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स्वीकृति - 5

स्वीकृति 5 

 

अप्रैल महीने का यह अभी दूसरा हफ्ता ही शुरु हुआ था और गर्मी का ग्राफ महंगाई की ग्राफ से भी आगे निकल चुका था. सुष्मिता खिड़की के पास रखे कुर्सी पर बैठी हुयी थी और उसने अपने दोनों पैर सामने के टेबल पर  रखे हुए थे... इससे पहले वह कमरे में इधर से उधर 3 - 4 चक्कर अब तक  लगा चुकी थी और अब थक कर कुर्सी पर बैठ गयी थी. सुष्मिता ऊपर लगे सीलिंग फैन को एक टक देखे जा रही थी. सीलिंग फैन खड..खड...की आवाज करते हुए घूम रहा था. वह थोड़ी झुंझलाती हुयी सी अपनी कुर्सी से उठती है और पंखे का स्विच ऑफ कर देती है तथा वापस पहले की जैसे कुर्सी पर बैठ जाती है. लेकिन अगले ही पल गर्मी ने मानो जैसे उसे लाचार कर दिया हो वापस कुर्सी से उठ खड़ी होती है और  पंखे का स्विच ऑन कर देती है और फिर वह पंखा एक जोरदार घरर्रर्रर्र..के आवाज के साथ  ..इतराता हुआ ....नाचने लगता है ..मानो मुंह चिढ़ाता हुआ वह सुष्मिता से  बोल रहा हो कि देखो ! मेरे बिना इस गर्मी ने तुम्हारा क्या हाल कर दिया.. हमारे बिना तुम्हारा   गुजारा नहीं....!!!

सुष्मिता वापस कुर्सी पर बैठ कर आंखें बंद कर लेती है आखिर अब उसके लिए समय काटना जैसे मुश्किल हो रहा था वह फिर से बेचैनी में जाने क्या सोचती हुई कुर्सी से उठकर खड़ी होती है और अपने बैग से एक छोटी सी रेडियो निकालती है. यह रेडियो उसे गिफ्ट में , संदीप ने उसके जन्मदिन पर कुछ महीने पहले दी थी , जिसे कि वह अपने साथ लाना नहीं भूली थी.  उसके पास संदीप का दिया हुआ यह रेडियो और उसके मां का दिया हुआ एक सोने की चेन के अलावा कुछ भी नहीं था . ससुराल से मिले हुए सारे गहने ससुराल में ही छोड़  आयी थी  वह.  वैसे भी उन  चीजों पर उसने अपना कोई अधिकार नहीं समझा था, अतः  उसे वहीं छोड़ देना ही उचित समझा था उसने .  सुष्मिता उस रेडियो को लेकर वापस कुर्सी पर बैठ जाती है . वह रेडियो को ऑन करती है. उसका मन जब भी उदास होता वह रेडियो को ऑन कर गाने सुन कर अपना मन बहला लेती थी. इस कमरे में मन बहलाने के लिए उसके पास और कोई दूसरा साधन न था. रेडियो पर एक बहुत ही सुंदर गजल इस वक्त प्रसारित हो रहा था, .. . 

“कहते हैं कि प्यार .. जन्मो का है रिश्ता...यदि जन्मों का है रिश्ता ...तो बदलता क्यों हे..." किसी मशहूर गजल गायक द्वारा गाया हुआ यह गजल उसके मन में दर्द पैदा कर रहा था . वह  बड़े ही उदास  मन से आंखें बंद किए हुए गजल सुनती हुई कुछ सोचने लगती है , "क्या संदीप सच में बदल गया है .. .. ? आखिर .. वह  कौन सी ऐसी बात है जो ....यहां उसे इस तरह अकेली छोड़कर बाहर जाने के बाद . ..एक बार भी फोन करके उसका हाल जानना जरूरी नहीं समझता....या फिर उसने  ही संदीप को समझने में कोई भूल  कर दी ....उससे कोई चूक तो नहीं हो गयी ...! माना कि, उसके विचार में  उसका अभी घर पर ही रहना  उचित है..परंतु क्या यह उसकी जिम्मेदारी नहीं कि कम से कम दिन में एक बार ही सही..उसे फोन करके उसका हाल पूछ ले आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है उसकी ...! कहां तो वह उसके बिना एक पल भी नहीं काट सकता था और आज उसके पास उसके लिए इतना भी समय नहीं है कि  कम से कम  उसका हाल ही पूछ लेता ..न तो वह उसे कॉल करता है और न उसके  काल का उत्तर देता है... यहाँ आने के बाद उसने उसके मोबाइल फोन को स्विच ऑफ कर एक दूसरे नंबर का मोबाइल उसके हाथों में थमा दिया था जिससे वह सिर्फ उसी को कॉल कर सकती है...उसे याद आता है कि कैसे उसकी शादी की खबर सुनकर वह अपनी जान देने तक को तैयार हो गया था . उसने रोते हुए उससे कहा था सुष्मिता मैं जान दे दूंगा परंतु , मै मेरे जीते जी तुम्हें किसी और का होते हुए नहीं देख सकता और फिर वह दिल्ली से लखनऊ आ गया था..,यहां तक कि बिना किसी की परवाह किए वह उसके ससुराल भी पहुंच गया था और फिर किस प्रकार उसके ससुराल वालों ने जब उससे उसका परिचय पूछा था तो उसने झट से उन्हें अपना झूठा परिचय दिया था खुद को उसका दूर का रिश्तेदार बताया था. सुष्मिता ने इसके लिए उसे मना भी किया परंतु वह नहीं माना था. उसने बस इतना सा जवाब दिया था , “तुम्हारे लिए यह छोटा सा झूठ तो क्या मै कुछ भी कर सकता हूं परंतु तुम्हें किसी और का होता हुआ नहीं देख सकता”,  और फिर किस प्रकार उसने उसे उसके ससुराल से निकाल लाने तक की योजना बना ली...और फिर ट्रेन की टिकट तक बुक करा रखी थी .उसे यह बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं था कि वह एक दिन...,एक रात तो क्या ....,एक पल भी किसी और के साथ रुके...,उसने उसे वहां से निकाल लाने के खातिर वह सभी कुछ किया जो कुछ वह कर सकता था और आज उसी संदीप को उसीकी कोई परवाह नहीं है ...." इतना सभी कुछ सोचते सोचते उसे कब नींद आ गई उसे कुछ  भी  खबर नहीं रही...

