समीक्षा इब्नबतूती राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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समीक्षा इब्नबतूती

समीक्षा इब्नबतूती
इब्ने बतूती उपन्यास दिव्य प्रकाश दुबे का उपन्यास है जो हिंद युग्म ने प्रकाशित किया है। यह उपन्यास लेखक के बहुबिक्रीत उपन्यासों में से एक बताया गया है।
दिव्य प्रकाश दुबे आज की पीढ़ी के उन लोगों में से हैं जो कहानी को सहज कथा के रूप में न सुनाते हुए किसी अलग से दिलचस्प तरीके से सुनाते हैं यानी वे दृश्य बुनते है जिनमे से कहानी खोजना पड़ती है भाषाई तौर पर वे संस्कृत निष्ठ शब्दों या शुद्ध हिंदी के शब्दों के प्रयोग करने पर बल नहीं देते ।आम बोलचाल के शब्द उनकी कहानियों में आते हैं और ऐसा लगता है कि हम कोई किस्सागो से किस्सा सुन रहे हैं। किस्सा भी ऐसा जो प्रचलित पद्धति का नहीं आधुनिक किस्म का है जिसको समझने के लिए खुद को बदलना होगा। लेखक हमारे आसपास की भाषा में ही हमको किस्से सुनाता है।
उपन्यास के आरंभ में लेखक ने लिखा है- कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनको सहेजने वाले इस दुनिया में बस 2 लोग होते हैं। बहुत शब्द जो उस रिश्ते के साथ मर जाते हैं , तो कई बार वही शब्द इस दुनिया को बचा लेते हैं। प्रेम में डूबे हुए लोग ही नए शब्द बनाने की कोशिश करते हैं । नई जगह जाने की कोशिश करते हैं । वे सैकड़ों साल पुरानी इस दुनिया को एक नई नजर से समझना चाहते हैं । इस दुनिया को नए शब्द शब्दकोश ने नहीं बल्कि प्रेम में डूबे हुए लोगों ने दिए हैं। हमारा जो हिस्सा प्रेम में होता है वह कभी पुराना नहीं होता।

उपन्यास की कथा अंत से ही आरंभ हुई है; कार में राघव और उसकी मां शालू अवस्थी एयरपोर्ट की तरफ जा रहे हैं। एयरपोर्ट दिखना शुरू हो गया है और शालू अवस्थी का लाड़ बेटे पर बार-बार उमड रहा है । वह उसके बाल को संभालती है, तो राघव कहता है -अरे यार अम्मा बाल खराब हो रहे हैं !
मां भी तुर्की व तुर्की जवाब देती हैं -अभी होने दे खराब एयरपोर्ट के अंदर जाकर एक बार में ठीक कर लेना! अब कहां बाल खराब कर पाऊंगी !
इस तरह के शुरुआती बातचीत से पता लगता है कि मां और बेटे बहुत खुलकर और बड़ी अनौपचारिक अंदाज में एक दूसरे से बातें करते हैं । इन वाक्यों के साथ ही शुरू हो जाता है फ्लैशबैक... यानी पूर्व दीप्ति शालू अवस्थी को अपना भूतकाल दिखने लगता है इसमें वह कभी एक जमाने में अपने कॉलेज की बहुत ही एक्टिव और ऐसी लड़की थी, जिसके नाम से लड़के चलाते थे, नाटक करना और हर तरह की आंदोलन गतिविधि में भाग लेना शालू अवस्थी का सगल हुआ करता था।

फ्लेशबैक में भी बार-बार आवाजाही होती है जो दिसंबर 15 और सन 2008 के समय काल में होती है । इस अवधि में आना-जाना लगभग बराबर होता रहताहै। किसी अध्याय में शालू अवस्थी का कॉलेज का दृश्य होता है तो किसी अध्याय में वर्तमान एकाकी अपने बेटे के सहारे जीवन जी रही शालू अवस्थी का होता है, जिसके पति गुजर चुके हैं ।
एक बक्सा है उनके घर में, जिसमें कहा गया है कि पिता के अस्पताल के कागज हैं , तो बेटा राघव कभी नहीं छूता। यह बक्सा अलमारी के ऊपर रखा है ।
