स्वीकृति - 2 GAYATRI THAKUR द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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स्वीकृति - 2

सुष्मिता ट्रेन की खिड़की से बाहर देखती हुई ताजी हवाओं को एक बार में ही अपनी सांसों में भर लेना चाहती है.... ऐसी ताजी हवाएं जो किसी कैदी को एक लंबे अंतराल के बाद कैद से मुक्ति के उपरांत प्राप्त होती है, सुष्मिता को ऐसे ही आजादी की अनुभूति इस वक्त हो रही थी.. वह इस आजादी को खुलकर अनुभूत करना चाह रही थी पिता के घर में तो उसके ऊपर इतनी पाबंदियाँ थी कि उसका वहां दम घुटता था.

"घर.. घर क्या! .. बस एक जेलखाना ही था , जिसके जेलर पापा थे,... जहाँ खुलकर बोलने तक की आजादी नहीं थी उसे.., बिना पापा की मर्जी के तो मम्मी एक तिनका भी इधर से उधर नहीं रख सकती थी मम्मी की भी क्या जिंदगी ....,जिंदगी क्या !...वह तो एक जिंदा लाश है. आज जबकि जमाना कहां से कहां पहुंच गया परंतु पापा की वही सड़ी गली विचारधाराएं ..मम्मी की भी कैसी किस्मत ...,पता नहीं इतने वर्षों से वो कैसे उन्हें बर्दाश्त कर रही है".....सुष्मिता इन्हीं सब विचारों में खोई हुई खिड़की से बाहर की ओर देखे जा रही थी कि अचानक अपने कंधे पर किसी के हल्के हाथों का स्पर्श पाकर चौक पड़ती है और जब पीछे पलट कर देखा तो संदीप उसके कंधे पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए कुछ पूछ रहा था.

संदीप, "मैं न जाने कबसे तुम से कुछ पूछने की कोशिश कर रहा हूं...., पर तुम न जाने किन ख्यालों में गुम हो ....,संदीप ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में यह बात कही तो उसके होठों पर हंसी फूट पड़ी.

और फिर संदीप सुष्मिता के गालों पर बिखरे बालों को पीछे की ओर संवारने की कोशिश करते हुए बड़े प्यार से पूछता है, "तुमने कल से कुछ नहीं खाया है, ट्रेन खुलने में शायद थोड़ा वक्त है, तुम कहो तो तुम्हारे लिए कुछ खाने का सामान.. पानी की बोतल या चाय वगैरह कुछ लेकर आता हूं..”


"नहीं मुझे भुख नहीं है... तुम बस मेरे लिए चाय ला दो.. " सुष्मिता ने अनिच्छा दिखाते हुए कहा.

भूख ..उसे सच में भूख नहीं थी उसका मन जहां खुद की आजादी पर झूम रहा था वही मन के किसी कोने में ग्लानि का भी भाव छिपा बैठा था..,ग्लानि इस बात की ..कि उसके द्वारा उठाए गए इस कदम से किसी को बेहद मानसिक पीड़ा पहुंची थी. भला इन सब बातों में श्रीकांत का क्या कसूर था ? वह तो बेचारा अनजाने में ही इतने बड़े दुख का भागीदार बन बैठा ...उसके मन में एक अपराध बोध भी था कि काश! वह पहले ही सब कुछ श्रीकांत को बता देती, लेकिन उसका भी क्या कसूर उसके पापा ने तो हालात ही कुछ ऐसे खड़े कर दिए थे कि बेहद मजबूरी में उसे ऐसे कदम उठाने पड़े.. इन सारी बातों का दोषी यदि कोई है तो वह सिर्फ पापा है... "

और फिर उसके मन मे अनेक प्रकार के शंकाएं उठने लगते हैं.. "पता नहीं मेरे यो अचानक ससुराल से भाग आने पर क्या हुआ होगा..?

मन में तरह तरह के बूरे विचार आने लगते हैं और वह अचानक ही

अपने मोबाइल से किसी को कॉल करने के लिए कॉल बटन प्रेस करने ही वाली थी कि किसी शोर शराबे ने उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया..

