस तरफ नजर डाली तो मेरी नजर बालकनी में खड़ी अर्पिता पर पड़ी जो तारो को देख रही थी।वो बीच बीच में अपने हाथो से अपनी आंखों को पोंछ लेती थी और फिर खड़ी हो जाती।उस पल मुझे एहसास हुआ कि वो यूँही अपना दर्द किसी के साथ बांटने वालो में से नही है मुझे इस बार की तरह खुद से महसूस करना होगा खुद से समझना होगा।अक्टूबर के मध्य में रात के लगभग ढाई बजे वो तारो को बिन किसी गर्म कपड़े के निहार रही है उसे बीच बीच में सर्दी का एहसास हुआ तो उसने हाथो को बांध लिया लेकिन वहां से हटी नही।उसे यूँ अकेले अकेले दर्द में देख भावुक मैं भी हो गया था।लेकिन जिस दर्द से वो गुजर रही थी उससे यूँ चुटकी बजाते हुए निकलना सम्भव थोड़े ही था।उसे देख आगे बढ़ कर मैं उसके पास पहुंचा।मैंने अपनी जेब से वही छोटी सी नोटबुक निकाली और उस पर कुछ लिख कर वो नोट बालकनी में टंगे फूलो के पौधों के तार में फंसा बिन उसे बताये वहाँ से वापस चला आया।हॉल से कुछ इधर आकर मैंने अपने जेब मे रखा एक सिक्का अर्पिता की तरफ उछाला जो ठीक उसी गमले के पास जाकर गिरता है।सिक्के की खनक से अर्पिता ने पीछे मुड़ कर देखा तो उसकी नजर मेरे द्वारा रखे गये उसी नोट पर पड़ी।वो आगे बढ़ी और उसे उठा कर पढ़ने लगी।

"जगाने के लिए शुक्रिया अर्पिता!लेकिन अक्टूबर के मध्य में बिन किसी गर्म कपड़ो के बालकनी में खड़े रहना स्वास्थ्य के लिये थोड़ा सा हानिकारक हो सकता है।बालकनी से थोड़ा आगे कपड़े सुखाने वाला स्टैंड है वहां जाओ और श्रुति की शॉल उठा कर ओढ़ कर आराम से खड़ी होकर तारो को निहारो ☺️।"

उसे पढ़ कर मेरी अर्पिता के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी।वो वहां से आगे बढ़ी और शॉल ले उसे ओढ़ कर वापस बालकनी में चली आयी।मैंने हॉल में बैठे हुए उसे देखा तो मैं मन ही मन बोला 'परेशान हो लेकिन नासमझ नही'।मैं उठकर अपने कमरे में चला आया और जाकर बेड पर लुढ़क गया।

मेरी आंख सीधे सुबह ही जाकर खुली।वो सुबह बाकी सुबह से ज्यादा खूबसूरत बन गई थी मेरी।मैं उठा ही था मेरे कान में बहुत हौले हौले अर्पिता के स्वर पड़ रहे थे।वो कुछ गुनगुना रही थी।मैंने बाहर आकर दरवाजे से झांका तो पाया वो मेरे ठाकुर जी के सामने नम आंखों से ईश वन्दना कर रही थी।' निश्चित रूप से वो ठाकुर जी की वन्दना नही थी लेकिन ईश वन्दना थी।जो कुछ यूँ थी -
'हर देश में तू हर वेश में तू तेरे नाम अनेक तू एक ही है।'

मैं मुस्कुराया और वापस कमरे में चला आया।वापस आकर मैंने अपने रूटीन के सारे कार्य किये और बाहर चला आया।

कुछ ही देर में श्रुति भी आ गयी।
'गुड मॉर्निंग भाई!'श्रुति बोली।मैंने एक नजर उसे देख गुड मॉर्निंग कहते हुए सवाल किया, " अर्पिता कैसी है अब?"
जिसका जवाब अर्पिता ने आते हुए दिया 'हम अब ठीक है प्रशान्त जी।' उसके मुंह से अपना नाम सुन मुझे बहुत अच्छा लगा लेकिन उसे जताया नही। मैं उठ कर रसोई में चला आया।

