शीर्षक: खुश रहना भी कला है।
हम अपनी चर्चा हमारे देश के एक विद्वान सी. राजगोपालाचारी के इस कथन के साथ शुरु करते है " Without wisdom in the heart, all learning is useless."। सी. राजगोपालचारी भारत में अंग्रेजों द्वारा मनोनीत अंतिम गर्वनर जनरल के साथ साथ एक विद्धवान लेखक, वकील और राजनेता भी थे। उनका उपरोक्त कथन आज के आधुनिक व शिक्षित वातावरण में काफी महत्वपूर्ण, जीवन दृष्टिकोण के प्रति इंगित करता नजर आ रहा है। आज शिक्षा का असर जीवन पर काफी देखा जा सकता है, परन्तु जीवन के प्रति सही चिंतन की कमी के साथ। इसके कई कारण नजर भी आते है, परन्तु सार संक्षेप में यही कहना सही लगता है, हमारे आस पास जीवन जीने के इतने मकसद तैयार हो गये कि हम अपना असली चिंतन 'सुखी रहना, प्रसन्नता के साथ' को विस्मृत कर चुके है। परन्तु, पूर्णता से भूलना 'मुख्य उद्देश्य' में कठिन होता है, क्यों कि सच्चाई देर सबेर सामने आकर खड़ी हो जाती है। जब जीवन में नकारत्मक्ता सदृश्य होती है, खासकर शरीर के मामले में तो जीवन स्वयं ही चिंतन करने लगता है, "मैं सब कुछ होते हुए भी, सुखी और प्रसन्न क्यों नहीं रह सकता" ? इसका जो सबसे प्रमुख कारण है, वो है बिना संघर्ष व श्रम के सब कुछ पाने की चाह, हम माने या न माने, ये और बात है।
"संघर्ष" हर एक के जीवन से जुड़ा सिर्फ अति महत्वपूर्ण अहम शब्द ही नहीं यथार्थ है। कोई भी संधर्ष किसी भी तरह की प्रसन्नता प्राप्ति के सबसे पहला प्रयास से लेकर कई प्रयासों की बुनियादी सफलता का फल भी हो सकता है। प्रयास रहित किसी भी प्राप्ति में जीवन को खुशी शायद ही हासिल हो सकती है।
संघर्ष की ख़ास विशेषता है कि वो कुछ भी नहीं हासिल करके, सन्तोषप्रद प्रसन्नता दे सकता है। हमारे देश में 'प्रसन्नता' प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना जरूरी है। अगर वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट 2018 के आंकडों पर नजर डाले तो भारत संसार में खुशियां या प्रसन्नता के हिसाब से 156 देशों की सूचि में 133 नम्बर पर है। सन् 2017 की तुलना में यह संख्या 11 कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार " Happiness can change and does change, according to the quality of the society in which people live" । इससे आगे रिसर्च का दावा है आप जितने साल ज्यादा जीवन पाओगे उतने ही आप प्रसन्न रह सकोगे।
सफलता और खुशी जीवन पथ के दो अलग पथ के दावेदार है। खुश रहने वाला आदमी हो सकता है, किसी विशिष्ट क्षेत्र में सफल न हो, पर जीवन मकसद में वो प्रसिद्धि न पाकर भी, जीवन सफलकर्ता बन जाता है। सफलता को जो खुशियों की सौगात समझते है, वो शायद भ्रम की स्थिति में ज्यादा रहना पसन्द करते है।
जीवन पर रिर्सच करने वाले के अनुसार जीवन का कार्यकाल, अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार U की तरह होता है। अगर इस तथ्य को स्वीकार किया जाय तो इसका मतलब बचपन और बुढ़ापा ज्यादा खुशीदायक होना चाहिए, अगर जीवन की स्थिति सही हो। खुशी का ग्राफ युवा अवस्था और अधेड़ अवस्था में कमजोर रहता है, शायद इसलिए कि ये जिम्मेदारियां निभाने का समय होता है। पर जब भारतीय परिवेश के अंतर्गत हम सोचे तो इस तरह के सिद्धान्त को पूर्णता से नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि आर्थिक असमानता के कारण बचपन को शुरु से ही संघर्ष बोध होना शुरु हो जाता है। हालांकि जीवन पर शोध करने वालों का यह तथ्य काफी सही है कि संघर्ष की अवधि 20 वर्ष से 50 वर्ष तक कई जिम्मेदारियों को स्वीकार करती है, अतः खुशियों का अनुभव कम होता है। 50 वर्ष के बाद जीवन को कुछ राहत जरुर मिलती है, क्योंकि जिम्मेदारियों से भी राहत मिलनी शुरु हो सकती है और जीवन भी अनुभवि हो जाता है।