" देख कर नहीं चल सकता क्या..! अन्धे हो.. सारा कपड़ा खराब कर दिया.. एक थप्पड़ पड़ेगा तो होश ठिकाने आ जाएंगे .. शरीर में जब ताकत नही है तो क्यों मरने चला आया है.. घर पर बैठा नहीं जाता.. बुढा कहीं का... ," बड़े ही निर्दयता पूर्वक संदीप किसी पर चिल्ला रहा था.

" देख तो आप भी सकते थे बाबू आपने कौन सा मेरी तरह सिर पर भारी समान डाला हुआ है'', उस बुड्ढे कुली ने अपने सिर पर रखे सामान को संभालते हुए कहा.


एक बेहद वृद्ध दूर्बल सा दिखने वाला कुली समान पहुंचाने की जल्दी में संदीप से टक्करा जाता है अपने शरीर के वजन से भी कहीं ज्यादा सामान लादे हुए वह आगे की ओर बढ़ता जा रहा था कि अचानक संदीप से टकरा गया और उसके साथ उसके झड़प शुरू हो गई थी जिसमें संदीप उसकी उम्र का भी लिहाज न करते हुए बौखलाहट में उसे अपशब्द कहने लगता है, "हरामखोर ने पूरा चाय गिरा दिया.. जब सामान उठा सकने की औकात नही है फिर क्यों भार उठाये फिर रहा है... और तभी उसकी नजर सुष्मिता पर पडती है,

सुष्मिता की नजरों में अपने लिए आश्चर्य मिश्रित घृणा की भाव को वह भाप लेता है और अपनी बात बीच में ही समाप्त कर देता है.

सुष्मिता बेहद आश्चर्य से संदीप का उस बूढ़े कुली के साथ किए जा रहे बर्ताव को देख रही थी वह पिछले 1 साल से संदीप को जानती है परंतु उसके व्यक्तित्व का यह रूप उसने आज पहली बार देखा था संदीप से उसकी मुलाकात कॉलेज के किसी फंक्शन में हुई थी बेहद शांत चित्त मिलनसार और एक अच्छे व्यक्तित्व के मालिक संदीप पर पहले ही नजर में उसका दिल आ गया था और आज वही एक मामूली सी बात पर किसी बुड्ढे गरीब पर इस तरह चिल्ला पड़ेगा उसने कभी सोचा भी ना था.

" पूरी चाय गिरा दी "..सुष्मिता को अपनी तरफ देखते हुए देखकर बड़े शांत स्वर मे वह बोल पड़ता है.


" हाँ, पर तुमने क्या किया बेवजह इतनी छोटी सी बात पर भड़क गए.., उसकी उम्र तो देखो बेचारा! किसी मजबूरीवश ही काम करना पड रहा होगा उसे ...," सुष्मिता नाराजगी दिखाती है.


सुष्मिता को नाराज होता देख खुद को सामान्य करने की कोशिश करता हुआ संदीप कहता है, "तुम सही कहती हो ..,मैंने ही बेचारे को बेवजह डांट दी जानबूझकर तो मुझ से टकराया तो ना था वह...,गलती मेरी भी थी मुझे भी देख कर चलना चाहिए था ",और फिर संदीप सुष्मिता की आंखों में देखते हुए खुशामद करने के अंदाज में बोल पड़ता है ,"मुझे तो तुम्हारी चिंता थी मैंने तुम्हारे लिए इतने प्यार से चाय लाई और वह भी गिर गई .."

लेकिन संदीप के प्यार भरे इस बर्ताव का भी सुष्मिता पर कुछ असर नहीं होता है . वह आगे भी नाराजगी दिखाते हुए कहना जारी रखती है , "वह भी तो इंसान है, गरीब है तो क्या हुआ उसके भी आत्म सम्मान है ".

सुष्मिता की नाराजगी कम नहीं होता देख वह मुंह घुमा कर दूसरी और देखने लगता है. ट्रेन अब खुल चुकी थी.