राघव की एक प्रेमिका है निशा, जो घर पर भी आती जाती है और शालू को पता है कि यह निशा है ! और राघव की इस लड़की से दोस्ती ही नहीं बल्कि प्रेम है। यह राघव की प्रेमिका है। इस तरह वह लड़की एक बेटी की तरह एक बहू की तरह मां की देखभाल भी करती है । बस्ती के, कार्यालय के कुछ प्रसँग हमारे आसपास के दफ्तरों में घटते प्रसंगों की तरह ही लगते हैं । जब शालू के दफ्तर का बॉस और यहां तक की प्रिंसिपल सेक्रेटरी भी उस पर लार टपकाता है और उसे अपने घर आमंत्रित करना चाहता है तो शालू हाथ में पेपरवेट लेकर उसे मारने के अंदाज में दीवाल पर दे मारती है और उठ कर चली आती है। शालू अवस्थी के तेवर युवावस्था में भी यही थे ।
शालू को अचानक हार्ट अटैक आता है तो दफ्तर वाले उसे लेकर अस्पताल जाते हैं। घबराया हुआ राघव कहां पहुंच जाता है। जिसे अब यह लग रहा है कि विदेश की यूनिवर्सिटी में उसका एडमिशन हो चुका है और उसे जाने में केवल 90 दिन बचे हैं कि आपको क्या हो गया ?अपनी मां को बोलता है ।
और शालू कहती है मुझे कुछ नहीं हुआ। लेकिन डॉक्टर कहते हैं तनाव नहीं देना, आराम करने देना।
अस्पताल में निशा और राघव मां की देखरेख करते हैं । शाम को राघव और शालू निशा से कहते हैं कि वे उनके घर जाकर रात के लिए निशा और राघव को कपड़े ले आए।
निशा राघव के घर जाती है और बैग में कपड़ा ठूंस ठूंस कर ले आती है । बाद में अकेले मिलने पर राघव से बात करते हुए कहती है कि अलमारी के ऊपर एक बक्सा रखा है ,तुम जानते हो उसमें क्या है?
तो राघव कहता है उसमें पिता के अस्पताल के कागज हैं ।
तब निशा बताती है कि उसमें आंटी जी द्वारा लिखे गए लव लेटर जैसी पर्चियां है जो उन्होंने किसी आलोक नाम के व्यक्ति को लिखे हैं ।
यह सुनकर राघव का मूड ऑफ हो जाता है ,वह कहता है कि आखिर मां ने ऐसे लेटर क्यों लिखे ?
निशा समझ आती है कि हर मां कभी ना कभी तो 20 साल की लड़की थी ,तो राघव कहता है कि शादी हो जाने के बाद ही माँ ने वो खत क्यों लिखे?
तो निशा इसका भी बचाव करती है कि पिता के ना रहने पर वह मां अकेली थी, तो लिखती हैं और यहां से शुरू हुई दोनों की बातचीत में एक नया प्रसंग बनता है। वह दोनों मिलकर प्रयास करते हैं कि जब राघव बाहर चला जाएगा तो मां को अकेलापन ना लगे, इसलिए मां को एक दोस्त या खास दोस्त की जरूरत है।

दोस्त तलाश किया जाता है ।नेट पर निशा मां का बायोडाटा डालती है तो एक प्रोफेसर शालू मर दिलचस्पी लेते हुए दिखते हैं और आकाश अवस्थी का बनर्जी से परिचय कराया जाता है। ढाबे पर एक तरफ बैठकर दोनों बातें कर रहे होते हैं कि निशा और राघव दूर बैठे उनका ऑब्जरवेशन करते हैं। फिर शालू और बनर्जी उठकर बच्चों के पास आते हैं गले लगते हैं और इस तरह एक और तीसरे रिश्ते की नए रिश्ते की शुरुआत होती है । पर घर लौटकर शालू अवस्थी कहती है कि मिलना जुलना तो अलग बात लेकिन शादी विवाह की कोई बात नहीं है, मैं बनर्जी के साथ कहीं नहीं रुकने वाली, कहीं नहीं रहने वाली, कहीं नहीं जाने वाली और राघव का दिमाग फिर खराब हो जाता है ।
इस कहानी में खूब उतार-चढ़ाव है, जब यूनिवर्सिटी का विवरण आता है, तो फिर विस्तार से शालू अवस्थी और कुमार आलोक की बात होती है ।
ऐसी करने के लिए बिहार के एक गांव से दिल्ली आया है । शालू अवस्थी ने अपने भविष्य का कोई प्लान नहीं बनाया है कि का परिचय आलोक से होता है । दोनों जन की दोस्ती बढ़ते जाती है ,जो प्रेम में बदल जाती है ।
बाद में शालू पूछती है कि अगर यूपीएससी में तुम्हारा सिलेक्शन नहीं हुआ तो प्लान भी क्या है ?
