कोरोना प्यार है - 6 Jitendra Shivhare द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कोरोना प्यार है - 6

(6)

"आओ मंयक। मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी।" सुजाता ने कहा।

"कहिये आपने मुझे यहां काॅफी हाउस क्यों बुलाया?"

मंयक ने पुछा।

"मंयक। मुझे सोनिया और तुम्हारे बीच के मनमुटाव की खब़र है।"

"नहीं सुजाता! ऐसी कोई बात नहीं।" मंयक चौंका।

"देखो मंयक! ये समय संकोच का नहीं है। तुम्हारी गृहस्थी टुटने की कगार पर है और तुम अभी भी शर्म कर रहे हो।" सुजाता ने कहा।

मंयक ने काॅफी का कप टेबल पर रख दिया। उसकी नजरे स्वतः झुक गयी।

"क्या करूं सिस्टर! मैं सोनिया को खुश करने की पुरी कोशिश करता हूं। मगर वह हमेशा मुझसे नाराज़ रहती है।" मयंक बोला।

"दुनिया के भौतिक संसाधन उसे वह सुख नहीं दे सकते मंयक जो तुम उसे दे सकते हो। जिस कमी पर तुम पर्दा डाल रहे हो वह सोनिया से अलग होने पर वैसे ही दुनिया के सामने आ जायेगी।" सुजाता बोली।

मंयक स्तब्ध था।

"इससे अच्छा ये हो कि तुम अपनी इच्छा से अपना पुरा और सही इलाज कराओ। हम सब तुम्हारे साथ है। सब ठीक हो जायेगा।" सुजाता ने कहा।

"मगर इसके बाद भी सब कुछ पहले जैसा न हुआ तो?" मंयक बोला।

"तो मैं तुम्हे विश्वास दिलाती हुं की सोनिया इसे अपना भाग्य समझकर तुम्हारे साथ अपना पुरा जीवन खुशी-खुशी बिता देगी।" सुजाता ने गर्व से कहा।

"सुजाता। मुझे नहीं पता था कि बचपन में की गई छोटी-छोटी गल़तियां आगे चलकर मुझे इतना कष्ट पहूंचायेंगी।" मंयक स्वीकार्य मुद्रा में था।

यकायक काॅफी हाउस के बाहर पुलिस का पीसीआर वैन कुछ अनाउंस कर रही थी---

"शहर में धारा 144 लगा दी गयी है। सभी दुकान दार अपनी-अपनी दुकाने बंद कर घर लौट जाये। कोई भी प्रतिष्ठान खुला नहीं रहेगा। निषेधाज्ञा का पालन नहीं करने वालों पर सख़्त कानूनी कार्यवाही की जायेगी।"

पुलिस का वाहन कोरोना संक्रमण के चलते शहर में कर्फ्यू का ऐलान कर रहा था। बाजार के दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद कर रहे थे। ठेले-गाड़ी वाले सब्जी और फलों को समेट रहे थे। प्रशासन की सख्ती बढ़ती जा रही थी।

सुजाता और मंयक ने भी खिड़की से बाहर का यह दृश्य देखा।

"जब जागे तब सवेरा। कल तुम और सोनिया डाॅक्टर के चले जाओ। मैंने डाॅक्टर साहब को सब कुछ बता दिया है। तुम्हें वहां कोई परेशानी नहीं होगी।" सुजाता ने कहा।

"मैं आपका शुक्रिया कैसे करूं?" मंयक बोला।

"तुम्हारा सुखमय गृहस्थ जीवन ही मेरा शुक्रिया है। अब तुम भी सुरक्षित घर पहूंचों मैं भी निकलती हूं।" कहते हुये सुजाता घर लौट गयी।

घर पहूंचकर सुजाता ने सोनियां से आज की सभी बातें  शेयर की। मंयक डाॅक्टर के पास जाने को तैयार हो गया था यह सोचकर सोनिया के दुखी मन में प्रसन्नता का संचार हो गया।

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"दिखाईये जरा। आपने क्या लिखा।" रात के समय सुजाता ने पार्थ के हाथों से डायरी लेते हुये कहा। पति-पत्नी बिस्तर पर बेठे थे। खाना खा-पीकर दोनों की सोने की तैयारी थी।

"कुछ नहीं बस। आज दिन भर घर की यात्रा की। उसे ही शब्दों में पिरो दिया।" पार्थ बोला।

सुजाता अपने पति का लिखा हुआ संस्मरण पढ़ने लगी--

घर की यात्रा (बंद का एक दिन)

 

