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स्वयँ प्रकाश-ईंधन

पुस्तक समीक्षा
उपन्यास। ईंधन
स्वयँ प्रकाश


जिनका अपने संचालन में कोई हाथ ना हो
जन्म जन्म रहे जाएं अकेले कोई साथ ना हो
मुकुट बिहारी सरोज

आज की हिंदी कथा साहित्य के सर्वश्रेष्ठ और बेहद महत्वपूर्ण कथाकार स्वयं प्रकाश का उपन्यास ईन्धन इक्कीसवीं सदी की कारपोरेट जगत की कथा है। जिसमें मनुष्य को संसाधन बना देने की बुरे परिणाम दिखने लगे हैं । आज का युग कारपोरेट युग है। रोहित यह भली प्रकार जानता है कि वर्तमान युग में मानव की उपयोगिता सिर्फ इतनी सी है कि उसे सांप्रदायिक शक्तियां और बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक इंधन के रूप में उपयोग करें फिर भी वह कभी सब कुछ जानते हुए भी खजाने में भी खुद को ऐसी शक्तियों के हवाले कर देता है ।
ग्लोबलाइजेशन के बाद बदल गए भारतवर्ष के कारपोरेट जगत की दास्तान कहता उपन्यास ईन्धन रोहित और स्निग्धा के थोपे गए विवाह और दांपत्य की करुण कथा कहता है, जिसमें हर बड़े आदमी के सामने छोटा आदमी गधा है, तो हर बड़े शहर की तुलना में छोटा शहर गंदा और गांव होने की अवधारणा विद्यमान है । छोटे मजदूर से उठकर एक बड़ी हस्ती बनते जाने के भीतर भीतर रोहित बहुत कुछ खोता चला जाता है। कुछ नैतिकता है और मान्यता भी है लेकिन चालाक व्यवसाय जगत की एक तेज ठोकर उसे अपनी जानी समझा समझी दुनिया में वापस ले आती है।
इसमें जहां आधुनिक और अनछुए आर्थिक जगत की पहली बार खुली विकृति दिखा देती है।