तो कहता है मैंने प्लान भी नहीं बनाया! इसी बीच देश में महत्वपूर्ण परिवर्तन आता है, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल आयोग द्वारा अन्य पिछड़े वर्ग को दिए गए आरक्षण को लागू करने की अधिसूचना जारी कर देती है ।इस अधिसूचना के जारी होते ही समाज अभी तक जो एक सोसायटी य्या समाज था, परस्पर आपस में एकता थी, वह बटने लगता है । न केवल समाज में बल्कि यूनिवर्सिटी में, विश्वविद्यालयों में ,महाविद्यालयों में भी बच्चे बंट जाते हैं, छात्र बंट जाते हैं। सवर्ण बच्चे कहते हैं कि अब हमारे हक पर डाका डाल लिया है ,तो अन्य पिछड़े वर्ग के लोग व छात्र कहते हैं कि अब तक हमारा तुमने शोषण किया है , अब हमको हमारा हक मिल रहा है तो आप लोग क्यों गुस्सा हो रहे हैं । सब लड़के आंदोलन हड़ताल करते है और रेल रोकते व पुलिस पर पथराव करते हुए इस नौबत पर आ जाते हैं कि अंत में गोस्वामी नाम का लड़का आत्मदाह कर लेता है । पूरे देश में 85 बच्चे आत्मदाह करते हैं ।तो एक अजीब सी हलचल पूरे समाज में पूरे देश में छा जाती है और इसी जलती हुई आग में कुमार आलोक और शालू अवस्थी की आपस में भेंट बहुत कम क्षण के लिए होती है। लेकिन उनमें आपस में भी तनाव रहता है ।तब कुमार बताता है कि वह घर वापस जा रहा है तो शालू कहती है कि तुम्हारा प्लान दो भी तो तैयार ही नहीं है रुको और डर के क्यों भाग रहे हो? आखिर कुमार आलोक रुक जाता है और बाद में शालू अवस्थी वहां से घर वापस आती है और उसकी जबरन शादी कर दी जाती है। हां इस बीच यूपीएससी में सिलेक्शन हो चुके कुमार आलोक द्वारा कई बार पिता के पास आकर अपने विवाह का प्रस्ताव दिया जाता है , लेकिन उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जाता । तब अपनी नौकरी ज्वाइन करने के लिए कुमार आलोक चला जाता है। विवाह से लेकर राघव के बड़े होने तक का प्रसंग और घटनाक्रम इस उपन्यास में नहीं है । पाठक को यह गेप अपने मन से भरना पड़ता है । लेकिन इस प्रयास के विभिन्न अंचलों से अलग-अलग चीजें पता लगती हैं । जब प्रोफेसर बनर्जी से शालू की दोस्ती नहीं हो पाती तभी अछानक तो एक दिन राघव जब शालू द्वारा आलोक को लिखी सारी पर्चियां पढ़रहा होता है और बाद में मां उन लोगों को सुना रही होती है तो तय करता है राघव कि अब कुमार आलोक को खोजना है जो शालू का असली वाला दोस्त ओर युवावस्था का सच्चा प्रेमी है। इस क्रम में बड़े रोमांचक हादसे होते हैं और अंततः बीसा के लिए दिल्ली तक की गई यात्रा में शालू अवस्थी और राघव जब फ्री हो जाते हैं तो समय मिल जाने पर शालू उसे अपने कॉलेज में ले जाती है । वहीं कॉलेज से राघव किसी तरह बुजुर्ग शर्माजी से कुमार आलोक का घर का स्थाई पता ले लेते हैं । दिल्ली से लौटने के बजाय लोग सीधे पटना जाते हैं और बोध गया जहां कि जहां का पता स्थाई तौर पर कुमार आलोक का लिखा हुआ था, उसके घर भी पहुंचते हैं । वहां से पता लगता है कि ऐसी कोई कहांनी है, उनके पिता को भी पता नहीं है । तब यह जरूर पता है कि पुत्तन भैया नाम के व्यक्ति जो भी घर की जरूरत होती है पूरी करते हैं । पुत्तन नाम के व्यक्ति का नंबर मिलता है । उन्हें गाड़ी भेज कर पटना बुलवाते हैं । पटना में एक एनजीओ के ऑफिस में दोनों के साथ नाश्ता करते हैं और वापस लखनऊ के लिए रवाना कर देते हैं ,यह कहकर कि कुमार आलोक कहां है बे नहीं जानते ।
