मेरी पगली...मेरी हमसफ़र - 2 Apoorva Singh द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मेरी पगली...मेरी हमसफ़र - 2

प्रीत ने डायरी वाली पॉलीथिन उठाई और उसे खोल कर उसमे रखी सभी चीजे निकाली।एक एक चीज उठाकर वो देखने लगा।एक घड़ी जो अच्छी कम्पनी की प्रतीत हो रही थी। 'आज भी इसकी चमक कतई कम नही है' प्रीत ने खुद से कहा और उसे अपनी सीधे हाथ की कलाई में पहन लिया।उसकी नजर चांदी की हल्के घुंघरू वाली एक पतली सी पायल पर पड़ी।'मम्मा की पायल' कहते हुए प्रीत ने नम आंखों से उसे स्पर्श किया और उसे अपनी कलाई में लपेट लिया।'इनके स्पर्श से तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरे मम्मा पापा मेरे पास ही हैं।कितना सुखद और कितना अनोखा एहसास है'।प्रीत ने सामने टेबल पर रखी डायरी की ओर देखा।अपने पिता के एहसासों को महसूस करते हुए प्रीत डायरी को स्पर्श करता है और धीरे धीरे उसे खोलता है।जिसके पहले पृष्ठ पर बड़े सुन्दर शब्दो में लिखा था -


(मेरी पगली)मेरे सफर की हमसफ़र...)


पढ़ कर प्रीत मन ही मन बोला लव यू पापा.!अब मैं आपके जरिये अपनी मम्मा के बारे में अवश्य जान लूंगा।उसने अपनी आँखे पोछी और डायरी पढ़ना शुरू किया।


डायरी तो मैं पहले भी लिखता था!लेकिन तब मैं सिर्फ अपने मन में आये ख्यालातों को लिखता था।जिनमे शामिल होता था कोई अजनबी चेहरा, उसकी बातें, उसकी कोई पहचान, मेरे मन के कौने में दबे वो एहसास जिन्हें मैं सिर्फ कभी कभी ही बाहर आने देता था।मैं यानी प्रशांत..!सरनेम लगा कर नाम मुझे कुछ खास नही लगता इसीलिए कुछ विशेष मौको पर ही मैं अपना सरनेम इस्तेमाल करता हूँ।वैसे तो मेरा नाम है प्रशांत मिश्रा!फिर भी मेरी एक पहचान और है 'शान' के रूप में।जो सबके लिए राज है।यूपी के बांदा से हूँ!स्वभाव से मस्तमौला होने के साथ गंभीर भी हूँ।बातें करना मुझे कम पसंद है।लेकिन कोई है जो जब भी मेरे सामने आती है तो मैं कुछ न बोलकर भी बहुत कुछ कह जाता हूँ और वो सब कुछ समझ जाती है।वो है मेरी पगली मेरी पत्नी..अर्पिता।अर्पिता जैसा नाम वैसा स्वभाव.!इनके बारे में मैं आगे लिखूंगा..अभी तो बात करते है मेरे जीवन के सफर की।


आज मैंने डायरी दोबारा अपने हाथो में थामी है क्योंकि अब लिखने को बहुत कुछ है।मेरे जीवन के सफर में मेरे हमसफ़र का अस्तित्व, उससे जुड़े अहसास..!प्रीत तानी की शरारते, उनकी बातें, मां पापा बड़ी मां चित्रा सबकी मेरे लिए फिकर, बहुत कुछ है लिखने को..!हालांकि इन सब एहसासों को मैं शब्दो में ढालना नही चाहता था।लेकिन ये डायरी लेखन का सुझाव भी मुझे अर्पिता से ही मिला।या यूँ कहो उसकी ही फरमाइश है।अब मेरी पगली ने मुझसे कुछ मांगा और शान ने उसे पूरा न किया।ये तो असम्भव सा है .....!खैर बातें बहुत हुई अब शुरू करता हूँ मेरे सफर की हमसफ़र के साथ मेरा सफर..!कुछ अनछुए किस्से उमड़ते जज्बात के साथ खिले खिले एहसास..!


