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आधार - 14 - निस्वार्थता, एक उत्कृष्ट गुण है।

निस्वार्थता,
एक उत्कृष्ट गुण है।
आज के व्यस्त समय में मनुष्य संबंधों का निर्माण स्वार्थपरता के आधार पर करता है। हमारे संबंध अपने पड़ोसियों व सगे-संबंधियों से उनकी उपयोगिता के अनुसार बदलते रहते हैं। इस मोबाइल और टेलीविजन की संस्कृति के पहले ऐसा नहीं पाया जाता था। संबंधों का दायरा आत्मीयता और प्रेम से मापा जाता था। हर व्यक्ति एक दूसरे के सुख दुख में सम्मिलित होता था। तीज त्योहारों पर व्यक्तिगत रूप से शुभकामनाओं का आदान प्रदान करना बहुत ही अहम और सामान्य बात मानी जाती थी। व्यक्ति आत्मीयता के साथ एक दूसरे से मिलकर खुशी का इजहार करते थे, और अपनों के साथ समय व्यतीत करते थे। परंतु समय के साथ यह आत्मीयता और प्रेम धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
आज हम अपनों से दूर होते जा रहे हैं। होली, दिवाली व ईद जैसे बड़े-बड़े त्योहारों पर भी अपनों के बीच खुशियाँ बांटना भूल गए हैं। अब हम ऐसे महत्वपूर्ण त्योहारों पर अपनी शुभकामनाएं वाट्स ऐप, इमेल व मोबाइल के द्वारा एक दूसरे तक पहुंचा देते हैं। इस प्रकार के औपचारिक शुभकामना संदेश को पढ़कर व्यक्ति आप से स्वाभाविक रूप से जुड़ नहीं पाता है। यही कारण है कि अब व्यक्ति अपने संबंधों को स्थाई नहीं रख पा रहे हैं।
समाज में लोगों के स्वार्थी बन जाने से बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। नज़दीकियां दूरियों में परिवर्तित होती जा रही हैं। स्वार्थ जीवन में हावी होता जा रहा है। ऐसे में निस्वार्थता वह उत्कृष्ट गुण है, जो हमारे सामाजिक मूल्यों को संजोए रखने में समर्थ है। मनुष्य यदि अपनी दया और करुणा को निस्वार्थता से जोड़ दे तो उसका व्यक्तित्व दो गुना निखर जायेगा। स्वार्थी लोग हमेशा कमजोर होते हैं और वे कभी किसी को प्यार नही कर सकते। यहाँ तक कि वे अपने रिश्तेदारों से भी प्यार नही करते। ऐसे स्वार्थी लोगों को कोई पसंद नही करता।
निस्वार्थता की भावना आपमें अपनाने की क्षमता बढ़ाता है। जीवन में कभी किसी को धोखा देने के बारे में न सोचे। ऐसा करने से आपको चंद मिनटों का आनंद तो मिल सकता है लेकिन बदले में आपको जिंदगी भर का दुःख मिल सकता है। दूसरों की आवश्यकताओं को पहचानने का प्रयास करें। दूसरों की खुशी में खुश रहने का प्रयास करें और अपने भीतर निस्वार्थता की भावना को विकसित करे। ऐसा करने से आपके व्यक्तित्व में चमत्कारिक बदलाव होगा।
आधुनिक समय में पूर्ण निस्वार्थता के साथ जीवन व्यतीत करना अत्यंत दुष्कर हो सकता है। अतः बेहतर यह होगा कि अपने व्यवसायिक जीवन और सामाजिक जीवन के बीच एक समुचित दीवार का निर्माण कर लें। व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में एक निश्चित सीमा तक स्वार्थपरता को उचित माना जा सकता है। परंतु ऐसा करते वक्त इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि हमारे इस कृत्य से किसी व्यक्ति को कोई क्षति न पहुंचे। इसके विपरीत हमारे सामाजिक जीवन में स्वार्थपरता का कोई मोल नहीं होना चाहिए।