बंद के दिन आज सुबह देर से उठा। कोई जल्दबाजी नहीं थी। कहीं आना-जाना था नहीं। सो सुबह के दस बजे बिस्तर छोड़ा। चाय बिस्तर पर ही ले ली थी। घर की दीवारों से सामना हुआ। उन्हें पहचानने में वक्त लगा। लेकिन वे मुझे पहचान गयी। इन दिवारों को बचपन में हम भाई-बहन मिलकर रंग-रौनक किया करते थे। कितने आनंद के साथ हम अपनी-अपनी दिवार के हिस्से कर लेते थे। नीला, गुलाबी, लाल न जाने कितने रंगों से इन दिवारों को रंगीन किया था। हर दीवाली पर दिवारों पर परत दर परत चढ़ती गयी। दीवार के ऊपरी हिस्सें की टान को हाथों से छुये बिना रहा नहीं गया। इन्हीं पर लटकने का कभी नियमित अभ्यास किया करता था। सुना था ऐसा करने से शरीर की लम्बाई बढ़ती है। दरवाजे की चौखट और उस पर लगे स्टीकर बचपन की यादों मे ले गये। फिर घर के उस स्थान पर जा पहूंचा, जहां घर की अनुपयोगी वस्तुएं जमा कर रखी जाती थी। पिताजी हमेशा उपयोग से बाहर हुई वस्तुओं को स्टोर कर रखते थे। वहां वह टीवी भी दिखाई दी जिसे घर में हम सबसे अधिक प्रेम करते थे। वह कितनी ही बार खराब हुई और कितनी ही बार हमने उसे रिपेयर करवाया। स्टेबलाइजर की सहायता से वह ऑन होती थी। उस समय विद्युत के अधिक-कम वाॅल्टेज की पुर्ति आती-जाती रहती थी। इस कारण स्टेबलाइजर हर घर में होता था। स्टोर रूम में रखी उस बड़ी (वाहन) बेट्री पर भी नज़र गयी, जिसे विद्युत नहीं होने पर उपयोग किया जाता था। जिसकी सहायता से टीवी आदि चलायी जाती थी। उसे छुकर पुर्व समय की अनुभुति अनुभव कर मन द्रवित हुये बिना न रह सका। वीसीआर किराये पर लाकर रात-रात भर फिल्म देखना, मैं कैसे भुल गया? अगले दिन उन पिक्चर्स की स्टोरीस् अपने स्कूली दोस्तों को बताने में जो खुशी अनुभव होती थी उसे बयान नहीं किया जा सकता। अब मन में कुछ और ढूंढने की प्रबल इच्छा जागी। तब ही वहां मेरा पहला प्यार दिखाई दिया। लाल रंग की उस पर जंग चढ़ने लगी थी। उसके लिए मैंने कितने पापड़ बेले थे। पाई-पाई जमा की थी। कुछ दिन गन्ने की चरखी पर काम भी किया। वहां से मिले रूपये मिट्टी की गुल्लक में डाले। मेहमान जो भी हाथ में थमा देते, उनसे गोली-बिस्कुट खरीदने के बजाये एकट्ठा किया। पापा के सम्मुख कितना गिड़गिड़ाया। दादा-दादी को अपना गुस्सा भी दिखाया। कई बार तो खाना भी नहीं खाया। उसके लिए मार भी खायी। अन्ततः अपने पहले प्यार को घर ले ही आया। मेरी प्यारी सायकिल। लाल रंग से रंगीन सायकिल पर बैठकर जब भी घर से बाहर निकलता, उस पर संवारी की अनुभव बताने के लिये शब्द नहीं होते। आज कार में बैठने में भी उतनी खुशी नहीं मिलती जितनी मुझे उस समय उस सायकिल पर बैठने में होती थी। मोहल्ले के दोस्तों में मेरी अलग ही झांकी बन गयी थी। वे लोग मुझसे सायकिल की एक राइड लेने की याचना किया करते। मेरा मन होता तो देता न होता तो न देता। सायकिल को हाथ छोड़कर चलाने की कलाबाजी ने मुझे बहुत प्रसिद्धि दिलाई थी। हांलाकि इस स्टंट से एक बार मैंरे चार दांत टुट गये थे। मगर फिर भी मैंने यह करतब नहीं छोड़ा। अब छत की बारी थी। सीढ़ीयां चढ़कर छत पर पहूंचा। वहां सब कुछ शांत था। आज का पार्थ मुझे वहां कल के पुरू के रूप में पतंग उड़ाते हुये दिखाई दे रहा था। कितने आनंद से वह पतंग उड़ाता था। मोहल्लें के दोस्त मिलकर रूपये जमा करते। उन रूपयों से पतंग का धागा बनाने का कच्चा सामान खरीदते। रंग की डिबियां, कत्था, साबुदाना, सारस, धागे की भिन्न-भिन्न आकार की डिब्बीयां। ये सब दुकानों से खरीदा जाता। फिर एक टीन के रिक्त डब्बे की जुगाड़ कर तीन ईंटों की छोटी भट्टी बनाई जाती। इस भट्टी में कागज-पन्नी बीनकर आग सुलगाई जाती। डिब्बे में पानी भरकर उक्त सभी कच्चा माल उसमें उड़ेल दिया जाता। इस द्रव्य पदार्थ को आग में खुब उबाला जाता। तब तक अन्य मित्र अनुपयोगी बिजली की ट्यूबलाइट की व्यवस्था कर लेते। इस ट्यूबलाइट को बारीक महीन पीस लिया जाता। इसके बाद द्रव्य पदार्थ सें धागा डुबोकर, कांच के उस महीन पाउडर से लतपथ कर धुप में सुखा लिया जाता। धागे को पुनः लकड़ी नुमा मांझे में गोल-गोल लिपटाकर इकट्ठा कर लेते। फिर आरंभ होता पतंग बाजी का खेल, जो संध्या होने तक चलता। जब तक घर से कोई लेने नहीं आता, मजाल है हम मैदान छोड़ दे।