सुष्मिता संदीप के व्यक्तित्व के जिस शांत , प्रेममय , सहिष्णुता के गुणों को देखने की आदी थी , जिन गुणों का उस पर उसके मन और मस्तिष्क पर प्रभाव था, उसके जिस व्यक्तित्व ने उसके हृदय पर अपना साम्राज्य कायम किया था वह आज संदीप के द्वारा किए गए इस व्यवहार के कारण टूटने के कगार पर आ खड़ा होता है. सुष्मिता को संदीप के व्यक्तित्व के इस रूप को अभी तक पहचानने का कोई मौका ही नहीं मिला था वह तो संदीप के उन अच्छाइयों के आवरण में ही अब तक ढका हुआ था और आज प्रतिकूल परिस्थितियों में अचानक प्रकट हो गया था..

सुष्मिता संदीप के इस आचरण से बेहद दुखी होती है और इन बातों ने उसके मन मे एक अनजाना सा डर पैदा कर दिया था . वैसे भी इन दोनों के बीच की जान पहचान बस एक वर्ष पुरानी ही तो थी , हो सकता है उसके व्यक्तित्व के कई ऐसे गुण उसे देखने और समझने अभी तक बाकी हो..


संदीप जहां कि अभी थोड़ी देर पहले ही उस कुली की छोटी सी गलती पर जो कि आकस्मिक थी और जिसमें संदीप की भी गलती थी पर अपनी गलती को समझने की जगह क्रोध से वह उन्मत्त हुआ जा रहा था अब अचानक ही संयमित और शांत होकर सुष्मिता की खुशामदी में लग जाता है.

परन्तु उसके इस खुशामदी का सुष्मिता के दिल पर कोई असर नहीं होता है.


सुष्मिता उसके इस व्यवहार से क्षुब्ध होते हुए बोल पडती है, "मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ, मेरे लिए इस दुनियाँ में अब कोई नहीं है अतः मै चाहती हूँ ... मैं तुम्हें हमेशा ही प्यार करूं ,.. मेंरी नजरों से तुम कभी मत गिरना वरना मैं यह कभी भी सहन नहीं कर पाऊँगी ",... यह कहते कहते वह रुआँसी हो जाती है.. "मम्मी तो मेरे लिए होकर भी ना होने के बराबर है और पापा को तो तुम जानते ही हो हमारे द्वारा उठाए गए इस कदम से तो शायद वह अब अपनी औलाद मानने से ही इंकार कर दे ...",यह कहते हुए उसकी आंखों से आंसू छलक ने लगते हैं.. .. और फिर खुद को संयत करते हुए वह बोलती है, " तुम मुझसे यह वादा करो कि अबसे तुम भविष्य में कोई भी ऐसी बात या फिर ऐसा कोई व्यवहार नहीं करोगे जिसकी वजह से तुम मेरी नजरों में गिर जाओ.... "

संदीप, " मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं अपने इस व्यवहार से. वादा रहा भविष्य में मेरे कारण तुम्हें दुखी नहीं होना पड़ेगा."

मोहल्ले भर की भीड़ जो अब तक दरवाजे पर एकत्रित थी, वह अब जा चुकी थी और सब का कौतूहल भी ठंडा पड़ चुका था..... श्रीकांत का दोस्त रमन भी स्वयं के रुकने का कोई उपयुक्त कारण ना पाकर अपने घर चला जाता है जो कि श्रीकांत के घर से थोड़ी दूरी पर ही स्थित था.

श्रीकांत के पिता की क्रोधाग्नि जो अब तक बस सुलग रही थी, श्रीकांत के बातों को सुनकर उसकी विचारों को देखकर जिसकी प्रस्तुति उसने थोड़ी देर पहले अभी-अभी मोहल्ले वालों के समक्ष की थी, से अचानक ही तीव्र हो उठती है और वह गुस्से में श्रीकांत पर बरसने लगते हैं, ''तुम्हारी पत्नी तुम्हें छोड़ कर भाग गई है , और वो भी किसी और के साथ और तुम हो कि उसी की वकालत करने में लगे हो ....!

