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जिंदगी के पहलू - 5 - सही मानसिकता का निर्माण

आज जीवन गहन संकट काल से गुजर रहा है, मानव विक्षोभ के अंतर्गत बहुत प्रकार के तनाव का सामना कर रहा है। यह तो पूरा विश्व जहाँ एक तरफ करोना जैसी कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो रहा, दूसरी ओर प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहा, उससे मानव का मानसिक संतुलन प्रभावित हो रहा है।
जिक्र जब वर्तमान का होता है, तो ज्यादातर यही कहते, समय काफी खराब चल रहा है। यह वो लोग ही कह सकते है, जो समय के अनुकूल अपना जीवन जीना नहीं जानते। समय की तासीर में शायद इस तरह की कोई भी गुणवता नहीं होती, जो किसी का बुरा या भला करे। ज्योतिष शास्त्र में कहीं भी नहीं लिखा की हम अमर है। समय और ज्योतिष का बन्धन घटना या दुर्घटना की नियति भी तय नहीं कर सकता। हकीकत यहीं है, इन्सान का किया कर्म ही सुख दुःख का अनुभव है, अहसास है। वर्तमान की सच्चाई ही, अगर स्वीकार कर ली जाए, तो हमारा अनुबंधन सत्य के साथ हो जाता है, दुःख सुख की परिभाषाओं में यथार्थता को बोध हो जाने से जीवन सकारत्मकता की तरफ अग्रसर हो सकता है।

जैन आचार्य श्री तुलसी जी ने अपनी पुस्तक " प्रेक्षा अनुप्रेक्षा" में शरीर को सबसे ज्यादा प्रभावित करने मेंकमजोर मन को दोषी ज्यादा माना। वो लिखते है, मन के दो रूप होते है- जागृत और मूर्च्छित"। उन के अनुसार जागृत मन तो अपनी आध्यातिमक चेतना के कारण सही अनुसरण करता है, परन्तु मूर्च्छित मन तो तन को गलत रास्ते का राही बना देता है। वर्तमान में जीने वाला इन्सान काफी सुखी रह सकता है, अगर वो अतीत और भविष्य को अपने से दूर रखे, जो हर मानव के लिए काफी कठिन है।

भोगवादी संसार में इंसान अपनी जरूरतों का हर रोज विस्तार करता रहता है, इस दौरान वो लालच और अहंकार रुपी दो राक्षसों का गुलाम बन जाता है। बाहरी आवरण को, वो अपना देवता के रुप के अनुसार सजाने की हजारों कोशिश कर ले, पर जब तक वो राक्षसी तत्वों का गुलाम रहेगा, वो जीवन में ज्यादा सुख का अनुभव शायद ही करे। इतिहास से हम कई साक्ष्य ऐसे ले सकते है, जैसे सब सुविधाओं के मालिक, भगवान महावीर, बुद्ध राजा होते हुए भी सारी सांसारिक सुविधाओं को त्याग दिया और अपने जीवन को उस लक्ष्य की प्राप्ति में लगा दिया, जिनको वो अपना आत्मिक और आध्यातिमक लक्ष्य कहते थे। इस लक्ष्य में उन्हें अमृत्व नजर आया और सच भी है, वो आज भी अमर है, उन्हें जग कभी नहीं भूल सकता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यही हो सकता की आज जब हिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है, जीवन को तहस नहस कर रहा है, तो हम भगवान महावीर के कथन " अंहिसा ही धर्म है" याद करते है। अंहिसा की शक्ति ने ही अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाई, तभी हम आज भी गांधीजी को याद करते है। यह बात अलग है, हम उनकी सिर्फ बातें ही करते है, उन्हें जीवन में सही जगह देने में असमर्थ है।

