आधार - 12 - व्यक्तित्व निर्माण, जीवन का प्रथम चरण है। Krishna Kant Srivastava द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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आधार - 12 - व्यक्तित्व निर्माण, जीवन का प्रथम चरण है।

व्यक्तित्व निर्माण,
जीवन का प्रथम चरण है।
सुबह सवेरे उठते ही जब हम मोबाइल को जांचते हैं तो सर्वप्रथम हमारा ध्यान वाटस ऐप पर भेजे गए संदेशों पर केंद्रित हो जाता है। इन संदेशों में लगभग 90 प्रतिशत संदेश वे संदेश होते हैं, जो हमें हमारे चारित्रिक छवि को बेहतर बनाने के लिए दिए जाते हैं। यदि हम इन संदेशों के प्रेषकों के चरित्र का सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि अमुक व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके द्वारा भेजे गए संदेशों से पूर्णतया विपरीत प्रकृति का है। यह बात इतना तो अवश्य इंगित करती है कि व्यक्ति आदर्श समाज का निर्माण तो चाहता है परंतु अपने चारित्रिक गुणों में यथोचित परिवर्तन करने का लेसमात्रा भी प्रयास नहीं करना चाहता। वह स्वयं को सुधारने के स्थान पर दूसरों को सुधरने की सीखें देता है। जबकि व्यक्तित्व निर्माण की सबसे पहली आवश्यकता यह है कि दूसरों को सुधारने के स्थान पर स्वयं के चारित्रिक गुणों में सार्थक परिवर्तन करने के प्रयास होने चाहिए। जब हम पूर्ण सदचरित्र होंगे, तो हमारे गुणों की छवि स्वतः ही समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत होगी। अतः मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के निर्माण की ओर अग्रसर होना चाहिए। अपने विचारों व कार्यशैली में प्रतिदिन मामूली परिवर्तन कर हम आदर्श व्यक्तित्व का एक उदाहरण बन सकते हैं।
व्यक्तित्व केवल सलीके से पहने परिधानों व आकर्षक चेहरे से नहीं बनता, बल्कि व्यक्तित्व के कई माप दंड होते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, “व्यक्ति के नैसर्गिक, मनोवैज्ञानिक एवं व्यवहार परक तत्वों का सामुहिक समन्वय व संयोजन संपूर्ण व्यक्तित्व की पहचान है।” संपूर्ण व्यक्तित्व बनता है विचार, आचार, विचारों की समझ, दूरदर्शिता, सुसंस्कृत आचरण, व्यवहारिक सोच, कार्य करने के तरीके और जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण से।
व्यक्तित्व निर्माण का सबसे बड़ा बाधक आलस्य है। आज के काम को कल पर टाल देने की प्रवृत्ति ही आलस्य है। प्रत्येक कार्य को नियमित रूप से करते हुए पूर्व निर्धारित समय पर पूर्ण कर लेने की प्रवणता हमारी व्यक्तित्व निर्माण की श्रंखला का एक सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हो सकती है। ऐसा करने के लिए हमें अपनी दिनचर्या को पूर्ण व्यवस्थित करने की आवश्यकता होती है। दिनचर्या की व्यवस्था करने के प्रयास में हम अपने सभी कार्यकलापों को व्यवस्थित करना प्रारंभ कर देते हैं। यही व्यवस्था हमारे व्यक्तित्व निर्माण को पूर्णता प्रदान करती है। प्रातः काल से ही दिनचर्या का निर्धारण कर लेना और दिन भर में इसे पूर्ण मनोयोग से पूरा कर लेना, व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
यह जीवन परिवर्तनशील है, इस सच को आप जितनी जल्दी स्वीकार कर ले उतना ही बेहतर है। जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं होता जो परिवर्तनीय न हो। हर चीज बदल जाती है। इसलिए भूतकाल के ख्यालों में न खोये रहे, अपने वर्तमान जीवन को जीये और हर पल को बेहतर करते जाए।
रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः काल जल्दी उठने की आदत को अंगीकार कर समय का महत्वपूर्ण उपयोग किया जा सकता है। प्रातः काल में जो भी कार्य किया जाता है, वह चाहे व्यायाम हो, अध्ययन हो, भजन हो या ईश्वर का ध्यान हो सभी चार गुना प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यदि कोई व्यक्ति ब्रह्म मुहूर्त का एक घंटा रोज उपयोगी अध्ययन में लगाता रहे तो कुछ ही समय में वह व्यक्ति इतना ज्ञानवान हो सकता है कि उसकी बुद्धि पर स्पर्धा की जा सके।
गंदगी से घृणा और स्वच्छता से प्रेम को अपना कर हम व्यक्तित्व निर्माण में चार चांद लगा सकते हैं। जब हम अपने शरीर, वस्त्र, फर्नीचर, स्टेशनरी, पुस्तकें, बर्तन, कंप्यूटर, कार, मोटर-साईकिल, आदि दैनिक जीवन के उपकरणों को स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखते हैं, तो हमारे शरीर में कार्य करने की एक अतिरिक्त ऊर्जा का सृजन होता है। यही अतिरिक्त ऊर्जा, उत्साह व जोश के रूप में उत्पन्न होकर, कार्य की गुणवत्ता को कई गुना निखार कर समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है।