घर की मान मर्यादा का तुम्हें जरा भी ख्याल नहीं है , घर की इज्जत मिट्टी में मिला दी गई है और यह महाशय खड़े-खड़े उपदेश दे रहे हैं यह बड़ी-बड़ी बातें बस किताबों में ही अच्छी लगती है वास्तविक जिंदगी में नहीं.. हमारे यहां एक बार पति पत्नी का रिश्ता बंध गया तो मरने तक निभाई जाती है चाहे किसी की मर्जी हो या नहीं... "

पति का गुस्सा भड़कता देख श्रीकांत की मां बेटे की बचाव करती हुई बोल पड़ती है, " आप इस पर बिना कारण ही भड़क रहे हैं.. भला इसमें इस का क्या दोष ..., यह तो..... "

श्रीकांत की मां अपनी बात पूरी भी नहीं कर सकी थी कि बीच में ही बुआ जी अपने भाई का पक्ष लेते हुए बोल पड़ती हैं, " कसूर कैसे नहीं है इसका ...? इसकी पत्नी इसके कमरे से इसीके आंखों के सामने गायब हो गई और इसे भनक तक नहीं लगी ऐसा कैसे हो सकता है....!”

बुआ जी का इतना कहना ही था कि बड़के चाचा जो कि अभी तक चुप थे अपनी बहन की बातों से चिढ़ जाते हैं. वैसे भी उनकी लक्ष्मी बुआ से कुछ खास निभती नहीं थी. बड़के चाचा से बस साल भर की ही छोटी थी लक्ष्मी बुआ, परंतु फिर भी इनके बीच कोई स्नेह भाव नहीं था.

बड़के चाचा चिढ़ते हुए बोले, " क्या मतलब है तुम्हारा भनक नहीं लगी क्या वह बैठ कर उसकी पहरेदारी करता ...., और किस इज्जत की तुम सब बातें कर रहे हो...,कौन सी प्रतिष्ठा तुमने अब तक कमा रखी है जो मिट्टी में मिला दी गई ..., दहेज लेकर तुमने अपने बेटों की शादियां करवायी..इस बात से कौन सी इज्जत थी जो अभी तक बची हुई थी.., अरे , नीम का पेड़ लगाकर सोचते हो कि उससे मीठे फल निकले यह कैसे मुमकिन होगा..! "

बड़के चाचा अभी तक कुंवारे थे और उनके कुंवारे रह जाने का एकमात्र कारण दहेज ही था. यदि उनके पिता ने उनकी शादी के लिए दहेज की मांग नहीं रखी होती तो आज वे भी वैवाहिक जीवन का आनंद ले रहे होते उनका भी अपना परिवार होता अतः उन्हें दहेज नाम से ही चिढ़ हो गया था....वे दहेज के सख्त खिलाफ थे.

श्रीकांत के पिता अपने बड़े भाई के बातों को नजरअंदाज करते हुए पुन: बोल पड़ते हैं, " लोग मुंह पर भले ही कुछ नहीं बोले परंतु पीठ पीछे तो बाते बनाएंगे ही ..., हम किसका - किसका मुंह बंद करेंगे। लोग तो यही कहेंगे कि जरूर इनके बेटे में ही कोई कमी थी इसीलिए नई नवेली दुल्हन भाग गई. परंतु इसे दुनियादारी की समझ कहां है? हमने इसे अमेरिका पढ़ने के लिए भेजा था , वहां की संस्कृति को साथ लाने के लिए नहीं .., अमेरिका में यह सब होता होगा यहां ऐसी बातों को कोई नहीं समझेगा और ना तो हमारा समाज इसे स्वीकृति देगा.. "

