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बनारस टॉकीज-सत्य व्यास

बनारस टॉकीज उपन्यास सत्य व्यास का उपन्यास है, जिसके मुख पृष्ठ पर लखप्रति लेखक ; यानी ऐसा लेखक जिसकी कई क़िताबों की एक लाख प्रतियां बिक चुकी हों, और इस पुस्तक पर फिल्म निर्माणाधीन हो और दैनिक जागरण हिंदी बेस्ट सेलर का ग्यारह बार लगातार खिताब जीतने के साथ द्वारका प्रसाद अग्रवाल पुरस्कार विजेता होने के प्रतीक चिन्ह या आइकॉन भी बने हुए हैं । सत्य व्यास के इससे पहले तीन उपन्यास दिल्ली दरबार, 84 और बागी बलिया भी हिंदी युग्म प्रकाशन से प्रकाशित हुए हैं। प्रकाशक की तारीफ की जानी चाहिए कि वे न केवल इस किताब की प्रशस्ति में मुख्य पृष्ठ पर ही बहुत सारी सूचनाएं देते हैं बल्कि अंतिम पृष्ठ पर भी विभिन्न अखबारों व पत्रिकाओं की टिप्पणियां भी बेहिचक एक एक पँक्ति में प्रकाशित करते हैं । इस बात की भी तारीफ की जानी चाहिए कि प्रकाशक लेखक की समस्त किताबों की बात करते हैं और लखप्रति यानी एकलाख किताबें बिक जाने वाले लेखकों को अलग से रेखांकित करते हैं। आज के हिंदी प्रकाशक बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है की हिंदी का कोई प्रकाशक अपने लेखक और अपने प्रकाशन से आई किसी किताब के बारे में ऐसा कुछ भी कहीं नहीं कहता ,कहीं नहीं लिखता, कोई संदर्भ नहीं देता कि इस पुस्तक की कितनी हजार कॉपी बिक गयीं ,इसमें राजकमल, राधा कृष्ण प्रकाशन, राजपाल एंड संस जैसे पुराने प्रकाशक भी हैं और न्यू लिट जैसे एकदम नए प्रकाशक भी, जिनके छापे हुए उपन्यास ट्वेल्थ फैल की 50,000 से ज्यादा प्रतियां अब तक बिक चुकी हैं ।
बनारस टॉकीज दरअसल बनारस के बी एच यू की लॉ फैकल्टी के छात्रों के हॉस्टल भगवान दास हॉस्पिटल हॉस्टल में प्रवेश पाकर अपना 3 साल गुजारने वाले छात्रों की कहानी है और इन छात्रों के बहाने हिंदी के विधि छात्रों की । छात्रों यानी विशेष इंटेलिजेंट छात्रों की कहानी नहीं है , बल्कि भारत के हर उस युवक और किशोर की कहानी है ,जो पढ़ने के वास्ते हॉस्टल में रहता है । वह हॉस्टल हो बनारस और बनारस यानी देश की आध्यात्मिक भौतिक राजधानी, बीएचयू की परंपरा हो तो फिर उपन्यास में बहुत सारी बातें अपने आप आ ही जाती हैं। लेखक ने सावधानी बरती है कि बनारस के विश्वनाथ मंदिर, अस्सी घाट और दूसरे मठ महंत और स्थानों के बारे में कम से कम कहा है ; तो उनका कथा क्षेत्र पहले से ही निश्चित था । उपाध्याय में उन्होंने जिन जिन पात्रों का परिचय दिया था, जिन छोटी घटनाओं को प्रस्तुत किया था, उनमें केवल हॉस्टल और उसके छात्र ही सम्मिलित थे । तो लेखक का ऐसा बड़ा इरादा भी ना था, बड़ा लक्ष्य ना था और बड़ा विमर्श का इरादा भी न था । एक छोटे से कथ्य को चुनकर ऐसी बातें कह देना जो पीढ़ी की पीढ़ी के बारे में सत्य निकले, अनुभूत निकले और खिलंदड़ी भाषा मे भी निकले, इस बात के लिए सत्य व्यास बधाई के पात्र हैं ।