अर्पिता भी वहीं चली आई।हम दोनो को नाश्ता तैयार करते देख उसने हैरानी से हमारी ओर देखा।मेरी नजरे उसके चेहरे पर ही टिकी थी।ये अलग बात है कि इसका पता किसी को नही था।मैंने देखा वो कुछ कहना चाहती है लेकिन शुरू कैसे करे समझ ही नही पा रही है।

उसके चेहरे पर उलझनों के भाव देख मैं कार्य करते हुए उसके पास आया और धीरे बोला 'अगर कहने में परेशानी हो रही है तो कल रात वाला तरीका अपना सकती हो।'मैं वापस पीछे हट गया और उसकी ओर देखा।उसने हौले से हां में गर्दन हिलाई और वहां से चली गयी।कुछ मिनट गुजरने पर भी जब वो वापस नही आई तो मुझे उसकी चिंता हुई मैंने परम से कहा, 'छोटे तुम कुछ देर सम्हालो, मैं अभी आया' कह मैं भी बाहर आ गया।बाहर आते हुए मेरी नजर श्रुति के कमरे के खुले दरवाजे पर पड़ी मैं समझ गया वो अंदर होगी मैं वहीं आ खड़ा हो गया।

वो श्रुति के कमरे में कुछ ढूंढ रही थी 'शायद नोटबुक' मैंने मन में कहा।कुछ देर ढूंढने के बाद वो उसे मिली नही तो बाहर आने के लिए मुड़ी।उसे देख मैं एक ओर हट हॉल में आकर बैठ गया।वो बाहर चली आई उसने मुझे देखा नही था।वो हॉल में खड़े हो बड़बड़ाते हुए बोली 'अब हम अपने मन की बात प्रशान्त जी तक पहुंचाएंगे कैसे? हमे बहुत सी बातें करनी है उनसे।जानना है कल हमने बेहोशी में कुछ उल्टी सीधी हरकते तो नही की।कल जो भी बिहेव किया हमने उसके लिए हमे सॉरी कहना है और उनके व्यवहार के लिए थैंक्यू भी कहना है।और फिर हमें यहां से जाना भी है...!'

'जाना!' इस शब्द ने मुझे कल्पनाओ की खुशी के समंदर से लाकर हकीकत में पटक दिया।

'कहाँ जाओगी?'मैंने बैचेनी से उससे पूछा।
वो हम..कहते हुए रुक गयी।मैं समझ गया उसे अपनी बात कहने में मुझसे झिझक हो रही है।वो कश्मकश में है उसे मुझसे (जो कि उसके लिए अजनबी सा ही है)अपने मन की बात कहनी चाहिए या नही।उसकी खामोशी पढ़ मैं उससे बोला अप्पू यहाँ सब तुम्हारे अपने हैं।तुम अपने मन की बात कह सकती हो।

'हां अप्पू बताओ न क्या बात है?भाई सही कह रहे हैं तुम्हे जो कहना है वो बेझिझक कह सकती हो।' श्रुति ने आते हुए हॉल में सोफे पर बैठते हुए कहा।श्रुति को सुन मैंने मन में ही ठाकुर जी को धन्यवाद दिया।और बोला मुझसे न यही श्रुति से तो कहोगी।

तब तक परम भी वहां आ गया और वो भी वही सोफे पर बैठ गया।हम तीनो उसके बोलने का इंतजार करने लगे।अर्पिता ने हम तीनो की ओर देखा और एक गहरी सांस लेकर बोलना शुरू किया-