ना चाहते हुए भी श्रीकांत अपने पिता की बातों पर क्रोधित होते हुए बोल पड़ता है, " किस इज्जत की बात कर रहे हैं आप ...! मेरा सौदा करते वक्त आपकी प्रतिष्ठा कहां चली गई थी मैं अपने सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर कुछ भी नहीं करने वाला पहले तो आप लोगों ने मुझसे दहेज लेने की बात छुपाई और अब मुझसे उम्मीद भी रख रहे हैं कि मैं किसी के साथ जोर जबरदस्ती करूं...! यह किस तरह की सामाजिक मर्यादा है जिसके पालन करने की अपेक्षा मुझसे की जा रही है.. किसी को जबरदस्ती अनचाहे रिश्ते के लिए मजबूर करके किस प्रकार के प्रतिष्ठा की रक्षा होगी... मैं किसी को जबरन अपनी पत्नी बने रहने के लिए मजबूर नहीं करूँगा.. हाँ, उसे तलाक देकर उसे इस रिश्ते से मुक्त कर दूंगा.. परंतु तब तक मुझसे इस संबंध में किसी भी प्रकार की चर्चा ना की जाए ...मेरी आप सब से यही विनती है कि मुझसे इस विषय पर अब कोई भी कुछ ना कहें वरना, मैं इस घर को छोड़ने में एक पल की भी देरी नहीं करूंगा...! " , इतना कह कर श्रीकांत बिना अपने पिता की प्रतिक्रिया का इंतजार किए ही वहां से अपने कमरे की ओर चला जाता है.

उसे इस तरह नाराज होता देख आगे किसी की भी उससे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं होती है.

श्रीकांत की यह बात उसके पिता को बहुत बुरी लगी वह भी वहां से अपनी बैठक खाने में आ जाते हैं और मूर्तिवत बैठे हुए आत्मनिरीक्षण में लीन हो जाते हैं, " यह जो कुछ भी हुआ उसका जिम्मेदार क्या मैं हूं ?....,मैंने जो कुछ किया सिर्फ अपने बच्चों की भलाई के लिए ही किया ...., कौन मां-बाप भला अपने ही बच्चों का अहित सोचेगा ...,वर्षों से यह प्रथा चली आ रही है ..,अपने बेटे को पढ़ाया लिखाया डॉक्टरी की पढाई के लिए अमेरिका भेजा क्या यह सब इतना आसान था ....,मैंने तो वही किया जो समाज के बाकी लोग करते हैं..., यह सब बड़के भैया का असर है.., उन्होंने ही श्रीकांत को बिगाड़ रखा है ...,खुद की तो शादी हुई नहीं...,खुद का तो घर बसा नहीं....,खुद के बच्चे तो हुए नहीं...., तो वह कैसे समझ पाएंगे एक पिता का दर्द क्या होता है..!लाखों रुपए जमा करके रखे हुए हैं.....,पर कभी एक पैसे की मदद नहीं की .....,और आज ज्ञान बांट रहे हैं... हूँह...! " उनके मन में अपने बड़े भाई के प्रति नफरत सा होने लगता है,.. फिर अगले ही पल जैसे उनके मन में सहानुभूति का भाव उत्पन्न हो गया हो.., खुद से ही बोल उठते है.. नहीं.. नहीं.. उनका भी क्या कसूर! नीरसता तो उनकी जिन्दगी में ही भरी पड़ी है.. फिर उनसे अच्छाइयों की उम्मीद कैसे की जाए....!

और फिर अगले ही पल उनके मन में जैसे किसी अन्य भाव ने अचानक ही जन्म लिया हो. उनके चेहरे पर घृणा के भाव उभर आते है..., श्रीकांत भी उन्हीं के बहकावे में रहता है ..., अरे,..कुछ वर्ष अमेरिका क्या रहा आया इसके सोचने के तो तौर तरीके ही बदल गए...

श्रीकांत के पिता बैठक खाने में आराम कुर्सी पर आंखें बंद किए हुए खुद से ही बातें ....,नहीं ...., आत्म निरीक्षण कर रहे थे. परंतु आत्म निरीक्षण से भी ज्यादा बड़के भैया को मन ही मन कोसते जा रहे थे.उन्हें इस बात का अत्यधिक बुरा लग रहा था कि बड़के भैया श्रीकांत को समझाने की जगह उल्टा उन्हें ही सब बातों का कसूरवार ठहरा दिए थे ...,तभी फूफा जी बैठक खाने में श्रीकांत के पिताजी के पास आते हैं...

इधर श्रीकांत अपने कमरे में आता है तो सहसा उसके पांव दरवाजे पर ही रुक जाते हैं.. .

क्रमशः

गायत्री ठाकुर