तलाश - 5 डा.कुसुम जोशी द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तलाश - 5

#तलाश -5
गंताक से आगे

कविता बड़े हैरान होकर उस आकर्षक चित्र को देखते रही, और हैरान थी कि इतनी खूबसूरत और सार्थक पेंटिंग में उसकी नजर आजतक क्यों नही पड़ी,
जिसमें दो महिलायें एक चट्टान में एक दूसरे की ओर पीठ किये बैठी हैं , जिसमें उदास चेहरे वाली एक महिला की और एक नदी बह रही है जिसके किनारे कुछ पेड़ थे, पर उनमें पतझड आया हुआ था, सामने डूबता सूरज अपनी तेज खो चुकी रश्मियों के साथ दिखाई दे रहा है, उस महिला की उदासी ,चेहरे का फीकापन उसके दर्द को बयान कर रहा था, वही पीठ किये बैठी दूसरी स्त्री दूर पहाड़ी से उगते सूरज की चमक से चमत्कृत सी मुस्कुरा रही थी, पूरी पहाड़ी हरे भरे पेड़े से आच्छादित थी, नीले आकाश में पंछी उड़ रहे थे, कविता उस पेटिंग को देख समझ गई ये सुजाता दी अपने तब और अब की बात कर रही है, और वह दोनों स्त्रीओं के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी,
कुछ समझ में आया कविता! कहते हुये सुजाता ने कविता को चाय का कप पकड़ाया, कविता ने एक बार पेन्टिग को देखा फिर सुजाता दी को ध्यान से देखते हुये बोली "दीदी आप भी क्या हैं कहना ही मुश्किल है,अॉलराउन्डर .. क्या शानदार चित्र है , पूरी कहानी कह दी एक चित्र ने, आप चित्रकार भी बहुत अच्छी हैं,
बस जब मन बहुत विचलित होता था तो कला संगीत में हौसला ढूढ़ती थी, मेरी परिस्थितियां बहुत विचित्र रही, अल्हड़ सी उम्र में सब कुछ पाया और अचानक ही सब कुछ गवां दिया, तुम तो भाग्यशाली हो कि नौकरी सिर्फ समय बिताने के लिये कर रही हो, अपनो से इतनी दूर आकर ये नौकरी मेरी जरुरत और मजबूरी थी, पर इसी नौकरी ने मुझे आत्मविश्वास से भर दिया,
ये तो है दीदी, पर जरुरी तो नही की मुझ जैसे भाग्यशाली लोग नौकरी समय बिताने के लिये ही करें, अपने आप की तलाश भी तो कारण हो सकता है, अनायास ही कविता कह गई,
हां हो सकता है ..इससे इंकार नही है, पर कई बार गृहस्थी की व्यस्ततायें इतनी होती हैं कि कभी कभी स्त्री को अपना समूचा अस्तित्व होम करना पड़ता है,अपने आप को ही भूल जाती है, सुजाता एक सांस में कहती चली गई और फिर रुक कर अपनी नजरें कविता के चेहरें में गड़ा दी,
"दीदी स्त्री अपने अस्तित्व को घर में होम करने से नही डरती है पर घर के लोगों को इसका भान हो और उसके हिस्से की इज्जत उसे मिले तभी ना", कहते कहते कविता की आवाज में अजीब सी उदासी हावी होने लगी,
अरे तुम तो उदास हो आई हो, ऐसा क्या हो गया, क्या शमित एक अच्छा पति नही है?
अरे नही ..नही..सब अच्छे हैं, कविता को अचानक लगा कि वो क्या बोल गई है,उसे लगा कि इस भावुकता में वह कहीं अपना ढ़का छुपा पारिवारिक आवरण न खोल बैठे,