'वो हमें आप सबसे एक रिक्वेस्ट करनी है हमारे बारे में किरण,मौसा जी,आरव, दादी किसी से कोई जिक्र मत कीजियेगा।हम बहने एक दूसरे के बहुत करीब है और अगर किरण को पता लगा कि हम ठीक है तो वो हमें हर हाल में अपने पास बुला लेगी।लेकिन अभी निजी कारणों से हम वहां नही जा सकते।हमारे रिश्तेदारो की भी लंबी फेहरिस्त है लेकिन जरूरत के समय सब मतलब से ही पूछते हैं।भाई वो...' कह वो रुक गयी मैंने उसकी खामोशी सुन जान लिया 'उसके भाई से उसका नाता कुछ खास नही है।' अगले ही पल वो आगे बोली 'बस किरण और मौसा जी के सामने हमारे बारे में कोई चर्चा नही करनी है।उन लोगो के लिए हम जैसे है वैसे ही रहने दे।हमारा आपसे यही अनुरोध है।' कहते हुए अर्पिता चुप हो गयी वो मुड़ी और उसने अपने हाथ आंखों के पास ले जाकर पीछे कर लिए।मैं उसे जानना चाहता था,समझना चाहता था इसीलिए उसकी हर छोटी से छोटी बात को नोटिस करता था मै जान गया वो 'भावुक है दादी की बातें उसके मन में गूंज रही है जिन्हें उसके मन से निकालना जरूरी है।' ये देख मैंने अपनी जेब से नोट बुक निकाली और उस पर कुछ शब्द लिखे , " टेबल के पास ड्रॉअर में कुछ पैसे पड़े है उन्हें उठाओ और परिवर्तन चौक के पास जो पार्क है वहां आकर मिलो।" मैं वो लेकर अर्पिता के पास गया और उससे बोला, 'ठीक है जैसा तुम्हे ठीक लगे हम सब तुम्हारे साथ है क्यों श्रुति,परम!' कहते हुए मैंने पीछे मुड़ देखा और चुपके से अर्पिता के हाथ मे वो नोट पकड़ा वापस पीछे चला आया।

'हां भाई' दोनो ने कहा।वहीं उसने सवालिया नजरो से मेरी ओर देखा।मैंने सोफे पर बैठते हुए आँखों से उसे पढ़ने का इशारा किया और अपना फोन उठा कर चलाने लगा।

'धन्यवाद' कहते हुए उसने अपने हाथ जोड़े तो श्रुति उसके पास जाकर बोली 'पगली हो दोस्ती का मतलब भी तो तुमने ही सिखाया है।तो मैं भी वही कर रही हूं जो तुम करती हो।सो नो सॉरी और नो थैंक्स ओके।'
'ओके' कह अर्पिता हल्का सा हंस देती है।उसे हंसता हुआ देख मेरे मन को सुकून मिला तो वहीं श्रुति बोली 'गुड अब अगर कॉलेज चलना चाहो तो चलो और रेस्ट करना चाहो तो रेस्ट कर लो।मैं तब तक नोट्स देख लेती हूं।'

'हम आज नही आएंगे श्रुति' वो कुछ सोचते हुए बोली
'ओके ठीक है' कह श्रुति अंदर चली गयी।मैं उसे प्राइवेसी देने के लिए परम के साथ उठकर कमरे में चला आया।आज मैं जिम नही गया था।सो समय था मेरे पास।कुछ देर बाद ऑफिस के लिए तैयार हो मैं श्रुति से कॉलेज जाने का बोलने के लिए चला आया।दरवाजे पर आकर मेरी नजर खुद में उलझी अर्पिता पर पड़ी।उसकी उलझन समझ मैं श्रुति से बोला 'श्रुति तुम इतनी व्यस्त हो गयी कि ये भी नही ध्यान दी कि कोई तुम्हारे पास खड़ा है।' उसका ध्यान अपनी ओर करने के लिए बोल मैंने अपना फोन निकाला और श्रुति को संदेश लिख कर भेज दिया, 'श्रुति अपनी दोस्त को ये एहसास मत दिलाओ की वो यहां गेस्ट है।'