कपड़े धोने की उस बहुत पुरानी मोगरी से भी सामना हुआ। यह वही थी जिसे दादाजी बाजार से खरीदकर लाये थे। यह नई नवेली और भारी-भरकम थी। इसकी ताकत का अंदाजा मुझे तब हुआ जब एक बार दादाजी के द्वारा पी कर फेंकी गये बीड़ी के टुकड़े पीने का शौक़ मुझे चर्राया था। बीड़ी पीते हुये एक दिन रंगे हाथ पकड़ा गया। पिताजी ने उसी मोगरी से मेरी धुनाई कर दी। वो तो मम्मी ने बचा लिया वरना आज यह लेख नहीं लिख रहा होता। दुसरी बार फिर उस मोगरी ने मुझे चारों खाने चित किया था। बात तब की है जब मैं सोलह-सत्रह वर्ष का रहा हूंगा। मोहल्ले में नजदीक ही एक किरायेदार आन बसे। उनकी बेटी को मोहल्ले में जिसने भी देखा, मोहित हुये बिना नहीं रह सका। मेरे दोस्त तो उसके इर्द-गिर्द ही जमे रहते। मैं भी पीछे कहां रहने वाले था। सीधे गुलाब का फुल तोड़ लाया। और देने पहूंच गया  उस पड़ोसन को। वह लड़की भी राजी थी। उसने फूल क्या एक्सेप्ट कर लिया, दुश्मनों के सीने पर सांप लौट गये। मुझे चिढ़ाने का सिलसिला चल पड़ा। जब यह बात उस किरायेदार को पता चली तब उसने अपनी बेटी की जमकर पिटाई की। वह मेरे घर भी शिकायत करने आ पहूंचा। मां ने बात संभाली और शाम को पिताजी से मेरी शिकायत करने का आश्वासन देकर उसे विदा किया। मैं शाम का सोच-सोचकर थर्र-थर्र कांप रहा था। देर शाम तक घर नहीं गया। पड़ोसी के यहां ही सो गया। पिताजी स्वयं वहां से मुझे रात में उठाकर लाये। उन्होंने रात में तो कुछ नहीं कहा। सुबह जो प्यार का भुत उन्होंने मेरे सिर से उतारा था वह आज तक याद है। इस बार दादाजी ने बचाया। खैर•••। पुराने घर की तरफ जाने को लालायित हुआ। जो अब तक कच्चा था। वहां का चौका-चूल्हा और फर्श पर गोबर की छपाई, कितनी मनमोहक खुशबू थी वह। हम लोग सुबह-सुबह गोबर बिनने जाते। पीली मिट्टी लाकर उसे पानी में गला देते। फिर गेहूं का भुसा खरीद कर लाते। उस भुसे को गोबर-मिट्टी के घोल में पैरों से मिलाते। मम्मी और दादी पुरे घर में उसकी लिपाई करती थी। जब तक गीला फर्श न सुखे अंदर जाने की सख्त मनाही रहती। वो टुटी-फुटी सिलाई मशीन भी दिखाई दी। जिसे अब घर में कम ही युज किया जाता था। उसने कितनी ही बार हमारे फटे-पुराने कपड़े सीये थे। वह कोयले वाली इस्त्री (प्रेस) को छुकर देखा। शादी-ब्याह में सम्मिलित होने के पुर्व घर के प्रत्येक सदस्यों में स्वयं अपने-अपने कपड़े इस्त्री करने की होड़ मची होती। पास-पड़ोसी भी उसे मांगकर ले जाते थे। बरामदे की बाउंड्री में लगायी गई टीन की चद्दरें अतीत में ले गयीं। इन पर अब भी छेद थे। जिन्हें कभी एमसील आदि से बंद करने का पुरा प्रयास किया जाता था। ताकि वर्षा का पानी घर के अंदर न गिरे। कितनी ही जोरदार बारिश हमने अपने अतित में देखी थी। घर के आरपार होकर पानी बहा करता था। हम भाई-बहन लोहे के पलंग के उपर बैठकर रात बिताते। माता-पिता पुरी रात पानी ऊलीचते रहते। टीन की चद्दरों से भी पानी टपकता। नींद आंखों से ओझल हो जाती। वह समय जब भी याद आता, आंखे स्वतः भीग जाती। कुल मिलाकर बंद का वह एक दिन स्वयं को खोजने का दिन था। जहां मैंने एक बार फिर स्वंय को जी भर जीया था।

पार्थ

"बहुत अच्छा लिखा है। पार्थ तुम अच्छा लिखते हो। थोड़ी कोशिश और करो तो एक अच्छे लेखक बन सकते हो। पार्थ सुन रहे हो तुम पार्थ••पार्थ•••सो गये।" सुजाता ने अपना हाथ पार्थ के माथे पर घुमाया। बत्ती बुझाकर वह भी सो गयी।

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