BOYS school WASHROOM - 18 Akash Saxena "Ansh" द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • जंगल - भाग 10

    बात खत्म नहीं हुई थी। कौन कहता है, ज़िन्दगी कितने नुकिले सिरे...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 53

    अब आगे रूही ने रूद्र को शर्ट उतारते हुए देखा उसने अपनी नजर र...

  • बैरी पिया.... - 56

    अब तक : सीमा " पता नही मैम... । कई बार बेचारे को मारा पीटा भ...

  • साथिया - 127

    नेहा और आनंद के जाने  के बादसांझ तुरंत अपने कमरे में चली गई...

  • अंगद - एक योद्धा। - 9

    अब अंगद के जीवन में एक नई यात्रा की शुरुआत हुई। यह आरंभ था न...

श्रेणी
शेयर करे

BOYS school WASHROOM - 18

प्रज्ञा को यश की राह देखते हुए काफ़ी वक़्त हो जाता है, लेकिन ना तो यश आता है और ना ही तूफ़ान और बारिश थमती है।

अविनाश विहान को लेजाकर अंदर सुला चुका होता है और अपना फोन लिए बार बार किसी को कॉल करने की कोशिश कर रहा होता है लेकिन नेटवर्क की वजह से कहीं कॉल लगती ही नहीं।

इतना तेज़ तूफ़ान और उस भयानक रात को देखकर अब अविनाश के मन मे भी डर की गिनती कहीं ना कहीं शुरू ही हो जाती है।

प्रज्ञा बेचैन घर मे इधर से उधर तेज़-तेज़ घूमकर बार-बार दरवाज़े को खोलकर देख रही होती है…..सड़क पूरी पानी मे डूब चुकी होती है और अंधेरा तो जैसे खाने को दौड़ रहा हो।

अब प्रज्ञा का पारा हद से पार जाने चुका था। वो पैर पटकती हुयी अविनाश से जाकर कहती है-तुम्हें ज़रा भी चिंता है या नहीं! लड़का सुबह का घर से बाहर गया है आधी रात हो चुकी है अब तक घर नहीं आया…..मौसम देख रहे हो तुम बाहर का……...प्रज्ञा एक साँस मे पूरी भड़ास अविनाश पर निकाल देती है।

अविनाश,प्रज्ञा का हाथ पकड़ कर उसे विहान के कमरे से दूर लेकर आता है और उस से कहता है-थोड़ा धीरे बोलो ज़रा बड़ी मुश्किल से सोया है विहु…….तुम्हें क्या लगता है मुझे चिंता नहीं हो रही। कब से इस फ़ोन को लेकर कोशिश कर रहा हूँ की उसके स्कूल मे या उसके किसी दोस्त या किसी क्लासमेट से मेरी बात हो जाए।

प्रज्ञा-ओह रियली अविनाश!.....ये बिना नेटवर्क का फ़ोन लेकर तुम कह रहे हो तुम्हे यश की फ़िक्र है।

अविनाश-तुम हद से ज़्यादा सोच रही हो प्रज्ञा….हमारा बेटा बहुत समझदार है…..वो पक्का किसी सुरक्षित जगह पर ही होगा।

प्रज्ञा मुँह बनाते हुए अविनाश की शक्ल देखने लगती है। वो वहां से अंदर जाती है और अविनाश वहीं सोफे पर बैठकर अपना सर पकड़ लेता है।
अगले ही पल प्रज्ञा वापस से बाहर आती है और अविनाश उसे देखते ही-तुम्हारा दिमाग़ तो ख़राब नहीं हो गया क्या प्रज्ञा?

प्रज्ञा-हाँ हो गया है क्योंकि मेरे लिए, हमारा यश! अभी इतना बड़ा नहीं हुआ की इस मौसम मे घर से बाहर रहे।

प्रज्ञा जल्दी से जाकर बाहर जाने लगती है, तभी अविनाश उसका हाथ पकड़ कर उसे वापस खींचकर बोलता है-तुम्हें क्या लगता है, एक रेनकोट पहन कर तुम इस तूफ़ान मे खुद को भी संभाल पाओगी।

तभी प्रज्ञा की यश को लेकर घबराहट और बेचैनी उसकी आँखों से छलक उठती है….और वो अविनाश से लिपटकर रोते हुए उस से कहने लगती है-मै क्या करूँ अवि, मेरा दिल बहुत घबरा रहा है…...मै…… मै यहाँ….अवि...यश…….प्रज्ञा फूट-फूट कर अवि की बाँहों मे रोने लगती है। तब अविनाश उसे चुप कराकर उसे कहता है-मै भी चलता हूँ तुम्हारे साथ….यहाँ तक होगा वो शायद अमन के घर चला गया हो….उसने मुझे बताया भी था की अमन आ रहा है…..तुम रुको एक सेकंड।

अविनाश भी अंदर जाकर जल्दी से एक रैनकोट पहनकर और एक टोर्च हाथ मे लेकर जाने के लिए तैयार हो जाता है।

दोनों दरवाजा खोलकर एक पल सोचते हैँ और एक दुसरे को देखकर एक गहरी साँस लेते हैँ….और जैसे ही अपना एक कदम बढ़ाते हैँ...पीछे से आवाज़ आती है।

""आप दोनों भाई को लेने जा रहे हो…"".....दोनों के कदम हवा मे ही रुक जाते हैँ और वो पीछे मुड़कर देखते हैँ, तो छोटा से विहान के माथे पर भी एक हल्की सी शिकन उन्हें दिखाई देती है…..उसकी मासूम सी शक्ल और वो सवाल उन्हें जैसे वहाँ बांध लेता है।

दरवाजा बंद करके दोनों विहान को घुटनो के बल बैठकर गले लगा लेते हैँ।