श्रुति मेरी ओर देख बोली 'वो भाई बस ऐसे ही।थोड़ा गहराई में चली गयी थी।' उसे मेरी तरफ देख मैंने श्रुति को मोबाइल देखने का इशारा कर किया।हम्म कह श्रुति मोबाइल उठा कर देखती है तो उसने संदेश पढ़ 'सॉरी' का रिप्लाय किया और अर्पिता से बोली 'अप्पू, अब से तुम्हे हमारे साथ ही रहना है सो ये रूम अब तुम्हारा भी है और इस कमरे की हर चीज भी तुम्हारी है।कोई औपचारिकता की जरूरत नही।जो मन हो वो करो और जो मन हो वो पहनो।जैसे मन हो वैसे रहो।कोई बंधन नही है ओके।'

श्रुति की बात से अर्पिता के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गयी।जिसे देख मैं श्रुति से बोला 'मैं बीस मिनट बाद निकलूंगा' और तुम भी रेडी हो कर चली आना।ओके!' बोलकर मैं वहां से चला आया।मन ही मन सोच रहा था बस वो समझ जाये कि मैंने उससे भी बोला है।
कुछ देर बाद श्रुति और अर्पिता दोनो बाहर चली आई।मैंने अर्पिता की ओर देखा तो उसने मेरी खामोशी में छिपे सवाल को समझ छुपके से अपनी पलके झपकाई जिसे देख मैं नीचे चला आया।आते हुए मेरी नजर मेरी मकान मालकिन पर पड़ी उनके जासूसी स्वभाव से परिचित होने के कारण मैं श्रुति से बोला, 'श्रुति,जाकर आंटी जी को अपनी दोस्त के बारे में इतना कहना मेरी दोस्त यही रुकेगी।' मेरे कहने पर श्रुति मकान मालकिन को अर्पिता के बारे में बोल कर चली आई।मैं श्रुति को लेकर उसके कॉलेज निकल गया।उसे कॉलेज ड्रॉप किया और वापस परिवर्तन चौक के लिए निकल आया।बाइक पार्क करते हुए मेरी नजर अर्पिता को खोजने लगी जो मुझसे कुछ दूर वहीं एक जगह खड़ी हो मेरी ओर ही देख रही थी।उसे देख मेरी नजरे एक बार फिर उस पर ठहर गयी।मैं पैदल चलकर उसके पास चला आया और आकर उसके पास बैठते हुए बोला-

'तुम घर पर कुछ कहना चाहती थी जो शायद सबकी वजह से कह नही पाई।मैंने तुम्हें यहां इसीलिए बुलाया है अगर कोई बात है जो तुम्हे परेशान कर रही है तो तुम बेझिझक मुझसे बोल सकती हो।मैं पूरी कोशिश करूँगा तुम्हारी परेशानी दूर करने की।मेरी बात सुन उसने अवाक हो मेरी ओर देखा।मैं बस चुपचाप उसे समझने की कोशिश करने लगा।उसे सोच से घिरा देख मैं उससे बोला, 'जहां तक मैं तुम्हे समझ पाया हूँ तुम शायद इस बात को लेकर चिंतित हो कि हम इन सब के साथ ऐसे कैसे रह ले दोस्ती अलग है और किसी के साथ रहना अलग।हम यूँही किसी का उपकार नही ले सकते।हमे अपने माँ पापा को भी ढूंढना है,उनके बारे में भी पता लगाना है।श्रुति ने तो कह दिया कि तुम अपना ही रूम समझ के रहो।लेकिन हम यहां यूँही नही रुक सकते।' ये सब सोच रही हो ये तुम्हारे मन में चल रहा है तो मैं इतना कहूंगा अर्पिता हम लोग तुम पर कोई उपकार नही कर रहे है।अगर तुम कहीं और अकेली रहोगी एक नये सिरे से शुरुआत करोगी तो क्या ये इतना आसान होगा।बात तुम्हारे स्वाभिमान की है तुम्हारा स्वभाव है मेरी ही तरह अपने कार्य खुद से करना स्वयम सिद्धा, आत्मनिर्भर बनना।तो इसके लिए तुम्हे कहीं और रहने की कोई विशेष जरूरत तो नही है।ये कार्य तो तुम यहां हम सबके साथ ही रहकर कर सकती हो।अच्छा होगा कि तुम यहीं हम सब के साथ साझा किराया देकर रहो।कहीं और रहोगी तो अकेली रहोगी न कोई बात करने वाला होगा और न ही कोई हाल चाल पूछने वाला होगा।तो जब रेंट पर रहना ही है तो हमारे साथ रहने में क्या समस्या है।इस तरह तुम्हारे भी मन की पूरी होगी और मुझे भी सुकून रहेगा कि तुम कहीं दूर गैरो के पास नही हो बल्कि अपनो के ही पास हो।' कह मैं चुप हो गया।और उसके बोलने का इंतजार करने लगा।