करीब नौ साल पहले लखनऊ के एक कॉलेज से संगीत विषय में पोस्ट ग्रेजुएशन फर्स्ट क्लास पास करने के बाद,अपने पापा और ताऊजी के कहने पर मैं लखनऊ में ही रहकर पापा के बिजनिस को सम्हालने लगा।ये कार्य तो पार्ट टाइम के लिए मैं प्रेम भाई की शादी से करता आ रहा था लेकिन परा स्नातक के बाद फुल टाइम ही सम्हालने लगा।तब मैं श्रुति और परम के साथ वहीं लखनऊ के ही इंदिरा नगर में रहा करता था।वहीं मेरे कॉलेज फ़्रेंड रवीश ने अपनी संगीत अकैडमी खोल रखी थी जिसे मैंने पार्ट टाइम अपनी खुशी के लिए जॉइन कर लिया था।गिटार से खेलना मेरा शौक था।मैं अक्सर काफी लंबे समय तक गिटार ट्यून करता रहता था।इसके साथ समय कब फुर्र हो जाता मुझे पता ही नही चलता था।नित नयी धुनों को ट्यून करते हुए मन में कई ख्याल बनते बिगड़ते रहते ।कई कई भाव आते जाते रहते।इन्ही भावो को अपने जेहन से उतार डायरी,या नोट पेन की मदद से अपने सोशल अकाउंट पर सब के साथ बांटता रहता।संगीत से जुड़ी सारी बातें मुझे बेहद पसंद थी।फिर चाहे वो नृत्य हो गायन हो या फिर वादन!बस एक यही शौक था जिसके लिये मुझे अक्सर अपनी मां से डांट खानी पड़ती थी और मेरी बड़ी मां मुझे उनकी डांट से बचाने की हर संभव कोशिश किया करती।


मेरी फॅमिली काफी बड़ी है।जिसमे दोनो बड़ी मां, दोनो ताऊजी,मां पापा हम चार भाई, सबसे बड़े सुमित भाई उनसे छोटे प्रेम भाई फिर मैं और सबसे छोटा हमारे छोटे घर का लाडला और सबसे नटखट परम।कुछ सदस्य और हैं जिनमे सुमित भाई की पत्नी स्नेहा भाभी और इनका बच्चा आर्य,प्रेम की पत्नी राधिका और राधिका भाभी की दोस्त चित्रा और उनकी बेटी त्रिशा।ये सभी मेरे परिवार के ही सदस्य हैं।कहने को बड़ा परिवार है लेकिन सभी अलग अलग रहते हैं।हमारे पुश्तैनी घर में तो अब केवल पापा ताऊजी ताईजी और मां यही सब रहते हैं। मेरे ऑफिस सम्हालने के कारण उनका भी लखनऊ आना जाना कम हो गया।प्रेम भाई सुमित भाई दोनो ने खुद का घर ले लिया तो चारो चित्रा त्रिशा और आर्य के साथ वहीं रहते है।


मैं परम और श्रुति लखनऊ के एक टू रूम फ्लोर में आराम से रहते।श्रुति ने परा स्नातक के लिए अप्लाई किया था और परम एक मोबाइल सॉफ्टवेयर ऑफिसर बन चुका था सो वो अपने कार्य में व्यस्त ही रहता।सोमवार से शनिवार तक सभी मशीनी रूटीन फॉलो करते थे।वहीं रविवार का दिन तो कार्य में ही निकल जाता।मैं बोलता कम था अक्सर गम्भीर रहता था।इसीलिए श्रुति और परम दोनो ही मुझसे खुलकर अपनी बाते शेयर नही करते।मेरी दो विशेष आदते भी थी।पहली ये कि सप्ताह में एक दिन मैं लाइब्रेरी जरूर जाता।वहां से कुछ किताबे इश्यू कराता और कुछ वापस लौटा देता और दूसरी ग़ज़लों का शौक भी रखता।लखनऊ में अगर गजल के नाम कोई शाम होती तो मैं उसमे अपना नाम दर्ज कराने से पीछे नही हटता।