इस उपन्यास में कमरे में हॉस्टल के एक कमरे में रहने वाले अनुराग डे उर्फ दादा और सूरज यानी में कथा वाचक और जयवर्धन शर्मा सहित कुछ और छात्रों का परिचय है । ऐसे छात्र जो अपने विषय के विशेषज्ञ भी हैं और बहुत छोटी-छोटी दैनिक घटनाओं से आगे बढ़ता यह व्यास सीनियर द्वारा जूनियर की रैगिंग के बहुत सारे नए तरीके बड़े दुस्साहसी प्रयोग बताते हैं। एक हॉस्टल से दूसरे हॉस्टल को दी जाने वाली नियमित शाम की गालियां और बनारस के आक्रमक लेकिन मजेदार परंपरागत स्टाइल तथा कहीं-कहीं लड़कियों के लिए सहज आकर्षण इस उपन्यास को रोचक बनाते हैं । उपन्यास की भाषा स्वभाविक है । यूनिवर्सिटी के कैंपस की कहानी है तू अंग्रेजी के न केवल बहुत सारे शब्द हैं बल्कि पूरे पूरे वाक्य भी अंग्रेजी के हैं और अभी देवनागरी लिपि में नहीं है , रोमन लिपि में ही है ।
तो उपन्यास को आरंभ करते समय हमको भाषा का यह फर्क अपनी नजर से हटाना पड़ेगा नजरअंदाज करना पड़ेगा क्योंकि जिस परिवेश की कहानी है उसको उस परिवेश में लेना उचित होगा ।
3 वर्ष के लॉ के पाठ्यक्रम में बहुत सारे छात्रों के साथ अनुराग डे यानी दादा सूरज यानी मैं और यशवर्धन वर्मा प्रवेश लेते हैं और सीनियर उनकी रैगिंग करते हैं। रैगिंग की खास बात है कि उन्हें लड़कियों के हॉस्टल में घुसकर कोई दो वस्तुएं उठाकर लाना है , यह पूरा वृतांत बहुत रोमांचक और हास्य पूर्ण है। इसमें पूरे में एक हादसे का अंदाज से एक विलक्षण खिलंदड़ी भाषा उपन्यास में है। भाषा जो सीधी ज्ञानरंजन की परंपरा से आती है, इसकी तुलना ग्यारंजन की भाषा से महीं की जा सकती पर उस परंपरा के एकदम सामान्य हो कर आगे बढ़ते जाने की भाषा यहां मौजूद है , जो उपन्यास ट्वेल्थ फैल अनुराग पाठक और दिव्य प्रकाश दुबे के उपन्यास इब्नबतूती व नीलोत्पल मृणाल के औघड़ में भी मौजूद है। हरि भटनागर भी इस भाषा का प्रयोग करते हैं पर उनकी भाषा में एक अजीब शा रुखड्डपन होता है ।
तो इस तरह विभिन्न छात्रों का विभिन्न घटनाओं से परिचय कराता यह उपन्यास धीमी घटनाओं से आगे बढ़ता है ।
सूरज यानी मैं और शिखा का एक दूसरे के प्रति आकर्षण होता है और शिखा कभी भी सूरज के आई लव यू उच्चारण का कोई जवाब नहीं देती ।
होस्टल में कभी क्रिकेट का आयोजन होता है सीनियर्स के साथ, तो फिल्म लगान की तरह बेहद रोमांचक तरीके से उस मैच का जिक्र किया जाता है ।
तू संकट मोचन गणेश के मंदिर में विस्फोट बम विस्फोट की घटना होती है।
वह इस उपन्यास के अंत का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है जहां दर्शन करने के लिए इस तिकड़ी का यश वर्धन शर्मा गया हुआ है, लेकिन बेचैन ,व्याकुल और मित्र की कुशलता के लिए परेशान सूरज व दादाजब वहां पहुंचते हैं तो उन्हें जल्दी पता लगी जाता है कि विस्फोट से पीड़ित घायलों की मदद के लिए इनका दोस्त यशवर्धन वर्मा भी लगा हुआ है और वे राहत की सांस लेते हैं।