कुछ देर सोचने के बाद वो बोली ठीक है हमे मंजूर है।फिर तो हमे कोई समस्या नही है।उसकी बात सुन मेरा मन खुशी से भर गया और मैं मन ही मन बोला, 'शुक्र है मानी तो सही।' उसे थैंक्स कहने के लिए मैंने उसकी ओर देखा तो पाया कि वो अभी भी उलझन में ही थी।वो आगे कुछ और भी कहना चाह रही थी।मैं उससे बोला, 'यही कहना चाह रही हो न कि तुम यहां रहकर अपने मां पापा को कैसे ढूंढोगी, इसके लिए तुम मेरा विश्वास करो इसमे मैं तुम्हारी पूरी मदद करूँगा!वो जहां भी है बिल्कुल सुरक्षित है बस हम तक पहुंच नही पा रहे हैं।उसकी भी कोई न कोई वजह अवश्य होगी।हम हमारी कोशिशो से उस वजह का पता लगा कर उन तक अवश्य पहुंच जाएंगे।तुम बस परेशान मत हो और सकारात्मक सोच रख अपनी कोशिशें यहां हम सबके साथ रहकर जारी रखो।'कहते हुए मैंने उसकी ओर देखा जो भरे नैनो से मेरी ही ओर देख रही थी।जिसे देख मैं मन ही मन बोला 'बहुत ही भावुक हो तुम'।वो धीरे धीरे मुझसे बोली 'धन्यवाद प्रशांत जी हमारी भावनाओ को समझने के लिये।'
मैं उससे बोला 'धन्यवाद क्यों अर्पिता तुमसे तो मेरे कई रिश्ते हैं इसीलिए तो ये कर रहा हूँ,सबसे पहला रिश्ता तुम मेरी नटखट श्रुति की दोस्त हो,दूसरा नाता मेरे कजिन भाई परम की होने वाली पत्नी किरन की कजिन हो,तीसरा नाता इंसानियत का तो थैंक्यू कैसा।चुप हो मन ही मन बोला "एक रिश्ता और है मेरा तुमसे, तुम मेरा पहला प्यार हो अर्पिता और मैं नही चाहता तुम मेरे होते हुए यूँ हर कदम पर संघर्ष वाली जिंदगी जियो।जितना होगा मुझसे उतना तुम्हारा साथ दूंगा जितनी परेशानियां तकलीफे मैं दूर कर सकता हूँ उतनी करूँगा।" मुझे सुन वो बस हल्का सा मुस्कुरा दी।जिसे देख मैं बोला 'अब कोई समस्या नही है सब प्रॉब्लम सॉल्व हो चुकी है तुम्हारी।' 'हम्म' उसने कहा।

ठीक है तो अब तुम घर जाओ मैं ऑफिस निकलता हूँ और शाम को मिलता हूँ तुमसे ठीक है।

'ठीक है उसने कहा' और वो वहां से रूम के लिए निकल गयी और मैं मेरे ऑफिस के लिए।।

क्रमशः....