उपन्यास कई दृश्यों से आधुनिक है । इसमें जहां आधुनिक और अंशु के आर्थिक जगत की बड़ी सूक्ष्म और आधिकारिक पड़ताल मौजूद है, वही उपन्यास के लिए बनाए गए तमाम कसौटियों को ध्वस्त अपने आप में प्रश्न इयत्ता लिए हुए यह उपन्यास लचर वाली लिजलिजी भावुकता की जगह ठोस विचार को अपना केंद्र बनाकर चलता है। भूमंडलीकरण और बाजारवाद का विरोध, सतही नारों और सैद्धांतिक बस के द्वारा ना करके लेखक ने भारतीय जनजीवन पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभावों का जैसा सटीक चित्रण किया है, वह लेखक के सुख अनुशीलन और विराट कल्पनाशीलता वास आफ विजन को दर्शाता है।
उपन्यास के अध्याय रोहित और स्निग्धा के आत्म विश्लेषण के रूप में बारी-बारी से पाठक के सामने आते हैं । जिनसे न केवल कथा आगे बढ़ती है वरन उसमें गहराई भी आती है और सच्चे विविधता तथा दृष्टि कोण भी प्रकट होता है। कस्बे के धनाढ्य सेठ की लड़की स्निग्धा अपनी सखी सहेलियों को चौंकाने के लिए एक गरीब और पिछड़े युवक रोहित से विवाह का निर्णय लेती है और एक तरह से जबरन ही उससे शादी कर लेती है। स्निग्धा के पिता को यह विवाह पसंद नहीं इस वजह से वे अपने घर पर आयोजित मैरिज पार्टी में शामिल नहीं होते बाहर चले जाते हैं। स्निग्धा अपने पिता का घर छोड़ कर पति के एक कमरे के मकान में रहने के लिए चली जाती है जो की सहेलियों को बताने का उसका एक नया झटका है। फिर स्निग्धा और रोहित के बीच शुरू हो जाता है दोनों का लंबा द्वंद्व। जो पिछड़ेपन से आधुनिकता गरीबी से अमीरी का भी द्वंद्व है। लेकिन 50 के दशक की फिल्मों की तरह बायवी नहीं बल्कि वास्तविक और विश्वसनीय ढंग से लाया गया उत्पन्न हुआ द्वंद्व है, नौकरी बदल कर रोहित एक बेहतर निर्णय स्थिति पा लेता है और चार्टर्ड अकाउंटेंट की परीक्षा पार करते ही वह अपना शहर छोड़ कर सीधा मुंबई का रूख करता है । मुंबई के तेज गति वाले जीवन के रहन सहन में खोकर अपने ससुर की तथाकथित अमीर बेटी यानी पत्नी की कथित आधुनिकता से बहुत बहुत आगे पहुंच जाता है।
स्निग्धा अब ग्रामीण है उसके विचार, उसका सब गांव है । मुंबई पहुंच कर भी इतनी तमीज़दार औरत घर की औरत बनी रहती है जबकि रोहित की दुनिया विश्व व्यापार मल्टीनेशनल कारपोरेट जगत में नए से नए छाती चली जाती है। उनका एक पुत्र बेटू किशोरावस्था में पहुंचता है तो जेनरेशन गैप का नजारा सामने आता है ,पिता की व्यस्तता के कारण मां-बाप के म्यूजिक से दूर पहुंचकर वह मां बाप के मनु जगत से दूर पहुंचकर सांप्रदायिकता की ओर बढ़ता चला जाता है । बेटू के ही कारण रोहित और स्निग्धा का जीवन बदलता है और वे वापस अपनी अपनी दुनिया में लौट आते हैं । कथा का यह हिस्सा बेहद संवेदनशीलता लिए हुए हैं ।
आरंभ में रोहित को डोमिनेट करती स्निग्धा और उसके पिता बाद में एक गुमनामी में डूबते हैं ,पर रोहित उन्हें जिस तरह डोमिनेंट करता है वह एक क्षण को तो अविश्वसनीय लगने लगता है ।
यह उपन्यास कई तरह के प्रश्न उठाता है जिनमें सांप्रदायिकता से कारपोरेट जगत की पारस्परिक बेईमानी या गलबहियाँ और कारपोरेट जगत के लोगों की मानसिकता तथा एक लड़की का केवल सहेलियों पर असर डालने के लिए अचानक अपने भविष्य को दांव पर लगाकर एक गरीब युवक से शादी कर उसके एक कमरे में चले आना। लेकिन अपनी ठसक ना छोड़ना, अपना आधुनिकता बोध ना छोड़ना ,अपनी अमीरी की जिद न छोड़ना एक अजीब से मनोजगत का चित्रण है ।
उपन्यास का सार यही निकलता है कि चाहे सांप्रदायिक शैतान हो और चाहे कारपोरेट जगत के पास करते बड़े-बड़े कूड़े के ढेर नुमा संस्थान और उसमें मशीन की तरह बैठे आदमी , सबके लिए मनुष्य एक संसाधन है ,या कहें कि ईन्धन जो अपनी योजनाओं और मशीनों को चलाने के लिए उपयोग में आते हैं ।
कथाकार स्वयं प्रकाश की भाषा को लेकर सदा से तारीफ होती रही है । इस उपन्यास में उनकी भाषा जहां खिलंदड़ी का टच लिए हुए एक आधुनिक होती हुई भाषा है । वहीं उनके वाक्यों में अनिवार्य तौर पर इस कथानक के लिए जरूरी होने वाले अंग्रेजी और कारपोरेट जगत के शब्द आए हैं ।
संवाद छोटे हैं । कथानक के आसपास उप कथाएं या परी कथाएं कम है उपन्यास का आकार छोटा है । कथा योजना हमेशा की तरह अच्छी है पर बहुत कुछ उपन्यास में फिल्मी जैसा असर दिखता है। यह उत्तर आधुनिकता का चमत्कार है ।उत्तर आधुनिक जगत में घटनाएं अविश्वसनीय तरीके से घटती हैं। कभी वे केवल कथा चमक चमत्कार के लिए आती हैं तो कभी पाठक को एक सुखद या दुखद आश्चर्य से भर देने के लिए आती हैं। जैसे जादू हो रहा हो ,जैसे चमत्कार हो रहा हो ,ऐसे देश में हो रहा हो। उत्तर आधुनिकता और वर्तमान कारपोरेट जगत के एक छोटे से हिस्से को उद्घाटित करता स्वयं प्रकाश का यह उपन्यास अपने तौर पर मान्यता व्यवसायिक ता औद्योगिककरण ग्लोबलाइजेशन और मानवीय भावनाओं के चरण के खिलाफ आरंभ किया गया कथा युद्ध है ।
ईंधन पठनीय और एक छोटा उपन्यास से इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।

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