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स्वीकृति - 4


भरोसा और उम्मीद - यह दो ऐसी चीजें हैं जिसके सहारे इंसान मुश्किल से मुश्किल वक्त को भी काट लेता है. उम्मीद इस बात की, कि आने वाला कल आज से बेहतर होगा और भरोसा इस बात पर कि समय सदैव एक सा नहीं रहता ..दुख की परिणति सुख में और सुख की परिणति दुख में होती ही रहती है...सुख और दुख का तो आना जाना लगा रहता है, और क्योंकि समय परिवर्तनशील है ....तो परिस्थितियां भी सदैव एक समान नहीं रहेगी… यह एक प्रकार की मानवीय प्रवृत्ति भी होती है कि अत्यंत दुख की घड़ी में भी वह भविष्य की ओर जब भी देखेगा एक आशा भरी दृष्टि से ही देखेगा.. . और फिर भविष्य के प्रति उसके आशावान बने रहने की उसकी यह प्रवृत्ति ही दुख की घड़ी में उसका संबल बनता है.. तथा धैर्य रखना सिखाता है ...वरना , दुख तो ऐसी आंधी है जिससे मजबूत से मजबूत वृक्ष की भी जड़ें उखड़ जाती हैं..


मनुष्य का वर्तमान चाहे जितना भी कठिन क्यों न हो आने वाला कल उसे हमेशा अच्छा ही दिखता है.. सुष्मिता ने भी इसी भरोसे और उम्मीद के सहारे पूरे पंद्रह दिन का यह लंबा समय उस अत्यंत छोटे से एक कमरे वाले घर में निकाल दिया. दिल्ली आए हुए उसे आज पंद्रह दिन हो गए थे, परंतु इन पंद्रह दिनों में उसने एक बार भी बाहर के उजाले को देखा तक नहीं था वह चुपचाप उस कमरे में रहने के लिए मजबूर थी ..अभी तक उसने किसी से संपर्क भी नहीं किया था....,यहां तक कि वह चाह कर भी किसी को फोन तक नहीं कर सकी थी...,संदीप ने उसे मना कर रखा था ...उसके अनुसार जब तक सभी कुछ शांत नहीं हो जाता उसका किसी से भी संपर्क करना उन दोनों के लिए मुसीबतें पैदा कर सकती है. सुष्मिता चाहती थी कि कम से कम वह श्रीकांत से तलाक के विषय पर बात करें क्योंकि वह कहीं ना कहीं यह अच्छी तरह से समझती थी कि श्रीकांत एक सुलझा हुआ इंसान है.. सुष्मिता के मन में किसी प्रकार की चिंता या भय थी भी तो उसकी वजह उसके पिता या उसके ससुराल वाले थे, लेकिन बावजूद इन सभी वजहों के वह एक बार ही सही किंतु श्रीकांत से बातें कर उससे क्षमा याचना करना चाहती थी. उसके मन में श्रीकांत को लेकर अपराध बोध का भाव था.. परंतु संदीप के समझाने पर वह कुछ समय रुक कर स्थिति के सामान्य होने का इंतजार कर रही थी. उसे इस बात की आशा थी कि समय बीतने के साथ साथ उसके पिता के मन का क्रोध भी शांत हो जाएगा . . परंतु अब उसका मन विद्रोह कर रहा था उसका धैर्य और संयम भी जवाब दे रहा था वह मन ही मन सोचने लगती है कि ....आज इस विषय पर संदीप से अवश्य बात करेगी...आखिर कब तक वह इस तरह कमरे के अंदर बंद रहेगी ...अब बहुत हो गया, जो भी होगा देखा जाएगा...,और अगर वह डरती होती तो इतना बड़ा कदम उठाने की हिम्मत बिल्कुल भी ना करती...लेकिन संदीप के पास किसी मुद्दे पर उससे बात करने की भी फुर्सत नहीं थी वह रोज सुबह सुबह निकल जाता और देर रात तक बाहर ही रहता था पूछे जाने पर उसका जवाब होता की उसका नौकरी पर जाना भी जरूरी है बिना इसके गुजारा कैसे होगा और आने में देरी इसलिए , क्योंकि उसका प्राइवेट नौकरी है अतः उसके काम का समय सीमा कुछ निश्चित नहीं है और वह नौकरी छोड़ तो नहीं सकता . .. ! आखिर उसकी भी कई मजबूरियां है..


सुष्मिता अपनी आजादी के सपने को संजोए हुए सभी कुछ छोड़ छाड़ कर संदीप के साथ दिल्ली भाग कर आ तो गई थी, परंतु यहां आकर भी वह फिर से वही कैदियों वाली घुटन भरी जिंदगी जीने को वापस से मजबूर हो गई थी... तब इन सभी की वजह उसके पिता हुआ करते थे, और आज परिस्थितियां और उससे भी बढ़कर संदीप का उसके प्रति बेवजह का फिक्र और डर कि कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए..