ऐसे ही एक दिन मैं कुछ किताबे इश्यू कराने लाइब्रेरी गया।जहां किताबे चुन कर मैं वही एक जगह पढ़ने बैठ गया।कॉलेज में दाखिले बंद हो चुके थे।इसिलिए लाइब्रेरी में भी पढ़ाकू छात्र किताबो से इश्क़ करते दिखने लगे।मैं भी उन्ही में शामिल हो संगीत जगत से संबंधित एक किताब पढ़ रहा था जो भारत के मशहूर गिटारिस्ट के बारे में थी।मेरे हाथ वहीं टेबल पर थे और मेरा लाइब्रेरी कार्ड उसी टेबल पर एक ओर रखा था।बरसात के मौसम में भी गर्मी अच्छी खासी थी।जिस कारण लाइब्रेरी में अभी भी पंखो का उपयोग किया जा रहा था।मैं वहीं बैठ कर पढ़ रहा था कि तभी मुझे मेरे हाथो पर बेहद हल्का लेकिन सुखद एहसास महसूस हुआ।मैंने किताब से नजरे उठा कर हाथ की ओर देखा।वो किसी का दुपट्टा था जो हवा के कारण उड़ कर मेरे हाथ पर आ गिरा था।दो घड़ी तो मैं यूँही उस एहसास को समझ रहा था।न जाने कैसा विचित्र एहसास था जो पहले कभी नही हुआ था मन में एक अलग ही खुशी की लहर उठने लगी।फिर जब लाइब्रेरी में खुद के होने का एहसास हुआ तो तुरंत ही उस एहसास को हृदय में दबा मैंने मेरी सीट के पास बैठी एक लड़की को देख कर कहा, 'सुनो ...आपका दुपट्टा'।पहली बार में तो उसने कुछ सुना ही नही।ये देख मेरे मन में ख्याल आया न जाने क्यों ये लड़कियां खुद पर अटेंशन पाने के लिए इतनी मिन्नते करवाती है।बात अगर एक नारी के मान की रक्षा करने वाले वस्त्र की नही होती तो मैं खुद से हटा कर चला जाता लेकिन नही उसके कारण बंधा बैठा हूँ।एक बार फिर मैंने पिछली से हल्की तेज आवाज में उससे कहा, 'सुनो आपका दुपट्टा'।इस बार उसने हड़बड़ा कर मेरी ओर देखा।उसकी हल्की बड़ी कजरारी आंखों में कोई घबराहट नही बल्कि सवाल था जिनका जवाब देने में मुझे समय लग गया।कुछ तो था उन आंखों में जिनसे मैं एक पल तो खुद को उसकी ओर देखने से रोक ही नही पाया।न ही कोई बैचेनी, न खालीपन,न ही कुछ पाने की चाह,ये कुछ भी नही। उन दो आंखों में इन सबसे भी इतर मुझे कुछ अलग ही नजर आया।लेकिन वो क्या था ये समझ ही नही आया।अगले ही पल मैंने शिष्टाचार वश खुद को उसे ताकने से रोका और उससे दुपट्टे की ओर इशारा किया!उसने हड़बड़ाते हुए जल्दी जल्दी उसे सम्हाला और मुड़ कर पढ़ाई करने लगी।मैं भी बिन कुछ कहे वापस से पढ़ने लगा।कुछ देर बाद मैंने घड़ी की ओर देखा और समय देख किताबे उठा कर वापस ऑफिस के लिए निकल गया।रास्ते में बाइक ड्राइव करते हुए उसकी कजरारी आँखे मेरी आंखों के सामने आ गयी और मैंने सड़क पर बाइक राइड करते हुए ही ब्रेक लगा दिये।ऐसा मेरे साथ पहली बार हो रहा था उस पल समझ ही नही आया क्या था वो।मैंने दोबारा बाइक चालू की और ऑफिस पहुंच गया।ऑफिस पहुंच मैंने बेग वहीं एक ओर रखा और लाइब्रेरी कार्ड का टटोला तो पता चला कि वो तो वहीं कॉलेज कैम्पस में ही रह गया था।'दूसरा बनवा लूंगा'! ये सोच कुछ ध्यान नही दिया।और मैं सब भूल अपने ऑफिस के प्रोजेक्ट से जुड़ गया।लगभग आधे घण्टे बाद मेरा प्रोजेक्ट खत्म हो गया।तो मैं आगे का कार्य चित्रा और नीलम(मेरे ऑफिस मे कार्य करने वाली)दोनो को समझा कर त्रिशा और अपने लिए शॉपिंग करने के लिए मॉल निकल आया।


