स्वीकृति - 3 GAYATRI THAKUR द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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स्वीकृति - 3

ताराचंद अपने घर लौट आते हैं. घर आने पर अपनी पत्नी को रोता हुआ देख कर उनका क्रोध बढ़ जाता है. तभी ताराचंद की पत्नी उषा सिसकते हुए उनसे पूछती है, "सुष्मिता का कुछ पता.. च... ल.....". लेकिन डर में वह इसके आगे कुछ कह नहीं पाती, मानो किसी अज्ञात डर ने उसके जुबान को जकड़ लिया हो...

उसका इतना पूछना था और ताराचंद गुस्से से पागल हो जाते हैं, वह गुस्से में सामने रखे हुए कांच के गुलदान को हाथ में उठाकर उसकी ओर फेंकने ही वाले थे कि तभी उनके घर का नौकर उन्हें किसी के आने की सूचना देता है. जिसे सुनने के बाद वह तुरंत कमरे से बाहर की ओर चल देते हैं.

इधर श्रीकांत के पिता आंखें बंद किए हुए मूर्तिवत बैठे आत्म निरीक्षण में लीन थे ही कि तभी उन्हें अपने सामने किसी के बैठे होने का आभास होता है और वह आंखें खोलकर देखते हैं तो सामने की कुर्सी पर फूफा जी बैठे बैठे मुस्कुरा रहे थे. फूफा जी उनको ऐसी नजरों से देख रहे थे जैसे ध्यान मग्न योगी के सामने कोई अपने बेहद गंभीर समस्या को लिए हुए प्रतीक्षारत हो कि कब योगी की तपस्या खत्म हो और ध्यान मुद्रा से योगी जी बाहर आए तो उनके ज्ञानामृत को अपने अंजुरी में भरकर उसका रसपान किया जाए..

फूफा जी को यो मुस्कुराता देख, श्रीकांत के पिता चिढ़ जाते हैं, और वह कुछ पूछ पाते उससे पहले ही फूफा जी किसी अंतर्यामी के समान मुस्कुराते हुए बोलते हैं,"मुझे पता है,.....आपको बड़े भैया की बातों से अत्यधिक पीड़ा हुई है ..लेकिन उनका भी क्या ...! वह उम्र में भले ही आप से बड़े हैं परंतु समझदारी में आपसे उनकी कोई बराबरी नहीं..और फिर एकदम से बातचीत की विषय वस्तु को बदलते हुए बेहद धीरे स्वर में फुसफुसाते हुए कुछ बोलते हैं जैसे कि वह अपने किसी ऐसी गंभीर बीमारी के विषय में बता रहे हो जो सभी के समक्ष नहीं बताई जा सकती हो.. फूफाजी श्रीकांत के पिता के बेहद नजदीक उनके मुंह के सामने अपना चेहरा ले जाते हुए बोलते हैं, " मैं तो कहता हूं, अभी भी कोई देरी नहीं हुई है श्रीकांत कुछ ही दिनों में अमेरिका चला जाएगा और एक बार बाहर गया तो उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं रहेगा इससे पहले कि लड़का हाथ से निकल जाए उसके पैरों में आप जंजीरे बांध दें.. "

"जंजीर"!... क्या मतलब है आपका जरा स्पष्ट शब्दों में बताएं ..' श्रीकांत के पिता ने पूछा.

"मेरा मतलब है वही लड़की.., जिसके विषय में कुछ वर्ष पहले हमने आपको बताई थी ..अरे वही...., आप की भांजी की ननंद..

याद तो होगा आपको..! बहुत ही समझदार और सुशील लड़की है..अरे,मैं तो कहता हूं उससे बेहतर लड़की तो आपको दीया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे..उसकी शादी तो अभी तक नहीं हुई है, अगर आप लोग कहेंगे तो मैं अभी उनसे बात करूंगा...बड़े ही खानदानी लोग हैं वो..! "

और इतना कहते-कहते फूफा जी रुक जाते हैं जैसे उन्होंने श्रीकांत के पिता की आंखों में अपने प्रति नाराजगी के भाव को समझ लिया हो और फिर अचानक ही वहां से उठ खड़े होते हैं और जाते जाते यह भी कहते जाते हैं आप एक बार मेरे कहे पर विचार जरूर करेंगे आप की सहमति के बाद ही मैं वहां उन लोगों से इस विषय पर बात करूंगा.."

फूफा जी वहां से निकल कर सीधे बड़के चाचा के कमरे में आ जाते हैं...