"विनीता मेरी टाई कहां है", झुंझलाहट से भरी हुई तेज आवाज रसोई में काम कर रही विनीता के कानों में पड़ती है तो वह दौड़ती हुई कमरे की तरफ भागती हुई जाती है...


"अभी तक मुझसे किसी ने चाय के लिए भी नहीं पूछा...कुछ ही दिन में तुम लोगों पर बोझ बन गई मैं...!" बरामदे से बुआ जी की आवाज उसके कानों में पड़ती है, तो वह पुनः रसोई में आ जाती है..


"मुझे देरी हो रही है, ...और मेरा लंच बॉक्स अभी तक नहीं मिला.." लक्ष्मीकांत की क्रोधपूर्ण तेज आवाज विनीता के कानों में पड़ती है , तो वह वापस भागती हुई कमरे की ओर आती है.., और एक दम से रुआंसी होती हुई लंच बॉक्स लक्ष्मीकांत के हाथों में पकड़ाते हुए बोलती है, "ये तुम्हारी बुआजी जब भी देखो ताने ही मारती है .... हमेशा जली कटी ही सुनाती है... सच में मै तो अब इनसे तंग आ गयी हूं.. शादी में आए हुए सारे मेहमान चले गए परंतु इनके जाने का तो प्रोग्राम ही नहीं बन रहा . .. "


विनीता ने यह सारी बातें भले ही बुआ जी के प्रति नाराजगी दिखाते हुए कहे थे, परंतु वह ऐसा कह कर लक्ष्मीकांत से अपने लिए सहानुभूति की अपेक्षा किए हुए थी. आखिर उसे और क्या चाहिए था..थोड़ी सी सहानुभूति और थोडे़ से प्यार के दो बोल.., परंतु लक्ष्मीकांत के पास इन दोनों ही चीजों के लिए वक्त नहीं था और हर बार की तरह उसकी बातों को अनसुनी करते हुए बोलता है, " ठीक है मैं निकल रहा हूं.. "

तभी विनीता दुखी मन से बोल पडती है, " तुम्हें मेरे किसी भी बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ती है. शादी के इतने वर्ष हो गए लेकिन आज भी मेरी किसी भी बात को ऐसे ही नजरअंदाज कर देते हो. तुम्हारे घर में मैं सिर्फ एक मशीन की तरह लगी रहती हूं...इस घर में जिसे देखो उसे अपनी ही पड़ी रहती है... , कहते कहते उसकी आंखें भर आती हैं.

"तुम्हारी कौन सी बात है जो मैंने नजरअंदाज की....,इस घर में तुम्हें किस बात की कमी है ..., सभी कुछ तो है तुम्हारे पास ....,जो एक औरत को चाहिए होता है...",लक्ष्मीकांत ने तेवर दिखाते हुए कहा.

"ठीक है ... ,तो फिर बताओ ...,कल मैंने कौन सी बात तुमसे कही थी? क्या करने के लिए कहा था? ....मुझे तो पक्का यकीन है.,तुम्हें कुछ भी याद नहीं होगा..", विनीता ने अपने पलकों के आंसुओं को साड़ी के पल्लू से पोछते हुए कहा.

"क्यों नहीं ...! , मुझे बिल्कुल याद है ..तुम्हारे मौसा जी दोपहर में आने वाले हैं. उन्हें लाने के लिए मुझे स्टेशन जाना है...लेकिन मैं तुम्हें फिर से एक बात याद दिला दूं, ऐसे कामों के लिए मेरे पास फिजूल के वक्त नहीं है...इस घर में और भी लोग हैं, जो उन्हें लाने के लिए जा सकते हैं ...और वैसे भी तुम्हारे मौसा जी मुझे कुछ खास पसंद नहीं ...तुम्हारे मौसा जी जैसे दिखावा पसंद आदमी मैंने अपनी पूरी जिंदगी में नहीं देखे हैं...कोई चीज अगर सौ की खरीदी हो तो हज़ार की बताएंगे ट्रेन में सफर तो थर्ड क्लास से करेंगे परंतु स्टेशन पहुंचने से पहले ए सी वाले डिब्बे के पास उतरने के लिए खड़े हो जाएंगे और तब तक वही रहेंगे जब तक उन्हें लेने आने वाला व्यक्ति उन्हें देख न ले कि वह फर्स्ट क्लास में सफर कर के आ रहे हैं ...क्या मैं जानता नहीं ..,..पिछली बार कुछ ऐसा ही तो हुआ था. वह भी उनकी पोल तब खुली जब उनके साथ आया हुआ व्यक्ति उन्हें ढूंढते हुए थर्ड क्लास के डिब्बे से निकला ..., और उन्हें फर्स्ट क्लास के डब्बे के पास खड़ा पाकर चौक गया और पूछ बैठा ...कि उनका बैग थर्ड क्लास के सीट पर ही छूट गया है...