उस बड़े से हॉल में महंगी सी महंगी पेंटिंग टंगी हुई थी. एक एक की कीमत करोड़ों रुपए  की थी. महंगे से महंगे सजावट के समान से वह हाल सजा पड़ा था.  उनमें से कई एक तो खास तौर पर विदेशों से खरीद कर लाए गए थे. अक्सर ताराचंद अपने साथ विदेश से लौटते हुए इन सजावट के सामान को अपने साथ ही खरीद कर लाते थे विदेशी और महंगी सामानों को रखने में एक विशेष  प्रकार  की आनंद की प्राप्ति उन्हें होती थी. और सिर्फ सजावट के समान ही नहीं, विदेशी महंगी शराब रखने का भी बहुत शौक था. उन्हें ऐसे ही बड़े-बड़े पार्टी को आयोजित करना व साथ के साथ अपने दौलत का नुमाइश करने की भी आदत थी  उन्हें. ..उनके  द्वारा दिए गए ऐसे पार्टियों के मेहमान अन्य बडे़  मंत्रियों एवं उच्च से उच्च पदाधिकारियों  एवं उद्योगपतियों के अतिरिक्त कभी कभी कुछ विदेशी मेहमान भी हुआ करते थे,  जिनका परिचय अन्य  मेहमानों के साथ बड़े शान के साथ वे करवाते थे ..उन के समक्ष अपनी दौलत का प्रदर्शन   करने में  एक विशेष प्रकार की आनंद की अनुभूति उन्हें हुआ करती थी. ताराचंद के विदेश यात्रा के दौरान उनकी सेक्रेटरी मीनल उनके साथ अवश्य ही हुआ करती थी. गोरे रंग एवं आकर्षक चेहरे व फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली मीनल का ताराचंद के साथ बड़ा ही गहरा सम्बन्ध था..ऐसी  कोई भी विदेश यात्रा नहीं थी , जिसमें वह ताराचंद के साथ  नहीं होती थी और इन पेंटिंग्स में से तो आधे से अधिक पेंटिंग मीनल ने ही पसंद किए थे. ताराचंद उसकी पसंद पर जान छिड़कते थे एक बार भी यदि किसी चीज पर मीनल ने अपनी पसंद की मोहर लगा दी तो ताराचंद बिना कोई सवाल किए उसकी मुंह मांगी कीमत देकर भी खरीद लाते थे. वह खुद से भी ज्यादा उस पर यकीन करते थे . जो मान सम्मान उन्होंने मीनल को दे रखी थी, वह उषा को कभी भी प्राप्त न हुआ था.  वे कभी भी कहीं भी उषा को अपने साथ नहीं ले जाते थे. हर जगह मीनल ही मौजूद होती थी. हां परंतु यदि कोई बिजनेस मीटिंग होती या फिर बड़े मंत्री या किसी नेता के साथ उनकी कोई मीटिंग होती तो अपने फायदे के लिए वह अपनी पत्नी उषा का इस्तेमाल अवश्य करते थे. उसे सजाकर ..सँवार  कर महंगी से महंगी क्रीम पाउडर से उसकी सांवली त्वचा  में निखार दिलवाकर एक सजावट की वस्तु की भाति उन्हें सबके बीच पेश अवश्य करते थे और ऐसा करने से मजाल  था कि..उनके प्रतिष्ठा पर कोई दाग लगे..!  ..  औरतों को सुंदर वस्तु के रूप में उपयोग करने की प्रथा तो वर्षों से चली आ रही है.   राजा महाराजाओं के काल में बड़े-बड़े राजा भी तो यही सब  किया करते थे. किसी पड़ोसी देश  के  साथ यदि मैत्री संबंध बनाने होते तो वे  उस राजा को अपनी कन्या दान  कर दिया करते थे चाहे तो उस राजा के पास पहले से  कितनी भी रानियां क्यों  ना हो, और या फिर किसी राजा ने यदि किसी राज्य पर जीत हासिल कर ली तो वह उस राज्य के सीमाओं के साथ वहां की राज्य कन्याओं को भी अपने जीते हुए वस्तुओं की परिधि  में   ही रख कर उसकी  गिनती किया करता था ..  