इधर ताराचंद घर के बाहर दरवाजे पर आते हैं तो उनके सामने एक लंबे कद का लड़का खड़ा होता है वह ताराचंद को देखते ही झुक कर उनका पांव छूता है तो ताराचंद उसे गले से लगा लेते हैं और अत्यंत प्रसन्न चित्त से उसका स्वागत करते हुए बोलते हैं,"मैं तो काफी दिनों से तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रहा था . खैर !..अब तुम आ गए हो तो मेरे मन को आज जाकर शांति मिली है.. "

तभी वह युवक बोलता है," चाचा जी मैं तो शादी वाले दिन ही आ जाता ..परंतु काम ही ऐसा निकल आया कि मुझे टिकट कैंसिल करवानी पड़ी ...इसके लिए मुझे खेद है! परंतु जैसे ही मुझे सुष्मिता के विषय में पता चला तो...,मैं तुरंत भागे भागे आ रहा हूं..,वैसे तो अभी थोड़ा रुक कर आने का इरादा था. परंतु जैसे मुझे यह पता चला...., यह बोलते बोलते अचानक ही वह रुक जाता है जैसे उसने ताराचंद के चेहरे के किसी छिपे हुए भाव को पढ़ लिया हो और अपनी बात की विषय वस्तु को बदलते हुए कहता है,"मेरा वहाँ नौकरी के संदर्भ में..एक कंपनी में इंटरव्यू था..,अच्छी तनख्वाह दे रहे थे वे लोग..परंतु मैं वह सब छोड़कर भागे आ रहा हूं."

ताराचंद जी कुछ सोचते हुए बोलते हैं,"तुम्हें कहीं और नौकरी करने की आवश्यकता नहीं है..,हमारा इतना बड़ा बिजनेस है और तुम इतने योग्य हो ! ..आखिर तुमने एमबीए किया है ...,कहीं और जाने की जरूरत नहीं है तुम्हें, अब यहीं रहकर हमारे बिजनेस में हमारा हाथ बटाओगे..., तुम हमारे अपने हो! "

"चाचा जी आपका हम पर पूरा अधिकार है,..जैसा आप उचित समझे ....आपका तो वैसे भी मुझ पर बहुत एहसान है ...मैं आपकी बातों की अवहेलना करके ...आप का अनादर नहीं कर सकता. आपकी आज्ञा मेरे सिर आंखों पर..,मां पापा के देहांत के बाद आपने ही तो मुझे संभाला है आज मैं जो कुछ हूं वह सभी कुछ आपके ही बदौलत तो हूं .. ''

उस युवक ने यह बातें बड़े ही आदर पूर्वक तथा विनम्र भाव से कहीं तो ताराचंद का सीना खुशी और गर्व से चौड़ा हो गया. मानो कि जैसे कैक्टस के पौधे में वर्षो इंतजार के बाद आज फूल निकल आए हो वैसा ही ताराचंद के हृदय का हाल हुआ जा रहा था ..,

वह खुशी से फूले नहीं समा रहे थे इस पुत्र रूपी धन को प्राप्त करके वर्षों से इसी दिन का तो इंतजार कर रहे थे वह ..

आज अपना सारा प्यार सारा दुलार उस पर लुटाने को आतुर हो रहे थे वो..., वह प्यार जो कभी भी सुष्मिता को नसीब नहीं हुआ था.. एक पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण सुष्मिता को अपने पिता का यह प्यार और यह दुलार कभी प्राप्त नहीं हुआ था ..,

जो इस युवक को प्राप्त हो रहा था.

इस युवक का नाम हेमंत है .और यह ताराचंद के अपने बड़े भाई भाभी का बेटा है, जिसकी एक कार दुर्घटना में मृत्यु कुछ वर्षों पहले हो गई थी .तब ताराचंद ने उसकी पढ़ाई लिखाई का सारा खर्च सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी ताराचंद की नजरों में तो पुत्र ही वह घना वृक्ष होता है जिस की छांव में बैठकर बुढ़ापे की थकान मिटाई जा सकती है,और उन्होंने जिस पौधे को खाद पानी देकर वर्षों से सिंचा था ...अब वह घना वृक्ष बन कर उनके सामने तैयार खड़ा था....

श्रीकांत अपने कमरे में आता है तो दरवाजे पर ही उसके कदम सहसा रुक जाते हैं, उसका कमरे के अंदर जाने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती है, एक पल के लिए उसकी मानसिक स्थिति मानो पागलों जैसी हो जाती है. उसका दिल करता है वह कहीं दूर बहुत दूर इन सभी चीजों से निकल कर भाग जाए बिना किसी को कुछ भी कहे कुछ भी बताएं अंदर कमरे की सजावट जिस लाल पीले गुलाब से हुई थी वह अब उसे कांटों की शक्ल में नजर आ रहे थे जो उसके मन और मस्तिष्क को छलनी कर रहे थे वह अपने पैर कमरे से पीछे की ओर मोड़ लेता है .और कुछ सोचते हुए वह ज्यों ही पीछे की ओर मुड़ता है, अपनी मां को खड़ा पाता है . मां ने जैसे बेटे के मन के भाव को बिना उसके कहे ही समझ लिया हो....,श्रीकांत से बोलती हैं, "तुम ऐसा करो .. ऊपर के कमरे में जाकर मुंह हाथ धोकर आराम करो मैं तुम्हारे लिए ऊपर ही खाने के लिए कुछ भेजती हूं ......."   श्रीकांत अपनी मां को मना करते हुए बोलता है,'मां मुझे कुछ भी खाने की इच्छा नहीं है, वैसे मैं ऊपर के कमरे में जा रहा हूं..कुछ देर अकेला रहना चाहता हूं ..