भौतिक स्वच्छता के साथ-साथ हमें अपने चारित्रिक स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ईमानदारी चारित्रिक स्वच्छता की पहली सीढ़ी है। सीमित संसाधनों का उपयोग और मितव्यता पर अंकुश ही ईमानदार व्यक्तित्व का गुण है। मितव्यता, सीमित समय में असीमित परिसंपत्ति एकत्रित कर लेने की चाह उत्पन्न करती है। जिस की पूर्ति के लिए मनुष्य को अपनी ईमानदारी से समझौता करना पड़ता है।
सद्व्यवहार का अभ्यस्त होना व सज्जनोंचित शिष्टाचार बरतना व्यक्तित्व निर्माण के पथ की दूसरी साधना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में दूसरों के साथ मिलजुल कर रहना पड़ता है। समाज में स्नेह व सौहार्द का वातावरण तभी बना रह सकता है, जब दूसरों के साथ शालीनता का व्यवहार किया जाए। अहंकारी व्यक्ति दूसरों को तुच्छ समझते हैं। कटु वचन एवं दुर्व्यवहार करते रहते हैं। ऐसा कर व्यक्ति अपना सम्मान खोता है, स्तर गिराता है और घृणास्पद बन जाता है। समयांतराल में क्रोधी व अशिष्ट व्यक्ति स्नेह-सहयोग से वंचित होकर एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाता है। दुष्ट-दुराचारी बनकर यदि कोई व्यक्ति साधन संपन्न हो भी जाता है तो ऐसे व्यक्ति को समाज में यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं हो पाता।
स्वस्थ व सार्थक चिंतन भी व्यक्तित्व निर्माण के अहम गुणों में से एक माना जाता है। समय की बर्बादी की तरह ही, अनुपयोगी व निरर्थक चिंतन भी हमारी बहुमूल्य शक्ति को नष्ट कर देता है। दुष्ट चिंतन तो आग से खेलने के बराबर है। आक्रमणकारी व षड्यंत्रकारी कल्पनाएं करते रहने से मन निरंतर कलुषित होता चला जाता है। ऐसे विचारों के निरंतर उत्सर्जन से मस्तिष्क की विचार क्षमता का हराश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति उपयोगी योजनाएं बनाने के लिए गहराई तक विचार करने की क्षमता को खो देते हैं। अपने मन मस्तिष्क का सत्यानाश कर बैठते हैं। कार्य को दिलचस्पी के साथ तथा खेल भावना से ओतप्रोत करने की आदत डाल कर दुर्बल से दुर्बल व्यक्ति भी बड़े से बड़े कार्य को पलक झपकने तक पूर्ण कर लेने की क्षमता उत्पन्न कर सकता है।
वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और योगाभ्यासियों में यही विशेषता होती है कि वे अपने मस्तिष्क को निर्धारित प्रायोजन पर ही केंद्रित रखते हैं। इसी का परिणाम होता है कि वे अपने प्रयासों में शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त करते हैं।
व्यक्तित्व निर्माण का महान लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अवांछनीयताओं का क्रमशः परित्याग करना ही पड़ेगा और उपयोगी गुण कर्म स्वभाव को व्यवहारिक जीवन में समाविष्ट करने का साहस पूर्ण प्रयास करना ही होगा।
इन सभी प्रयासों के साथ ही साथ व्यक्तित्व निर्माण के लिए कुछ दार्शनिक सिद्धांतों को भी अपने अंतकरण में आत्मसात यह मानकर कर लेना चाहिए कि प्रस्तुत तथ्य हमारे पौराणिक वेदों में अत्यंत अनुभव के आधार पर निर्धारित किए गए हैं।
आत्मा को परमात्मा का अंश मांगते हुए हमें ऐसे कार्यों से सर्वदा बचना चाहिए जिससे किसी अन्य की आत्मा को दुख पहुंचता हो।
मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानते हुए, अपने जीवन काल में अधिक से अधिक प्राणियों को सुखमय जीवन के लिए मदद पहुंचाने का कार्य करना चाहिए।
उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तव्य की नीति अपनाकर आत्मा को परमात्मा और नर को नारायण स्तर तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए।
अपने कर्तव्य को छोटे दायरे में थोड़े लोगों तक सीमित न रखकर अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाने का कार्य करना चाहिए।
जितनी श्रद्धा और जागरूकता के साथ उपरोक्त तथ्यों को अपनाया जाएगा व्यक्तित्व निर्माण उतना ही सरल और सफल होता चला जाएगा।
परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हमें चीते की फुर्ती, सज्जन व्यक्तियों की भांति वेशभूषा, शालीन संभाषण, प्रसन्नचित चेहरा, मिलनसारिता, संतुलित मस्तिष्क, सादगी युक्त जीवन और श्रेष्ठ संस्कारवान व्यक्तित्व प्रदान करें, जिससे हम एक शानदार व्यक्तित्व के स्वामी बन कर संसार में देवतत्व को प्राप्त करें।
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