मॉल के बाहर मैंने बाइक पार्क की और वहां से अंदर चला आया।वो लखनऊ का प्रसिद्ध मॉल था।जहां मैंने त्रिशा के लिए कुछ आर्ट कलर,एक चॉकलेट और एक सुन्दर सी ड्रेस खरीदी।बच्ची बहुत प्यारी जो थी मुझे।बिल्कुल किसी एंजेल की तरह।कहने को दो साल से कुछ ऊपर की थी उस समय।लेकिन बाते बहुत करती थी।मै वहां शॉपिंग कर ही रहा था तभी मेरे पास ऑफिस से चित्रा का फोन आ गया!!फोन पर उसने बताया कि ऑफिस से नये प्रोजेक्ट की फाइल लीक हो चुकी थी।चित्रा की बात सुनकर मैं थोड़ा सा हड़बड़ा गया।एवं अभी आने का कह मैं फोन रख वहां से ऑफिस के लिए निकलने लगा।हाथो में कुछ बैग्स पकड़ पॉकेट में फोन रख मै जल्दी जल्दी कदम बढ़ाने लगा।जल्दबाजी के के कारण सामने कौन है इस बात पर ध्यान ही नही दे पाया और सामने चल रही एक लड़की से टकरा गया।फिर वही अजनबी एहसास मुझे हुआ।और मुझे सुनाई दिये कुछ शब्द,"ओ हेल्लो,किस बात की इतनी जल्दी है" इन शब्दो ने मुझे एक बार पीछे मुड़ने को मजबूर कर दिया।पीछे मुड़ कर देखा तो फिर से उन्ही आंखों में देख एक पल को तो ठिठक गया।लेकिन चित्रा की बात याद आते ही अगले ही पल उसे सॉरी बोल वहां से निकल आया।न जाने क्यों उसका बार बार टकराना मुझे एक अलग लेकिन सुखद एहसास करा रहा था।


मैं वहां से अपने ऑफिस पहुंचा!और चित्रा के पास जाकर फाइल के बारे में चर्चा करने लगा।चित्रा ने बताया," फाइल नीलम के पास से लीक हुई है।और कमाल की बात ये है कि हमारी सारी डिटेल हमारे प्रतिद्वंदी मिस्टर तलवार के पास है"।मन में तुरंत ख्याल आया मिस्टर तलवार के पास नये प्रोजेक्ट की डिटेल नीलम के जरिये तो पहुंचने से रही।नीलम एक जिम्मेदार और आत्मविश्वास से भरी लड़की है।'मैं देखता हूँ'मैंने कहा और चित्रा को जाने को बोल दिया।मैने वही केबिन में बैठ कर नीलम को बुलवाया।नीलम के चेहरे पर कोई डर नही था।बल्कि खुशी के साथ आत्मविश्वास से झलकती आँखे देख मैं इतना तो समझ गया कि नीलम ने कुछ नही किया।उसे शायद इसके बारे में जानकारी भी नही कि उसके पास से नये प्रोजेक्ट की डिटेल लीक हो चुकी है।मैंने नीलम से पूछा, 'आधे घण्टे के अंदर तुमने कितने प्रोजेक्ट डिटेल मेल किये है।नीलम अपने चिर परिचित शालीनता से जवाब दिया 'सर सेवन'।


'ओके नीलम उन सबकी डिटेल मुझे पांच मिनट के अंदर टेक्सट करो'मैंने कहा और लैपी पर पिछले आधे घण्टे की सारी रिकॉर्डिंग चेक करने लगा।जहां मुझे पता चला कि प्रोजेक्ट डिटेल नीलम के ही हाथो गयी लेकिन उसे स्मार्टली ट्रिक कर अपना कार्य करवाया था दूसरे नये एम्प्लोयी युग ने।युग नीलम के केबिन में आया उसके हाथ में दो फाइल थी और दोनो ही लाल रंग की थी।उसने उन फाइल को पुरानी फाइलों के ऊपर रखा और स्मार्टली उन्हें एक्सचेंज कर लिया।फिर नीलम के सिस्टम का यूज कर डिटेल मेल की और वहां से बाहर चला आया।मुझे मेरे ऑफिस के उस भेदी का पता चल चुका था जो मेरे साथ रहकर मेरी ही महत्वपूर्ण जानकारी मेरे प्रतिद्वंदी मिस्टर तलवार को भेज रहा था।सब सच पता चलने पर मैंने उसे अपने ऑफिस में रहने दिया।आखिर मैं तहजीब के शहर लखनऊ का वासी था जहां अगर किसी से झगड़ा भी करना है तो लोग अपनी जबान नही छोड़ते।