तब तक मुझे कोई भी डिस्टर्ब ना करें तुम यह बात सभी को बता देना "....यह कहते हुए श्रीकांत ऊपर के कमरे की ओर चला जाता हैं.

फूफा जी बड़के चाचा के कमरे में आते हैं, और आते के साथ ही उनकी प्रशंसा के पुल बांधने लगते हैं. फूफा जी बड़के चाचा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, "सच! कहता हूं,..मैं आपके विचारों से बहुत प्रभावित हूं,परंतु दुख होता है यह देख कर जब अपने ही घर में आपके कह गए बातों को समझने की जगह लोग आप को ही अपना दुश्मन समझने लगते हैं ....."

"कहना क्या चाहते हैं आप !..जरा ठीक ठीक समझाइए", बड़के चाचा उन्हें बीच में ही टोकते हैं . "नहीं वैसे कहना तो नहीं चाह रहा था मैं..परंतु अभी अभी छोटे साले साहब के पास गया था . उन्हें समझाने परंतु वह तो आपकी बातों से बहुत ही भड़के हुए लग रहे थे. खैर,आप तो धर्मात्मा आदमी है आप जैसे लोगों की कदर कहां है..इस समाज में ...! और खास बात यह है कि आपका अपना परिवार नहीं है, इसीलिए यह लोग आपको महत्व नहीं देते ..." और फिर अपनी बातों का जादू होता देख फूफा जी आगे भी बोलते हैं,"मैं तो कहता हूं आपको अपनी गृहस्थी के विषय में अब सोचना चाहिए ..मैं कसम खाकर कहता हूं ...

आज भी आपको कोई देखे जिसे आपके सही उम्र का ठीक-ठीक पता ना हो अगर ....,तो वह आपको पैंतालीस से ज्यादा का नहीं समझेगा अगर आप थोड़ा सा भी इशारा करे तो मैं योग्य से योग्य कन्या की तलाश आपके लिए कर सकता हूं ...आप तो जानते ही हैं पार्टी के कार्य से मेरा अलग-अलग शहरों में आना जाना लगा रहता है ...आप कहेंगे....तो..

यह कहते हुए थोड़ी देर रुक कर फूफा जी बड़के चाचा के चेहरे के भाव भंगिमा को गंभीरता पूर्वक देखने लगते हैं,क्योंकि अभी तक बस वही बोले जा रहे थे उनकी बातों पर बड़के चाचा की कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही थी, इसलिए वह अपनी बातों को बीच में ही, अल्पविराम की मुद्रा में छोड़कर बड़के चाचा की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगते हैं .

बड़के चाचा बड़े ध्यान से उनके द्वारा कहे गए बातों को सुन रहे थे और फिर कुछ सोचते हुए बोलते हैं, "वह पिछली बार आपको विधवा आश्रम के लिए चंदे चाहिए थे ना मुझसे ...मैंने दस हज़ार तक की रकम निकाल कर रखे हैं वह ले लीजिएगा तभी फूफा जी कुछ सकुचाते हुए बोलते हैं,"अरे नहीं मुझे अभी उधर नहीं जाना है..अभी तो मैं मंदिर के लिए चंदे के पैसे एकत्रित करने में लगा हुआ हूं,परंतु आपने निकाल कर रखा हुआ है तो कोई बात नहीं ", और फिर चाचाजी उनके हाथ में पंदरह हज़ार के नोटों की गड्डी को रखते हुए बोलते हैं, "यह लीजिए दस हज़ार विधवा आश्रम के लिए और पांच हज़ार मंदिर के लिए ".

"आप बड़े दयालु हैं ...ऐसा दानी हृदय का व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा...सच में!...परंतु मेरा भी वादा है आपसे मैं एक ना एक दिन आप का घर बसाने में आपकी मदद अवश्य करूंगा "....,इतना कहकर फूफा जी वहां से चले जाते हैं.

तीन-चार बड़ी-बड़ी गाड़ियों का एक काफिला ताराचंद के घर के दरवाजे पर आकर रुकता है...

क्रमशः..

गायत्री ठाकुर