महान भौतिक विज्ञान शास्त्री, न्यूटन के आकर्षण का नियम हमारे सामाजिक जीवन में भी कार्य करता है। न्यूटन के अनुसार संसार की सभी वस्तुएं एक दूसरे को आकर्षित करती हैं। अतः यदि हम समाज में व्यक्तियों के साथ स्वार्थ और द्वेष रखेंगे तो समाज भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करेगा। जब हम निस्वार्थता को अपने जीवन में उतारते हैं तो बदले में समाज भी हमारे साथ निस्वार्थ प्रेम का भाव रखता है। निस्वार्थता को जीवन में अंगीकार कर हम अपने जीवन में अमूल चूक परिवर्तन होता देख सकते हैं। स्वार्थता संबंधों को तोड़ने का जबकि निस्वार्थता दिलों को जोड़ने का कार्य करती है।
अपनी सोच में न्यूनतम परिवर्तन कर निस्वार्थता को अपने जीवन में धारण किया जा सकता है। ऐसा करने से हमारी समृद्धि व प्रगति में कोई रुकावट के आने की संभावना नहीं है, उल्टे उसमें वृद्धि होने की आशा तीव्र है।
ऐसा अक्सर देखा जाता है कि हम दूसरों के व्यवहार में निस्वार्थता की अपेक्षा रखते हैं, परंतु स्वयं स्वार्थपरता से घिरे रहते हैं। दूसरों को समझाने और सुधारने की आवश्यकता तो है, परंतु उससे पहले हम अपने को सुधारने का प्रयास करें। अपने में नम्रता, मधुरता, शिष्टाचार, स्नेह, सौजन्य और धैर्यता की इतनी मात्रा विकसित कर लें कि हम दूसरों के व्यक्तित्व को प्रभावित कर सकें।
संस्कार व व्यवहार कुएं के मुहाने पर बोले गए शब्दों के जैसे होते हैं। जहां हम जैसे शब्द बोलते हैं ठीक वैसे प्रतिध्वनी सुनाई पड़ती है। इसलिए यदि हम दूसरों में निस्वार्थता का गुण देखना चाहते हैं, तो हमें अपने अंदर भी यह गुण पैदा करना होगा। दूसरों को सुधारने से पूर्व हमें अपने में वह सभी गुण विकसित करने होंगे जो हम दूसरे व्यक्ति में देखना चाहते हैं।
अपने स्वभाव और दृष्टिकोण में परिवर्तन कर निस्वार्थता को अपनाना कुछ श्रमसाध्य, समयसाध्य और निष्ठासाध्य अवश्य हो सकता है परंतु असंभव कतई नहीं होता। मनुष्य चाहे तो अपने मन को समझा सकता है। अपने विचारों को बदल सकता है, और अपने दृष्टिकोण में आमूलचूक परिवर्तन कर सकता है। इतिहास साक्षी है कि बहुत हल्के और निम्न दृष्टिकोण के व्यक्ति ने अपने भीतर परिवर्तन करके संसार के श्रेष्ठतम महापुरुष की उपाधि प्राप्त की। इस के विपरीत ऐसे लोगों की भी संसार में कमी नहीं है जिनके विचार जब तक ऊंचे रहे वे प्रतिष्ठा के उच्चतम आसन पर आसीन रहे परंतु जब उनके विचार कलुषित हो गये, स्वभाव और दृष्टिकोण घटिया हो गए तो उनके जीवन का क्रम पतनोन्मुख हो गया और अंततः वे अधोगति को प्राप्त हुए।
संसार में स्वार्थता और निस्वार्थता दोनों गुण पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। हम अपनी आंतरिक शक्ति के अनुसार उसे अपनाते हैं जो हम को रुचिता है। यदि हम परिमार्जित होते हैं तो संसार में जो श्रेष्ठ है उसे पकड़ने के लिए प्रयासरत होते हैं। जिस प्रकार शहद की मक्खी बगीचे में से शहद और गुबरैला कीड़ा गोबर इकट्ठा करते रहते हैं। उसी प्रकार मनोभूमि के अनुसार हम भले या बुरे तत्वों से अपना संबंध जोड़कर अपने पल्ले सुख या दुख इकट्ठा कर सकते हैं। संसार में बुरा भला सभी कुछ है पर हम उन्हीं तत्वों को आकर्षित एवं एकत्रित करते हैं जैसी अपनी मनोदशा होती है।
अंत में परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि संसार में सर्वत्र सुखों की वृद्धि हो, भलाई का वर्चस्व हो, सज्जनों का बाहुल्य हो, सद्भावना का व्यवहार हो और स्वार्थता पर निस्वार्थता की विजय हो।
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