घनी छाँव Sneh Goswami द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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घनी छाँव

घनी छाँव

महानगर की रेलमपेल । सब भागदौङ में व्यस्त हैं । घर के चारों ओर कंक्रीट का जंगल बना है , कहीं कोई जान पहचान नहीं । जो जानते हैं ,वे भी अपने आप में इतने अस्तव्यस्त हैं कि शायद ही कभी दुआ सलाम होती हो । सुबह सब हाथों में टिफन थामें फ्लैट से नीचे उतरते हैं तो सामने कैब तैयार खङी होती हैं । भागकर चढने के अलावा कोई चारा नहीं ।
नवीन को इस शहर में आए हुए दस साल होने को हैं । यहाँ इस शहर में पढने आया था , पढाई पूरी हुई तो नौकरी भी यहीं ढूँढ ली और हमेशा हमेशा के लिए यहीं का हो गया ।
इस बीच नीता से शादी हो गयी , दो प्यारे से बच्चे हो गये , नीता भी एक दफ्तर में काम करने लगी । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि शहर में बच्चा चोरी और बलात्कार की घटनाएँ अचानक बढ गयीं । नवीन और नीता को अब दिन में आफिस में चैन न आता , न रात में नींद , हरपल एक अदृश्य भय घेरे रहता । नौकरानी पुरानी थी और ईमानदार भी फिर भी थी तो गैर ही इसलिए संशय नागफनी की तरह जब तब सिर उठा लेता ।

घर आने पर सीसीटीवी की फुटेज कई कई बार खंगाली जाती ,खुछ भी संदेह करने लायक नहीं मिलता पर डर पीछा ही नहीं छोड़ रहा था ।
आज भी इन्हीं संशयों से जूझते हुए वह घर पहुँचा तो भीतर से किलकारियों और कहकहों की आवाजें आ रही थी । ऐसा तो कभी नहीं होता । हर रोज जब वे घर लौटते हैं ,बच्चे या तो कम्प्यूटर पर कार्टून देख रहे होते हैं या मोबाइल से चिपके हुए कोई गेम खेल रहे होते हैं । घर में एकदम शमशान जैसी शांति पसरी होती है, अजीब सी मनहूसीयत वाली शांति । आया बच्चों को टीवी या कम्प्यूटर में व्यस्त कर खुद कहीं और व्यस्त होती है । पर आज तो उल्टी गंगा बह रही थी । घर घर जैसा लग रहा था । उसने धङकते दिल से अंदर प्रवेश किया । दादा जी बिस्तर पर उल्टे हुए पङे थे । दोनों बच्चे दादा से मस्ती में लीन उनके कंधों पर सवार थे । मगरमच्छ की सवारी का मजा ले रहे थे । उसे आया देख कर बच्चे दादाजी को छोङकर एक तरफ हो गये थे ।
"प्रणाम पापा, आप कब आए?"
"दोपहर में।"

आपने अपने आने के बारे में बताया नहीं । मैं या नीता आपको स्टेशन से ले लेते ।
"तू तो आता नहीं , मैने सोचा मैं ही दस पंद्रह दिन तेरे पास लगा आऊँ।"
उसे लगा , तेज धूप में चलते- चलते अचानक एक घने बरगद की छाँव तले आ गया है। आज रात वह निश्चिंत होकर सो सकेगा ।
"पापा जब तक आपका मन करे , आप रहिए।"
बेटा ,मैं सोमवार चला जाऊँगा ।
दोनों बच्चे टाँगों से लिपट गये -"हम आपको जाने नहीं देंगे।"
"मैं तो दरवाजा बंद कर लूँगा" ये आहिल था ।
पापा मंद मंद मुस्कुरा रहे थे ।