मैं सब समझता हूं... तुम्हारे सारे मायके वाले ऐसे ही हैं...मुझे तो इन झमेलों से दूर ही रहना है.. " लक्ष्मीकांत ने भौवें टेढ़ी करते हुए कहा.

"तुम्हे तो बस ...,मौका चाहिए मेरे मायके वालों को नीचा दिखाने का क्या कमी की थी उन्होंने हमारी शादी में अपनी औकात से बढ़कर उन्होंने खर्च किए थे शादी पर...परंतु इतना करने के बाद भी तुम्हारे मन में उनके प्रति जरा भी सम्मान नहीं है ..... विनीता ने दुखी मन से कहा.., "और हां , मौसा जी नहीं उनकी बेटी मेरी मौसेरी बहन आने वाली है और दोपहर में नहीं शाम के चार बजे बेंगलुरु से आने वाली है. उसका इस शहर में शोध से संबंधित कार्य है, जिसके लिए वह यहां आ रही है. वैसे तो वह कहीं और ही ठहरना चाहती थी परंतु मेरे कितना कहने पर यहां आने के लिए राजी हुई है..वह कुछ दिनों के लिए. यहीं हम सब के साथ रहेगी ....भला मेरे यहाँ रहते हुए वह कहीं और क्यों ठहरे .


"देखो जो भी हो.. परंतु मेरी एक बात ठीक तरह से समझ लो मुझे इन सभी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है ..,वैसे ही मेरे सिर पर बहुत सारे काम है तुम किसी और को भेज देना ," ऐसा कहते हुए लक्ष्मीकांत ऑफिस के लिए निकल जाता है.

उसके जाने के बाद विनीता कुछ देर वही खड़ी खड़ी बडे़ ही भारी मन से कुछ सोचने लगती है, .. ऐसी कौन सी जिम्मेदारी है इस घर के प्रति ..जो उसने खुशी खुशी नहीं निभाए हो ,...इनके घर परिवार के लिए वह क्या कुछ नहीं करती है..क्या कुछ नहीं सहती है ,परंतु इन्हें एक जरा सा काम बताया तो इनके पास वक्त नहीं है..,


"किसी भी तरह की लापरवाही की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, यह काम जितना जल्द हो सकता है करो ...,और हां बाकी की जरूरी बातें तुम्हें बाद में समझा दी जाएगी और एक बात का ध्यान रहे यदि इस विषय में कुछ और जानना हो या पूछना हो ...तो तुम मेरे दूसरे नंबर पर कॉल करना ..." , ताराचंद एक पहलवान जैसे दिखने वाले व्यक्ति को कुछ समझा रहे थे,...उस बड़े से कमरे में ताराचंद और उस व्यक्ति के सिवा कोई तीसरा मौजूद नहीं था इस कमरे में ताराचंद अक्सर अकेले बैठकर कुछ आवश्यक कार्य किया करते थे , और उन्हें उस कमरे में किसी दूसरे या तीसरे की मौजूदगी जरा भी पसंद नहीं थी ....बिना उनकी इजाजत किसी का भी उस कमरे में आना वर्जित था ...बिना उनके आज्ञा के कोई भी व्यक्ति उस कमरे में आने की हिम्मत भी नहीं करता था...उनके सामने खड़ा यह व्यक्ति उनका बेहद खास मुलाजिम था..,और उनका विश्वसनीय भी. इस वक्त ताराचंद उस व्यक्ति को किसी अत्यंत आवश्यक कार्य के विषय में समझा रहे थे.

"यस सर !"... ऐसा कहते हुए वह व्यक्ति कमरे से बाहर निकलने के लिए दरवाजे की ओर बढ़ता ही है ...... कि .., ताराचंद वापस कुछ कहते हैं, "और सुनो !...", ताराचंद सिगरेट के धुएं को एक तरफ उड़ेलते हुए बोलते हैं, "मुझे उन आदमियों की तस्वीर सेंड कर दो ..जिन्हें तुम अलग-अलग शहरों में भेजने वाले हो मुझे किसी भी तरह की गड़बड़ी नहीं चाहिए.. " समझे! "


"ओके सर! ", यह कहते हुए वह व्यक्ति कमरे के बाहर जैसे ही निकलता है कि हेमंत को वहां खड़ा पाता है..हेमंत बिना कुछ कहे कुछ पूछे सीधा कमरे में दाखिल हो जाता है , "चाचा जी बाहर कुछ लोग आए हुए हैं ..", हेमंत अपने चाचा जी से कहता है .

ताराचंद को हेमंत का अचानक कमरे में यो ही दाखिल हो जाने की बात बुरी लगती है ..,परंतु वह अपने भाव को प्रकट नहीं करते और कहते हैं, "हां तो !...,किसी से कह कर उन लोगों को बड़े वाले हॉल में बैठाओ"..,मैं थोड़ी देर में वहां पहुंचता हूं..

क्रमशः..

गायत्री ठाकुर

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