मैंने युग से कुछ नही कहा बल्कि चित्रा और नीलम को बुला कर उनके साथ एक कॉन्फ्रेंस की।जिसमे मैंने उन्हें युग के बारे में बताया साथ ही उन्हें उससे नॉर्मल बातचीत करते हुए उसके साथ सहज रहने को कहा और आगे कहा 'हमे युग के सामने उन्ही प्रोजेक्ट्स पर चर्चा करनी है जिनके बारे में हमे जानकारी मिस्टर तलवार तक पहुंचानी हो।बाकी हम क्या कर रहे है आगे क्या करना है वो सब हमारे बीच में सीक्रेट रहेगा।कोई कन्फ्यूजन...'!


'नही' दोनो ने कहा!उनके जवाब सुन मैं बोला 'गुड' अब जाओ और अपने कार्य करो।दोनो वहां से चली गई और मैं वापस से रिलेक्स हो अपनी कुर्सी पर बैठ गया।वो कुर्सी जिम्मेदारियों के पहियो से बनी थी जो भी उस पर बैठता उसके पैर उन पहियो की वजह से बंधन में ही महसूस होते।आज का खत्म हुआ कहते हुऐ मैं वहां से उठा और समय देख अपनी अकैडमी के लिए निकल गया।वहां रवीश से मिल क्लास अटैंड कर वापस चला आया।


अगले दिन जिम से वापस आ कर मैं और छोटे दोनो ने खाना तैयार किया और हमेशा की तरह श्रुति को कॉलेज छोड़ने के लिए निकल गया।जहां रास्ते में ट्रैफिक सिग्नल पर मेरी नजर फिर से उन दो आंखों पर ठहर गयी।जो एक गाड़ी में बैठे हुए बैचेनी से शीशे से इधर उधर झांक रही थी। उसने मुझे देखा नही था, लेकिन मेरी नजर बार बार उस पर जा रही थी। न जाने क्यों मुझे उसके चेहरे की वो बैचेनी खीचती हुई लग रही थी।ट्रैफिक सिग्नल ग्रीन हुआ और मैं श्रुती को साथ ले तेजी से निकल गया।कुछ ही देर मे श्रुति को कॉलेज पहुंचा मैं वहां से चला आया।पिछले दो दिनों में उससे ये मेरी तीसरी मुलाकात थी।हर मुलाकात में वो मुझे अपनी ओर ही खींचती हुई लगतीं।इससे पहले ऐसा कभी हुआ नही था मेरे साथ।मन में उसके बारे में जानने की जिज्ञासा बढ़ रही थी लेकिन मैं उसके बारे में कुछ भी तो नही जानता सिवाय उन आंखों के।ऑफिस में काम से फ्री बैठा हुआ मैं उसके ही ख्यालातों में गुम था।क्योंकि स्कूलिंग से लेकर कॉलेज लाइफ पूरी होने तक मुझे ऐसी कोई आँखे नही दिखी जिन्होंने मुझे खुद की ओर खिंचने पर मजबूर किया हो।कॉलेज में मेरी कोई लड़की दोस्त तक नही थी।मैं हमेशा लड़कियों से दूर ही भागता।ऐसा नही था कि लड़कियों ने मुझसे बात करने की कोशिश नही की या मुझसे नजदीकियां बनाने की कोशिशें न की हो कुछ ने कोशिशें भी की।मेनका के जैसे कुछ लड़कियां तो मेरा ध्यान खींचने के लिए आस पास हमेशा दिखती ही रहती लेकिन मेरा मन कभी किसी की ओर भटका ही नही।अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य पर ही अडिग रहा।न जाने क्यों वो कजरारी आँखे मुझे भटका रही थी।मैं अपने ख्यालो में ही डूबा था तभी मेरे पास श्रुति का कॉल आया!उसने मुझे बताया कि उसके कॉलेज में कल 'एक शाम लखनऊ के नाम' से गीत ग़ज़लों की महफ़िल रखी गयी है।सुनकर मन को बड़ी प्रसन्नता हुई।क्यों न हो आखिर गीत,गजलो,शायरी की दुनिया मुझे बेहद अजीज जो थी।मन में तुरंत ख्याल आया क्या उससे मुलाकात होगी?अपने इस ख्याल पर मुझे खुद ही हैरानी हुई और इससे निकलने के लिए मैंने अपना सोशल अकाउंट खोला और उसमे मन को डायवर्ट कर रम गया।