क्लास में 75% कक्षा की उपस्थिति को लेकर भी अजीब से लोकल रोचक किस्से हैं ,।
राम प्रताप नारायण दुबे जैसे मजेदार पात्र हैं, इनकी हिंदी,इनकी जिंदगी ,भाषा और जिनका सोच विलक्षण है और सबसे महत्वपूर्ण है रोशन जैसा चरित्र।
रोशन जो अजीब अहमक रहस्य पूर्ण और अलग अंदाज का छात्र है । हालांकि उसके बारे में बहुत विस्तार से नहीं बताया गया फिर भी उपन्यास के अंत में वही खलनायक की तरह प्रकट होता है।
संकट मोचन के विस्फोटों से उसका संबंध निकलता है या नहीं? उसे कमरे में लिखे डरावने स्लोगन का क्या महत्व है? और वह कौन है ?क्या है ?समझने के लिए हमें उपन्यास को पढ़ना पड़ेगा।
मित्रों पिछले दिनों हिंदी में युवा पीढ़ी ने नए प्रकार से उपन्यास लिखे हैं , इसमें वह कलात्मक भाषा नहीं है जो मध्य काल के यानी सन सत्तर से सन नव्वे तक के हिंदी लेखकों ने प्रयोग की ,इनके पास तो भाषा भी नहीं है जो सन 19 90 से 2015 तक के लेखकों के पास थी बल्कि इनके पास अपनी भाषा है ।अगर भाषा के थोड़े सतर्क और कड़क लहजे के संपादकीय नजरिए से इन उपन्यासों को देखा जाए तो प्रस्तुत उपन्यास के लेखक सत्य व्यास के पास वह भाषा नहीं है, लेकिन इन मित्रों, इन युवा लेखकों के आत्मविश्वास की सराहना की जानी चाहिए कि फिर भी वह कथा कहते हैं और इन उपन्यासों के पीछे छिपी टिप्पणियों को सही माना जाए, इन पुस्तकों के कवर पर जो अजीब से शानदार आइकॉन और विशेष चित्र के साथ लिखी गई टिप्पणी,लखप्रति लेखक या फिल्म निर्माणाधीन या ग्यारह वर्ष से लगातार बेस्टसेलर शक्तिमान आदि को सही माना जाए , तो यह कहा जा सकता है कि आज की युवा पीढ़ी ,आज का पाठक, आज का छात्र ऐसे उपन्यास पसंद कर रहा है ।
इस उपन्यास में द्वंद है लेकिन वह परंपरागत दो जिसके लिए अश्क, अज्ञेय, जैनेन्द्र और बेचन शर्मा उग्र को हम हिंदी में एक प्रतीक मानते थे, वह द्वंद यहां नहीं है । संस्कार से वर्तमान आधुनिकता का द्वंद , हिंदी से अंग्रेजी का , राष्ट्रीयता से विश्व राष्ट्रीयता का द्वंद्व का और सैद्धांतिक आचरण से सिद्धंत हीन आचरण का द्वंद्व इस उपन्यास में बहुत कम है और लगता है कि लेखक का उद्देश्य किसी द्वंद्व को प्रकाशित करना भी नहीं था ।
शायद एक युवक या यूं कहें कि कुछ युवकों की हॉस्टल लाइफ के कुछ वर्षों कुछ लम्हों की कहानी कहना लेखक का उद्देश्य था। इसलिए यह उपन्यास उन्होंने लिखा है ।
देखा जाए तो विषय बहुत साधारण था पर उन्होंने उस को रोचक बना दिया। शैली के नजरिए से उपन्यास बहुत ही दिलचस्प है ।जहां कोई घटना नहीं होती वहां भी लेखक बहुत दिलचस्प अंदाज में अपनी बात कहता है ,उपन्यास को आगे बढ़ाता है। बहुत छोटी घटनाएं सामने आती हैं ।उपन्यास के प्रारंभ में ही देखिए
अभी मैं परेशानी में टहल ही रहा था कि मेरे भगवान की नजर मुझ पर पड़ी। मेरे भगवान अर्थात "अनुराग डे। " फैकल्टी गेट पर सिगरेट फूंकते हुए उस तारणहार ने मुझसे पूछा-
" कोई परेशानी है?