मकसद, जिंदगी के अनुसार ही तय किये जाय तो जीवन में खुशियों का आधार युवा अवस्था में भी कम नहीं होता क्योंकि शरीर, मन मिलकर जब भी कुछ प्राप्त करने का प्रयास करते है तो ऊर्जात्मक हो जाते है। तयः है, हर आनन्द ऊर्जा में निहित रहता है। फिर भी जिंदगी तो स्थितियों के अनुसार ज्यादा खुशियों का वरण करना पसन्द करती है और उसके अनुसार जो माहौल मिल जाये तो उसकी सकारत्मक्ता क्षमता, निरन्तर खुशियों का आनन्द उठा सकती है। कुछ तथ्य है, जिन पर चिंतन करना सही लगता है, हम यहां कुछ अति मुख्य तत्व पर कुछ अनुसन्धान करने की चेष्टा करते है, जिनके कारण जीवन आज का तनाव भोग रहा है।
आपसी सम्बन्ध:
जिस तत्व का खुशी निर्माण में सबसे ज्यादा सहयोग है, वो होते, मानव के आपसी सम्बन्ध, जिन्हें हम कई तरह के बन्धनों और रिश्तों के तहत निभाते है। Harved Study of Adult Development ने तीन बातों को 'सम्बंधों' से प्राप्त होने वाली खुशियों के तहत जिक्र किया है।
1. सामाजिक सम्बंध खुशियां प्राप्त करनें का अच्छा स्त्रोत है।
2. अकेलापन खुशियों का एक नम्बर दुश्मन है।
3. सबसे महत्वपूर्ण है, अनगनित सम्बंधों का स्वार्थ भरा जाल। इन सम्बंधों के जाल में 'वही सम्बन्ध खुशियों को सार्थकता दे सकता है, जिनमे आपस में विश्वासनिय का अतुलनीय संगम हो'।
जीवन में दुःख की कल्पना कोई भी नहीं करता फिर भी दुःख कहीं न कहीं से आ जाता, सुख की कल्पना सभी करते है, परन्तु सुख कल्पनामयी होकर
अनिश्चित होता है, यह एक सही तथ्य है।
सही श्रम का सही कर्म की प्रधानता:
आंतरिक खुशियों का निर्माण जीवन में कर्म,संयम और सही समय का उपयोग करने से काफी सहजता से हो सकता है। अनुसन्धानकर्ताओं के अनुसार परिश्रम करने से खुशियों के अलावा, आत्म-सन्तुष्टि का अनुभव भी जीवन को हो सकता है, जो बेमिशाल होता है। ओक्सवर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर Jan-Emmanuel De Neve के अनुसार जीवन में कर्म व समय का सन्तुलित उपयोग घर और कार्यक्षेत्र में करने की कुशलता को अर्जित कर आप, सहजता से आनन्दमय जीवन जी कर खुश रह सकते है। हकीकत यह है, हम अपनी तकनीकी कार्यकुशलता तो बढ़ा लेते है पर जब सवाल पारिवारिक जीवन का आता है, तो हम अपने कमजोर नजरिये के कारण जीवन को अनचाहा तनाव दे जाते है।
हमारी जीवन की डलिया खुशियों के फूलों की कमी महसूस न करे, इसलिए हमें खुश रहने वाले नुस्खों पर गौर करना चाहिए।
सामाजिक पर्यावरण :
स्वास्थ्य विशेषज्ञ प्रायः अपने मरीजों को कहते है, किसी भी बिमारी से आप तभी सफल संघर्ष कर सकते, जब आप स्वयं को ज्यादा से ज्यादा खुश और तनाव रहित रह सकेंगे। सबसे कठिन परिस्थिति का अनुभव इस सन्दर्भ में आज की लाइफ स्टाईल है, ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि सब कुछ पास रहते हुए भी आदमी आज अकेला हो रहा है। सिर्फ स्वयं को समर्पित और स्वार्थ की अधीनता को स्वीकार करने वाले के पास इससे ज्यादा और होगा भी क्या ? जो अपने लिए ही सिर्फ जीना चाहते है, उन्हें एक दिन जड़ से अलग होना ही पड़ता है। फूल के रंग से ज्यादा उसकी महक ही जीवन को प्रसन्नता दे सकती है। अगर हमें खुशी और प्रसन्ता की सही चाहत है, तो हमें कभी नहीं भूलना चाहिए जीवन में समय और संस्कृति का समन्वय रहना नितांत जरूरी है।अगर हम अपने भारत की बात करे तो आप निश्चिन्त ही मानेगे की कभी हमारे यहां संयुक्त परिवार प्रथा का संस्कारयुक्त वातावरण था, जिसमे अपनापन ज्यादा झलकता था, जो आज नदारद हो रहा है या हो गया है। इसकी कार्य प्रणाली में जो प्रमुख तत्व था, वो था "एक की खुशी सभी की ख़ुशी"। आज की रूपरेखा जीवन की "मैं खुश सब खुश"। नतीजा न हम खुश न तुम खुश।
ये लेख किसी भी जीवन सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है, परन्तु सच्चाई को हम नजरअंदाज कर दे, ये भी गलत होगा। अतः सही प्रसन्नता के संस्कारिक तत्व है उन्हें हम अगर स्वीकार करते है, तो निश्चित है, हम कुछ खो नहीं रहे सिर्फ उस सच्चाई का दामन थाम रहे है जिसे हम आज की जीवन शैली के कारण कई मटमैले रंग दे चुके है।
आधुनिक शिक्षा को ज्यादा महत्व देने से पूर्व हमें प्रसिद्ध शतरंज के खिलाड़ी के इस कथन पर एक विशेष नहीं तो एक सरसरी नजर जरूर डालनी चाहिए, " GENIUSES HAVE VERY LIMITED TOOLS SETS. THEY HAVE A HAMMER, AND THEIR GENIUS IS IN LOOKING FOR NAILS" ...ADAM ROBINSON
लेखक* कमल भंसाली*