उन लोगों के जाने के बाद कुमार आलोक पास में ही खड़े हुए दिखते हैं जो लाइब्रेरी से किताब पलटते हैं ।उसी किताब में शालू ने एक खत रखा हुआ है , ऐसे खत इस उपन्यास में खूब खूब आए हैं। छोटी-छोटी पर्चियों में लिखे हुए दार्शनिक और विचारात्मक सूक्ति वाक्य हैं जिनके नीचे पीएसपी दिया गया है बाद में कुमार आलोक इलाहाबाद जाते हैं और लौटते में जब लखनऊ आ रहे होते हैं, इलाहाबाद में गिरफ्तार हो जाते हैं हालांकि इस बीच उन्हें पता है कि 10 दिसंबर 15 को राघव की विदेश के लिए फ्लाइट है तो वह 9 तारीख को छूटते ही सीधे लखनऊ पहुंचकर शालू के घर पर पहुंचते हैं ,जहां पता लगता है कि वे लोग तो दिल्ली के लिए निकल लिए। तब कुमार आलोक दिल्ली पहुंचते हैं और एयरपोर्ट पर ही पहुंच जाते हैं। वे एयरपोर्ट पर इंतजार कर रहे हैं और उपन्यास जो का पहला दृश्य है वह फिर आता है कि शालू छोड़ने के लिए टैक्सी में बैठकर एयरपोर्ट आ रही है और बेटे के बाल संभाल रही है । अंदर जाने के लिए राघव व माँ लाइन में लग जाते हैं ... । बड़ी अजीब सी घटनाएं होती हैं , क्योंकि कुमार आलोक का मोबाइल फोन खो चुका है और उनके पास राघव का नंबर नहीं है ,ना शालू का है।
परेशान कुमार आलोक एक पड़ोसी यात्री से रिक्वेस्ट करके अपने मित्र पतन को फोन करते हैं कि वह उन्हें लता और राघव का नंबर दे तब शालू और राघव का नंबर मिलता है।
वह भी मोबाइल पर फोन लगाते हैं लेकिन राघव इसलिए नहीं उठाता कि उसे अभी सुरक्षा जांच कराना है ,वह सोचता है हवाई अड्डे के भीतर जाकर फोन उठा लेगा और कुछ गाड़ियों का सफर है। क्लाइमैक्स से पाठक की सांस फँसने लगती है ....और अचानक वह क्षण सामने आता है कि जब आलोक व शालू आमने-सामने होते हैं , ...और फिर बहुत छोटे-छोटे वाक्यों में एक दूसरे की अब तक क्या इतिहास ,अब तक की यह पूछते हैं ....और इशारा करके शालू बेटे को बुलाती है , पहचानने को कहती है और फिर तब आलोक कहता है कि बच्चे बड़े हो जाते हैं तो गले लगना चाहिए। वह गले लगता है ...और तब एक पैन जो ठीक उसी प्रकार उसी दुकान से खरीदा गया ...और आलोक बेटे को गिफ्ट करते हैं, जो उसकी मां ने भी वहीं से कनॉट प्लेस से दुकान से खरीदा था ।
यहां आकर उपन्यास की कथा रुक जाती है ,अब आगे की कल्पना पाठक को कहना है ।
उपन्यास कहानी के रूप में यहां आकर बहुत सारी संभावनाएं जगाता है और पाठक को एक शानदार प्रति देता है। उपन्यास का शिल्प एक नए तरह से चलता है। हर अध्याय के बाद एक सिलिप मिलती है जो शुरू में पाठक को समझ में नहीं आती ,बाद में पाठक धीरे-धीरे समझता है , हर स्लिप पर एक तारीख डली है और यह भी लिखा गया है कि वह किसने लिखा है । कोई स्लिप आलोक ने लिखी है तो कोई स्लिप इब्नेबतूती यानी शालू ने लिखी है ।