" हां भाई ! देखो ना, मैं फादर का इनकम सर्टिफिकेट लाना ही भूल गया। अब यहां कह रहे हैं कि उसके बिना एडमिशन ही नहीं मिलेगा" मैंने पसीना अपनी तर्जनी से पोंछते हुए कहा।
"बस! यही बदे इतना परेशान हो गुरु? बाबूजी का नाम बताओ?" अनुराग डे ने अपने बैग से रजिस्टर निकालते हुए कहा।
"श्री जयंत किशोर "मैंने आश्चर्य से देखते हुए कहा ।
"लो साइन हो गया साइन, श्री जयंत किशोर जी का। हिंदी में कर दिए हैं । अब हो गया तुम्हारा काम पक्का। अब क्या लिखना है वह भी बताना पड़ेगा ।"उसने साइन करते हुए बड़े आराम से कहा।
" नहीं-नहीं वह तो मैं कर लूंगा;,लेकिन यह गलत नहीं होगा ?"मैंने पूछा ।
"गुरु गलत दुनिया में एक ही चीज है और वह है failure . और वैसे भी तुम कौन सा गलत डिक्लेरेशन दे रहे हो ? इनकम तो सही लिख ही रहे हो ?"उसने कहा।
"थैंक यू । मैं अभी आता हूं , इसे जमा करके, वैसे मेरा नाम सूरज है ।"
मैंने कहा। "और मेरा नाम अनुराग है " उसने कहा।"डे ?मतलब बंगाली" मैंने पूछ लिया। जवाब में वह सिर्फ हंस दिया । क्या मैं तुम्हे दादा बुला सकता हूँ? मैंने पूछा।"कुच्छो कहो गुरु! तुम्हारी जुबान तुम्हारी मर्जी! राजा... ई बनारस हौ।"दादा ने हँसते हुए कहा।
अभी हम बात कर ही रहे थे कि तभी एक और लड़का परेशान-परेशान फिरता दिखाई दिया ।कभी वह दौड़ कर काउंसिल रुम में जाता , कभी डींन के कमरे में । 'दादा' ने इसी बीच उसे रोककर पूछा "कोई परेशानी है ?"
"हां यार ! देखो ना , मैं फादर की इनकम सर्टिफिकेट लाना ही ....।"उसके इतना कहते ही हम दोनों ठठा कर हंस पड़े ।
उसे बहुत भोंचक्का देखकर दादा ने मुझसे कहा "तुम जाकर अपना प्रोसीजर पूरा करो, तब तक हम इनको बाप बनाने का प्रोसीजर बताते हैं। "
"ओके "मैंने जाते वक्त उस लड़के से कहा-
" मेरा नाम सूरज है और तुम्हारा ?"जयवर्धन शर्मा "उसने कहा (पृष्ठ 15)
रैगिंग के बारे में प्रस्तुति देखिए
"सूरज और अनुराग डे! आप दोनों ठीक 6 बजे यानी अब से 15 मिनट बाद कॉमन रूम में पहुंचिए । आज आपका इंट्रो है ।" बाहर से आती एक रोबीली आवाज ने हमारे जोश और होश दोनों में बर्फ मिला दिया ।
"कौन था भाई " मैंने फुसफुसाते हुए पूछा।
" सीनियर्स। हमारा रैगिंग राउंड शुरू होने वाला है। "दादा ने भी धीरे से कहा ।
"क्या? रैगिंग ?लेकिन यहां तो होता नहीं है।" मैंने डर छुपाते हुए कहा ।
"जहां सीनियर्स हैँ,वहाँ रैगिंग है बेटा।" दादा ने टी-शर्ट पहनते हुए कहा।
" लेकिन गेट पर ही तो लिखा है यह एंटी रैगिंग जॉन है !"मैंने रुआँसी आवाज में कहा।
" गेट पर तो यह भी लिखा है कि एंटी स्मोकिंग जोन है; तो क्या हम फूँक नहीं रहे थे? और अब तुम रोने मत लग जाना! आराम से जाएंगे ।जो बोलेगा भाई लोग, बिंदास करना है। वैसे भी रात है और यहां हम सब लड़के ही तो हैं ।" दादा ने ढाढस बंधाते हुए कहा ।
"हम सुने हैं हीटर पर सू-सू करने को कहता है सब!" मेरा डर अब आवाज में आ गया था
"अब हीटर पर कराए, चाहे लीटर भर कराए; करना तो पड़ेगा गुरु !चलो चला जाए भोलेनाथ का नाम लेके। "दादा ने दरवाजा खोलते हुए कहा ।
बाहर निकलने पर मालूम हुआ कि रगड़ाई के कुछ नियम है। लॉटरी के अनुसार एक दिन में 5 जूनियर्स को ही रगड़ा जाएगा ।
( पृष्ठ 17)
ऊपन्यास के क्लाइमेक्स के पास पहुँचने पर सूरज और शिखा का विश्लेषण देखिए-