शाम को जब सबसे फ्री हो घर पहुंचा तो मेरी नजर हॉल में फोन पर बात करती श्रुति पर पड़ी जो बड़े मजे से अपनी मां को अपने नये दोस्तो के बारे में बता रही थी।श्रुति बोल रही थी 'मां,मेरी नयी दोस्त है न अर्पिता वो बिल्कुल अलग है,वो बात भी बिल्कुल अलग तरीके से करती है।खुद को मैं की जगह हम कहती है और डरती तो बिल्कुल नही है।उसने आज मुझसे खुद से दोस्ती के लिए भी बोला।मुझे अच्छी लगी तो मैंने दोस्ती कर ली'।उसकी बातें सुन मेरे गभीर चेहरे पर मुस्कान आ गयी और मन में वो नाम गूंजता चला गया जैसे वो नाम वो व्यक्तित्व मैं बहुत पहले से जानता हूँ।अपना सा लगने लगा था वो मुझे।मन ही मन वो नाम मैंने दोहराया अर्पिता.!


हेलमेट रख मैं अपने कमरे में चला गया जहां परम बैठा हुआ मैगजीन पढ़ रहा था।मैंने बिन उसे जताये चेंज किया और हाथ मुंह धुल अपने काम यानी रसोई मे जुट गया।कुछ देर बाद परम भी आ गया और मुझसे बाते करते हुए मदद करने लगा।।श्रुति की बाते खत्म हो चुकी थी सो वोबुआ जी को बाय कह हॉल से ही अपने कमरे में चली गयी।


कार्य से फ्री होकर मैंने अपनी ताईजी यानी बड़ी मां को फोन लगाया और उनसे बात करने लगा।बड़ी मां ने मुझे बताया,'छोटे की शादी के लिए दो एक दिन में लड़की देखने जाना है लखनऊ की है आलमबाग के रहने वाले हैं'।सुनकर 'ओके बड़ी मां हो जायेगा'!मैंने कहा तो वो बोली, 'ये तो मुझे भी पता है हो जायेगा लेकिन सबसे छोटे से भी बोलना है कि उस दिन जल्दी आ जाये फिर न कहे कि मैंने लड़की देख ही नही पाई'।


बड़ी मां की बात सुन मैं बोला,बड़ी मां इसमे इतनी सोचने वाली बात नही।हम दोनो मिलकर परम और किरण की मुलाकात को करा ही देंगे।आखिर हम बड़े किसलिए हैं'।मुझे सुन वो बोलीं 'बस बस जानती हूँ तुम उसके हिमायती जो ठहरे।अब मैं रखती हूँ अपनी मां से बात कर लेना बोल रही थी तुझसे बात करने के लिए'।'मां से' मैंने मरी सी आवाज में पूछा।इसकी भी एक वजह ही थी जब भी मां से बात करता वो कुछ देर तो खूब आराम से बात करती लेकिन फिर घुमा फिरा कर बात शादी पर ही ले आती और मैं न चाहते हुए भी उनकी इस बात को मानसिक टॉर्चर की तरह सहता रहता।ऐसा नही था कि मुझे शादी नाम के प्राणी से डर लगता था !!नही,बस मेरे मेरी हमसफ़र को लेकर कुछ सपने थे,कुछ इच्छाये थी।सबके ही तो होते है तो मेरे भी थे।और अभी उम्र भी कितनी थी 24 का होने वाला था बस!अब मां को कैसे समझाऊं कि मैं क्यों बचता रहता हूँ।सब बातें सोच बड़ी मां की बातें सुन मैं ओके ओके करता रहा और अपनी बात कह उन्होंने फोन रख दिया।।


अगले दिन सारे कार्य करने के बाद शाम को मैं जल्द ही तैयार हो श्रुति के साथ उसके कॉलेज के लिए निकल गया।जहां आगे से तीसरी बेंच पर बैठे हुए मैं उस सुहानी शाम को एन्जॉय करने लगा।