यह शुरुआत में मजेदार तरीके से बताया है ।
शालू कभी भी अपने द्वारा लिखी गई कोई भी चिट्ठी पोस्ट नहीं करती ,डाक में नहीं डालती, लेकिन वह हर दिन और है हर महत्वपूर्ण समय पर बड़े अजीब से दार्शनिक अंदाज में कभी सवाल पूछते हुए कभी निष्कर्ष निकालते हुए सभी घटनाओं को जोड़ते हुए आलोक को चिट्टियां लिखती हैं । पर्चियों में लिखती है और उन्हें अपने बक्से में डालती रहती है ।यह पर्चियां बीच-बीच में कहानी में उपन्यास के अध्ययन के बीच में तारी गई हैं ।
लगभग हर अध्याय पर एक तारीख मिली है इससे पता लगता है कि यह घटना कब की है शालू और कुमार आलोक के कॉलेज की घटना है या वर्तमान में इन लोगों राघव के विदेश जाने की घटना है। लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन, हजरतगंज और तमाम जूनी पुराणी लखनऊ का विवरण उपन्यास में खूब आया है ।इससे लगता है कि दिव्य प्रकाश दुबे ने लखनऊ को बहुत अच्छी तरह से घूमा है ,पर्यटन किया है ,बल्कि जिया है। पात्रों के रूप में प्रमुख तीन पात्र हैं निशा राघव और शालू और तीनों ही जिंदादिल पात्र हैं । शालू सबसे मस्त पात्र है, जिसे इसकी नायिका भी कहा जा सकता है। क्योंकि इब्नबतूती उसी के लिए कुमार आलोक द्वारा यह नाम दिया गया है जो उपन्यास का शीर्षक है ।राघव का चरित्र भी कम मजेदार नहीं है , वर्तमान के युवक, हंसते खेलते मस्ती करते युवक और जो समय पर एक प्रेमिका भी ढूंढ चुके होते हैं । ऐसे युवक के रूप में विदेश यात्रा के रूप में एक-एक और जीवंत रूप में उभर आया है, तो ऐसे व्यक्ति -जो आईएएस की नौकरी छोड़कर भी समाज सेवा और एनजीओ के मार्फत समाज की सेवा करते हैं -के चरित्र के रूप में आलोक उभर कर आए हैं। यद्यपि आलोक केवल कॉलेज लाइफ में ही दिखाई दिए हैं और अंत में आते हैं । लेकिन यह चरित्र पाठक पर एक गहरा असर छोड़ता है ।उपन्यास में रोचकता बरकरार है । मस्ती की भाषा है यानी खेलते हुए, मस्ती करते हुए चरित्र आपस में बोलते हैं या मां बेटे अगर वह चालू और कैसे हो तो आपस में दोस्तों की तरह जो भाषा प्रयोग करते हैं । इस उपन्यास में है लेखक ने एक संतुलन बनाने के लिए निशा के पिता का भी एक संवाद दिया है , जब राघव तृषा को घर छोड़ने जाता है, तब उसके पिता पास बुला कर राघव से कहते हैं- इससे भी कहो यह बीएससी वगैरह की तैयारी करें क्योंकि हमें इसकी भी शादी करना है ।
एक वाक्य से बहुत सारे संकेत देते हैं कि तुम हमें पसंद नहीं हो ,तुम्हारे साथ शादी नहीं करना ,इसकी शादी कहीं और करना है और इससे कहो कि तुम्हारा चक्कर छोड़ कर पढ़ाई लिखाई करे। दिव्य प्रकाश दुबे ने लेखकीय कुशलता के साथ यह उपन्यास लिखा है । जो खूब बिक रहा है ऐसी घोषणा के ठीक पहले वाले कवर पृष्ठ पर की गई है ।कहानी फनी भी है और रोचकता भी देती है।