मैं अभी तक तय नहीं कर पाया था कि मुझे क्या करना है । हालांकि शिखा रोज ही मिलती थी और रोज ही करियर को लेकर गंभीर होने को कहती थी ;पर मेरा मन वकालत करने का बिल्कुल भी नहीं था। कम से कम अभी तो मैं आज मैं जी रहा था। आज, इसमें बनारस था, आज, इसमें शिखा थी । आज, इसमें मेरा हॉस्टल था और आज , जिसमें मेरे दोस्त थे।
" ब्रेड पकोड़ा कम खाओ ; जॉन्डिस रिलैप्स भी करता है । "दादा ने मेरे हाथ से ब्रेड पकोड़ा छीन ते हुए कहा।
" बिलरुबिन अभी ठीक है मालिक। पेपर में दबाकर सारा तेल निकाल देते हैं , तब खाते हैं ।" मैंने कहा ।
"ब्रेड का तेल निकाल देते हो कि पेपर का तेल निकाल देते हो बे । देखो तो ! सानिया मिर्जा के फोटो पर तेल लग गया। साला, कुछ भी पता नहीं चल रहा है। अब सानिया को देखने बालकिशन की दुकान पर जाना पड़ेगा ।" जयवर्धन ने आँख तरेरते हुए कहा।
" तो हॉस्टल में पढ़ लेना । "मैंने तरीका बताया।
" हॉस्टल में ना, घंटा मिलेगा । भाई लोग ले गया होगाआऊंगा कमरा में।फोटो काट-काट चिपकाएगा ।" जयवर्धन ने चाय पीते हुए कहा ।
"अलंकार का रूम देखा है ?रूम को नाई का दुकान बनाया है ।ब्रेड दो ना बे!" मैंने छीनने की कोशिश की ।
"गाड़ी का बहुत शौक है अलंकार को, ऑडी से लेकर हमर तक सारा मॉडल का फोटो लगाया है। "दादा ने कहा ।
"कमाल कमाल का लोग है यार !"जयवर्धन सानिया मिर्जा की तस्वीर देखने की कोशिश करते हुए बोला ।
"ढोला तेरी कमाल ओए
निक्की जी गल तु रुश्दे र
ढोला तेरी कमाल ओए" जयवर्धन की पीठ पर तबला बजाते हुए मैंने गाने की तान खींची ।
" मेरे मरने से पहले क्या एक बार हिंदी में भी गाना सुना देगा ? हिब्रू में गाना बनारस में किसको सुनाते हो ?" दादा ने चाय का कुल्हड़ फेंकते हुए कहा ।
"अरे मरतब अली का नया एलबम आया है पाकिस्तान में ।"मैंने कहा (पृष्ठ 101)

उपन्यास का नाम बनारस टॉकीज रखा गया इसमें बनारस भी कम है और टॉकीज तो है ही नहीं । हां अगर लैपटॉप पर लगातार फिल्में देखने से टॉकीज हो सकता है तो है । लेकिन टॉकीज की गरिमा, टॉकीज का वातावरण, टॉकीज का माहौल टॉकीज के प्रतीक का अर्थ नहीं है । तो जिस तरह भाषा को लेकर सत्य व्यास ने नए प्रयोग किए, जिस तरह कथानक को लेकर, संवाद को लेकर नए प्रयोग किए हैं ऐसा ही सत्य व्यास ने शीर्षक को लेकर भी नया प्रयोग किया है । यह उपन्यास जिसमें बनारस केवलभारत के कोई शहर स्थान विशेष को दिखाने भर के लिए आया है, कि हां वह वाकई दुनिया में कहीं अस्तित्व में है । अस्सी घाट के बताने के लिए आया है कि नदी है , गंगा है तो घाट भी होगा और बनारस की बात है इसलिए घाटों का वर्णन होना चाहिए तो अस्सी घाट है । लेकिन जिस रूप में काशीनाथ सिंह जिक्र करते हैं काशी का अस्सी में य्या अपनी संस्मरण किताब में , वैसा अस्सी घाट नहीं है । वैसा बनारस नहीं है । राँड़ साँड़ सीडी सन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी "जैसी काशी नहीं है, बीएचयू नहीं है ।
फिर भी एक हॉस्टल है और उस स्थल को वह हॉस्टल कहीं का भी हो सकता है । भाषा जरूरी थी, तो बनारसी है, कहीं की भी हो सकती थी। उसको लेकर भी यह दिलचस्पी से लिख देना और आखिरी तक बांधे रहना सराहनीय है।
अंत में बहुत सारे रहस्य रोमांच उत्पन्न करना , सत्य व्यास की भाषा का कमाल है , आधुनिक भाषा का कमाल है, कल्पनाशीलता का कमाल है । इसके लिए उनकी सराहना की जानी चाहिए।

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