सुजाता कविता के संकोच को समझ रही थी, पर महसूस कर रही थी कि कविता की घुटन चरम पर है,
"कविता जब मैं आन्तरिक संकट में थी तो मेरे माता पिता मेरे साथ खड़े थे ,अपनी हर घुटन को या अगर कोई कुछ कह दे और उससे उपजे संत्रास को मैं मां बाबा के साथ शेयर करती थी, और रिलैक्स हो जाती थी, इसलिए मुझे लगता है सबके पास कोई न कोई ऐसा अपना होना चाहिए जिससे कह कर मन हल्का हो जाय",
"हां दी आप ठीक कह रही हैं, आप का इशारा अगर मेरी ओर है तो आप ठीक समझ रही हैं कि मेरे पास कोई मेरा राजदार नही है", फीकी मुस्कान बिखेरती हुये कविता बोली,
"जरुरी नही कि हर एक की फैमिली लाइफ में बिखराव हों, पर कई छोटी छोटी घटनायें ऐसी होती हैं कि हम कुण्ठित होने लगते हैं और लाख छिपायें पर चेहरा चुगली कर ही देता हैं",यह कह कर सुजाता ने कविता की पीड़ा को छूने की कोशिश की,
दीदी आप चेहरें और शब्दों को पढ़ने में माहिर हैं,असल में आज सुबह वैभवीदी का फोन आया था,बातों बातों में बच्चे के प्लान के लिये पूछने लगी, पर उन्हें क्या बताती मैं..
क्यों ! ऐसी क्या बात है कि दीदी को नही बताई जाय ? दीदी हैं तुम्हारी वो, कोई भी समस्या हो , या अभी नही सोच रहे हो, बता सकती हो,
कहा तो यही है पर मां के बारे में सोच कर सब कुछ कह नही पाती हूं,पारिवारिक समस्या के समाधान में वैभवीदी बहुत भी बहादुर हैं, आर और पार की बात करती हैं पर मैं ऐसा नही चाहती,
पर ये कोई बड़ा इश्यू तो नही जो तुम परेशान हो रही हो, छोटी छोटी बातें तो हर घर में आम बात हैं पर इसका मतलब ये तो नही कि आर पार की बात हो,
सुजाता दी क्या बताऊँ , आप को बता कर आपको हैरान ही कर सकती हूं, ..मैं अजीब से परिवार में रह रही हूं, शमित कुछ कहते नही हैं न भला न बुरा,
मुझे पहले किसी भी चीज की जरुरत होती तो मैं कह देती थी, वो बिना प्रत्युत्तर दिये रुपये रख देते थे,अब मैं सर्विस कर रही हूं तो नही मांगती, पर वह अपनी ओर से पूछने भर की औपचारिकता नही निभाते,न उन्हें मुझसे भावात्मक लगाव है न शारीरिक ...
मांजी हैं,पर वो तो मुझे इंसानों में ही नही गिनती, उनके लिये मुझसे ज्यादा महत्व तो सजावटी समान का है,कम से कम उन्हें सहलाती हैं, मन आता है तो झाड़ पोछ भी देती है,
सुजाता हैरानी भरे भावों से सहनशील कविता को एकटक देख रही थी जो तीन साल से इस नाम भर के रिश्ते को निभाये जा रही थी बिना किसी से शिकायत किये,
"अरे! तुम सच में रहस्यमय लोगों के बीच में फंसी हुई हो, ये सब तो हम सोच भी नही सकते, किसी के चेहरे से उसकी खुशी और दुख को नापना बहुत मुश्किल होता है उसको समझने के लिये उसके मन में झांकना जरुरी है", इन शब्दों के बाद सुजाता को समझ में नही आ रहा था वह कविता को कैसे सान्त्वना दे,
दी पर मन को समझना कौन चाहता है, मन को समझते तो शमित से कोई शिकायत ही नही होती, मैं इन परिस्थिति में भी उनके साथ रहने को तैयार हूं, बस वह कम से कम भावात्मक रुप से तो मुझे जाने...समझे, ये कहते हुये कविता की रुलाई फूट गई ...
क्रमश:
डॉ.कुसुम जोशी
गाजियाबाद, उ.प्र.