इंसानी जिंदगी धरती पर जब अपना पहला कदम, माँ की बाहों से उतर कर रखती है, तो उसकी पहली लड़खड़ाहट उसे ये एहसास करा देती कि आसान नहीं है, जिंदगी का सफर उसके लिए। पर संभलने का संघर्ष उसे ये भी अनुभव करा देता कि कोशिश ही एक ऐसा उपाय है, जिसके द्वारा वो सब कुछ हासिल कर सकता है, अपने शरीर के सभी सामूहिक प्रयास द्वारा। हक़ीक़क्त के दूसरे पहलू पर इस दौरान वो ध्यान नहीं दे पाता कि हर निकटतम सम्बंध, उसका लम्बा साथ नहीं दे सकता, एक दिन उसे अपनी क्षमताओं का विकास स्वयं ही करना पड़ता।
इंसान अपने अकेले होने के अहसास को जब सही ढंग से नहीं समझता तो उसे दुनिया में अपना अस्तित्व कमजोर नजर आने लगता और कुछ विशेष परिस्थितियों में अवसाद का शिकार हो जाता। ये अवसाद ही उसके लिए जहर बन कर उसके जेहन में समा जाता। कुछ नाजुक क्षणों में, वो इस जिंदगी को अपनी नासमझी के कारण स्वयं ही दुश्मन समझ लेता।
समझने की बात है, जीवन में सुख और दुःख दोनों साथ-साथ चलते है। वास्तव में सुख की अनुभूति के लिए दुःख का सार ही सुख का आधार होता है। अस्तित्व की नींव में दुःख को गलत न समझे।हमारी कई गलतफेमियों से तैयार दुःख ही हमें ज्यादा दुःखी करता है, उनका जितना संग्रह कम होगा, सुख का बहाव उतना ही संतोष देगा।
हम जीवन को अगर सुख की अति चाह से दूर रखेंगे तो जीवन की गतिविधियों में हमें सामान्यतः के अंशों पर विशेष ध्यान रखना होगा। इसके लिए जरुरी हो जाता, हम अपने मिले समय का सही उपयोग करे। हम समझ स्थापित करे, जीवन समय का एक उत्पादन है, हम उसके नियमानुसार ही अपने हर कार्य को अंजाम देंगे, तो संतोष से हमारे चेहरे पर एक मुस्कराहट सदा उभरी रहेगी, जिससे साबित होगा, हम एक समर्थ जीवन को जी रहे है। जो इंसान समय के अनुरुप व्यवस्थित हो जाता, हर समस्या का समाधान का अधिकारी हो जाता।
दैनिक जीवन पर जरा गौर करे, तो ये बात सहज समझी जा सकती है, समय और जीवन का चोली-दामन का साथ है। परन्तु, हम इस तथ्य को दिल से मान तो लेते है, पर जीवन के सही चलाने में इसका महत्व कम ही आंकते, जो एक असहनीय और घातक सोच है और उसकी कीमत भी हम भारी चुकाते है।
आज जिस महामारी में जी रहे, उसके लिए बहुत हद तक हम खुद ही जिम्मेदार है। हमारा आलस्य, लापरवाही, बाद में देख लेंगे और हमें कुछ नहीं होगा, जैसी सोच ने इस महामारी को जानलेवा तक बना ही नहीं दिया, बल्कि,ब्लेक फुंगस जैसी डरावनी बीमारियां को हमारी दहलीज पर खड़ा कर दिया है।
आज का दिन हमें डरा, डरा कर जीने को मजबूर करे, ये हमारे जीने के तरीके का परिणाम नहीं, तो क्या है ? हम मेहमान को मेहमान ही रहने दे, उनके जल्दी रुखसत होने का अहसास दे। हमें Martin Ragaway के इस वाक्य पर गौर करना चाहिए, " When guests stay to long, try treating them like members of the family. If they don't leave then, they never will".
✍️ कमल भंसाली