उस राज्य के साथ साथ उन राज्य कन्याओं पर भी  उसका अधिकार होता था. वह जीते हुए हर वस्तु की तरह उन कन्याओं को भी अपने साथ अपने राज्य में  ले आता था. या तो जबरन अपने साथ रखता या किसी को अन्य वस्तुओं की भांति दान कर देता। औरतों को वस्तु समझे जाने की यह मानसिकता पुरानी होने के बावजूद आज भी किसी न किसी रूप में मौजूद है  ही. अपने बिजनेस या  राजनीतिक फायदे के लिए औरतों का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है यह मानसिकता पुरुषवादी सोच के साथ ही जुड़ी  हुई है और इस मानसिकता के लोग जहां कहीं भी मौजूद है जिस किसी भी क्षेत्र में हैं औरतों का उपयोग अपने फायदे के लिए करते ही करते  हैं. ताराचंद भी यही किया करते थे ..क्योंकि उनकी पुरुषवादी सोच के दायरे में औरत एक  वस्तु ही तो थी...!अपनी पत्नी को भी उन्होंने  उससे ज्यादा कुछ भी नहीं  समझा था...उषा का रंग सांवला जरूर था परंतु उसकी नैन नक्श किसी अप्सरा से कम न थी. और फिर बाजार में उपलब्ध महंगे  क्रीम पाउडर भी तो थे  ही...,इन सभी का इस्तेमाल करके  उसके वास्तविक रंग में थोड़ी सी उलटफेर  कर  किसी की आंखों को भी छला जा सकता था..और फिर ताराचंद ठहरे व्यापारी प्रवृत्ति के  ..तो वह इस विद्या में अच्छी तरह से माहिर थे ..वे अपनी पत्नी का उपयोग  ऐसे कई फायदे प्राप्त करने हेतु किया करते थे.... वह फायदा उनके बिजनेस से जुड़े मामले से हो या कुछ और..,  इस कार्य से  उनके प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाते थे..क्योंकि एक सफल बिजनेसमैन के रूप में समाज में उनका  दबदबा व  रुतबा बढ़ जाता था और फिर उनकी पत्नी होने के कारण उषा का इतना कर्तव्य तो था ही कि वह अपने पति की प्रगति में उसका सहयोग करें...! तो उस बड़े से हॉल  में जाने से पहले ,  ताराचंद उषा के कमरे में दाखिल होते हैं उनको देखते ही उषा डर से एक कोने में दुबक कर खड़ी हो जाती है और नजरें नीचे किए हुए फर्श को एकटक निहार ने लगती है वैसे भी वह इतनी हिम्मत कभी भी नहीं जुटा पाई थी कि वह ताराचंद की आंखों में देख सके ..निरंतर दुख और अत्याचार को सहती वह यंत्रवत हो गई थी.  इन सभी बातों ने उसे बेहद कमजोर बना दिया था वह ताराचंद के आंखों में देखने से भी डरती थी. ताराचंद जब भी उसके पास आते वह इसी तरह आंखें नीचे किए एकटक फर्श को देखती रहती जब तक कि ताराचंद वहाँ से  चले न जाते. और जैसे किसी ने उसे सम्मोहित कर रखा हो ठीक उसी प्रकार से वह सम्मोहन की अवस्था में उनके आदेशों का पालन करने लगती. ताराचंद उसे जो कुछ भी करने को कहते वह चुपचाप से करती..बिना किसी प्रकार का सवाल किए...उसे देख कर ऐसा जान पड़ता था जैसे वह हाड़ मांस  की बनी कोई कठपुतली हो..जिसके अंदर की चेतना खत्म कर दी गयी हो..ताराचंद उसकी ओर देखते हुए आदेश देने के अंदाज में कहते है, "तुम अच्छे से तैयार होकर नीचे हॉल  में आ जाओ ....वहां राजनीतिक पार्टी के बड़े-बड़े नेता लोग आए हैं ....उनके स्वागत में किसी प्रकार की कमी नहीं होने चाहिए "...और फिर थोड़ा रुकते हुए ....... ,"और हां , रोज जिस तरह गुमसुम रहती हो ....वहां भी सबके सामने गुमसुम मत रहना.  अगर कोई कुछ पूछे तो मुस्कुरा कर जवाब  देना और एक बात का ध्यान रहे...वहां सबके सामने यह रोनी सूरत तो बिल्कुल नहीं होनी चाहिए, वरना तुम समझ सकती हो इसके परिणाम क्या होगें!..ताराचंद्र ने धमकाने के अंदाज में यह बात कही और फिर उस बडे हॉल की तरफ चल देते हैं जहाँ उनके कुछ खास मेहमान उनका इन्तजार कर रहे थे..

                                     क्रमशः

                       गायत्री ठाकुर

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