शाम शुरू हो चुकी की दो एक प्रस्तुतियां भी हो चुकी कि तभी मंच पर आने वाली अगली प्रतिभागी पर मेरी नजरे टिक गयी।हल्के नीले रंग में सजी वो कजरारी आंखों वाली लड़की मंच पर खड़ी थी।जिसे देख मेरे मन से एक ही आवाज आई 'आखिर तुम आ गयी'।वो मंच पर आई तो बड़ी खुशी खुशी थी लेकिन सामने देख उसके चेहरे का रंग ही उड़ गया।शायद वो गलती से वहां चली आई थी।उसने पीछे मुड़ कर देखा जहां कोई खड़ा था जिसके केवल हाथ ही मुझे नजर आये वो उसे नीचे देखने का इशारा करते नजर आये।उसने वापस नीचे देखा और फिर सामने देखा।उसके चेहरे पर हल्का तनाव देख मुझे अच्छा नही लगा।मैंने श्रुति की ओर देखा जो हाथो से इशारा करते हुए उसे अपनी प्रस्तुति के लिए प्रोत्साहित कर रही थी।उसने सामने मेरी ओर देखा और कुछ लाइने बोली।


खोए हुए थे हम किताबो की दुनिया में


तभी किसी का हमारी दुनिया में आना हुआ।


कौन था वो अजनबी,जिसके लिए हम अपनी दुनिया ही भूल गए..!


थी सांवली सी सूरत उसकी, उस पर ये नशीली आंखें।


उन आंखों में थे कुछ सपने,कुछ इंतजार और उस इंतजार में भी थी बैचेनी।


उसकी उस बैचेनी ने हमारा चैन चुराया है


हां शायद कोई चुपके चुपके इस दिल में आया है।


पहली बार हुआ है ये हमें एहसास


शायद इसे ही कहते है पहली नज़र का प्यार।


उसके कहे ये शब्द सीधे मेरे मन में उतरते चले!मुझे ऐसा लगा जैसे ये शब्द वो मेरे लिए ही कह रही थी।मन ही मन बहुत खुशी मिली लेकिन किसी को जताया नही।क्योंकि वो खड़ी ही उस जगह थी जहां ये शब्द महज शब्द भी हो सकते है और किसी की भावनाये भी।इसके बाद उसने 'पहली नजर का प्रेम' इस विषय पर बहुत सुन्दर तरीके से अपने विचार रखे।जगजीत सिंहजी की गजल गुनगुनाकर वो वहां से नीचे श्रुति के पास चली आयी।और जाकर कुछ ही दूर अपने दोस्तो के पास बैठ गयी।उसकी आवाज सुन मैंने मन ही मन कहा 'बहुत मीठी आवाज है'।वहीं मुझे पता चला कि श्रुति कल जिस अर्पिता की बात कर रही थी वो वही थी।मैंने हल्का सा उसे देखा और फिर आँखे बन्द कर अपनी गजल गायकी की दुनिया में रम गया।कुछ देर बाद मुझे अपने हाथो पर फिर वही एक पहचाना एहसास हुआ।मैंने अपनी आँखे खोली तो श्रुति की जगह अर्पिता को अपने पास बैठा पाया।वैसे मुझे लड़कियों से चिढ़ होती थी लेकिन उसका वहां मेरे पास होना मुझे रास आ रहा था।


क्रमशः.....


डियर रीडर्स ये कहानी दो भागों में चलेगी।पहले भाग में प्रीत अर्पिता के बारे में जानेगा,समझेगा।इसके लिए ये कहानी एक बार फिर घूमेगी अतीत में लेकिन इस बार नजरिया शान का होगा,उसकी सोच का होगा तो कुछ नये रंग भी मिलेंगे जो पिछली सीरीज में नही थे,कुछ अनजाने किस्से भी सामने आएंगे।।इसके बाद दूसरे भाग में दो नयी कहानियां शुरू होगी प्रीत और तानी के रूप में।।इस बार साथ और लम्बा चलने वाला है..!उम्मीद है हमारा और आपका साथ पहले की तरह खूबसूरती से बना रहेगा...!कोशिश रहेगी कि पार्ट्स जल्दी जल्दी अपलोड हो सके सप्ताह में कम से कम दो या तीन भाग तो अपलोड कर सके..!शुक्रवार से पहले पार्ट पूरा हो गया तो पोस्ट कर दे रहे हैं..स्टे कनेक्टेड..!