" किसी शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया, गुरुदेव क्या सिर्फ आध्यात्मिकता के द्वारा ही मनुष्य अमरता प्राप्त करता है, इसका और कोई विकल्प नहीं है ? गुरु ने बड़ी शिष्टता से कहा, रास्ते बहुत है, परन्तु हर एक की अपनी अपनी लम्बाई है, तुम्हे अगर दिल्ली जाना हो, तो क्या तुम बिना किसी कारण लम्बा रास्ता तय करोगे ?" वो शिष्य गुरु के उत्तर से कितना सन्तुष्ट हुआ, हम नहीं जानते, पर यह तय है, कि मनुष्य जन्म ही धरती पर सर्वश्रेष्ठ और सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न जीवन है, बाकी प्राणियो में सिर्फ प्राण अवधि रहती है, जिसमे उनका भोजन तक तय रहता है। मानव जीवन की भी विडम्बना यहीं है, कि उसके पास सब साधन होते हुए भी, सन्तुष्टी की कमी रहती है, यहां तक की उसे लड़ने के लिए भी अत्य आधुनिक शस्त्र चाहिये।

आखिर, मानव मन किन तत्वों से बना है, यह शोध का विषय है, और इस पर लगातार शोध हर क्षेत्र से हो रहा है। भारतीय दर्शन के अनुसार मानव मन किसी तत्व से नहीं प्राणों की गति के अंदर ही समाहित है। यहां एक सवाल यह पूछना लाजिमी होगा, आखिर जीवन का असली आधार क्या है ? इस का सन्तोषजनक उत्तर पाना आसान नहीं है, परन्तु यह कहा जा सकता है, सत्य ही जीवन आधार है, प्रत्यक्ष ही सत्य है। सुख दुःख की परिधि सत्य से ही तय होती है। आज संसार में अराजकता और अविश्वास का जिस तेजी से विस्तार हो रहा है, उससे आदमी की स्वतंत्रता पर एक सवालिया निशान लग रहा है। संसार के आज तक के विस्तार पर हम गौर करे तो उत्तर यही होगा, हम सत्य से दूर हो रहे है, और शायद हमारी मानव सभ्यता अपना अंतिम पड़ाव खोज रही है। इसे हमारी भूल कहें या नासमझी हम आँख बन्द कर जीवन जीने की कोशिश कर रहे है। यह समझने की बात है, अगर हमारी आदतों में झूठ बोलने की सीमा तय नहीं होगी, और हमारे आचरण में हिंसा का नगण्य प्रयोग नहीं होगा, तो तय है, हम मानवता के अंतिम पड़ाव से ज्यादा दूर नहीं है।

हमारा व्यक्तित्त्व, तभी सार्थकता प्राप्त कर सकता है, जब हम उसका निर्माण विशुद्ध मानवीय तरीके से मानवता के हित में करे। निःस्पृह जिंदगी की रुप रेखा हो सकती है, आर्थिक कला को अधिकतम स्तर पर न पहुंचाए, पर समझदार और सन्तोषपूर्ण बेहतर जीवन शैली जरुर प्रदान कर सकेगी। ध्यान रहें,सुख और दुःख से अप्रभावित जीवन कुछ पूर्ण समझदार लोग ही जी पाते है। निराशा की स्थिति किसी के भी जीवन में न हों, यही सदा कामना करनी, एक सही प्रार्थना हो सकती है, फिर भी अगर कभी नकारत्मक्ता आ जाए, तो नैतिक विचारों के द्वारा ही उसका समाधान तलाश करना सही और उचित होगा। प्राचीन, मनोविज्ञान के अनूसार, संगीत, आध्यात्मिक मार्ग निर्देशक, साहित्य या गुरु ज्ञान और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर वातावरण मन को उज्ज्वलता की और ले जाने मे सक्षम होते है। निराशा के समय में इनका सहयोग लेना चाहिए।

मारग्रेट कुलकिन बनिंग ने अपने एक लेख "Living with Your Regrets" में लिखा...
" For every evil under the sun,
There is a remedy or there is none.
If there is one, try to find it,
If there is none, never mind it".

मानवता में बढ़ता विद्रोहिकरण और अन्यायत्मक चिंतन, चिंता का विषय है, गंभीरता से संस्कारित मूल्यों की गिरती साख को रोकना, अत्यंत जरूरी होना चाहिए।

चलते चलते यही कहना सार्थकता देता है, हम इंसान है, इंसानो की बस्ती में रहते है, कभी हंसते है, कभी उदास होते है, पर अच्छा यही होगा दोनों ही स्थिति में हमारे साथ मानवता के प्रति शुभेच्छा हों. तथा हमारा जीवन दूसरों जीवन हमारे लिये प्रेयस हो।
लेखक✍️ कमल भंसाली

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