-जिंदगी की राह-
आज दिल की कह रहा हूँ, सुन सको तो, बात साही।
जिंदगी की राह में, भटका हुआ है, आज राही।।
बंध रहा भ्रमपाश में तूँ, कीर-सा उल्टा टंगा है।
और खग हाडि़ल समां भी, टेक हरू, रंग में रंगा है।
यूँ रहा अपनी जगह, और शाज बजते, आज शाही।।
तूँ अकेला कर्म पथ पर, और तो सोए सभी घर।
कौन कर सकता मदद तब, पुज रहीं प्रतिमां यहां पर।
हर कदम पर देखता, पाषाण दिल है, पात शाही।।
न्याय के हर द्वार कीं, पुज रही हैं, आज दहरीं।
है नहीं रक्षक यहां कोई, सो रहे हैं, आज प्रहरी।
फाईलों के पृष्ठ भी अब, मांगते दिखते सुराही।।
धर्म गूँगा, कर्म बहरा, कौन किसकी सुन सकेगा।
न्याय के खातिर खड़ा तूँ क्या कभी कुछ ले सकेगा।
यह विषम-बीरानगी की राह, जिसका अंत नाहीं।।
मुक्त सूरज नहीं उगा है, दिल-दिए भी, बुझ रहे हैं।
है अमां की रात चहुदिशि, कौन-कहां पर, चल रहे हैं।
क्रांन्ति तब उद्घोष करती, ला सकूँगी शान्ति राही।।
-गीत मैं तो गा रहा हूँ-
आज की ताजी व्यथा को
मैं सुनाने जा रहा हूँ।
मानलो- दुख में, प्रणय के,
गीत मैं तो गा रहा हूँ।।
छा रही है ऋतु बसंती,
पर हृदय, पतझड़ बना है।
आज के इस आईने में,
दर्द का सांमा तना है।।
कांपती है हर व्यवस्था।
शाम होने जा रही है।
देखलो। यह भीड़ सजकर,
मच्छरों-सी, आ रही हैं।।
खून के प्यासे, निठुर हो,
पी-चुके, कब तक पिओगे।
और हमरी, जिंदगी पर।
इस तरह कब तक जिओगे।।
सोचलो तुम हर जिगर में,
दर्द भारी हो रहा है।
तब पिशाची आचरण से,
आसमां भी, रो रहा है।।
-मैं दीपक-
मैं दीपक, जला लो, जरूरत तुम्हारी।
इसी के लिए, जिंदगी ये हमारी।।
संजोता रहा जिंदगी की कहानी,
भरता रहा, स्नेह की रबानी।
खुद की खुदी को, न जीवन बनाया।
निज को नहीं, गीत औरों को गाया।
अंधेरा मिटाने की, मेरी खुमारी।।
सबका अंधेरा मिटाता रहा हूँ।
अपने तले तम, विटाले रहा हूँ।
पर की खुशी में, ये जीवन दिया है।
शलभों से जीवन न, हमने लिया है।
जलकर बुझे, जिन्दगी है हमारी।।
जरूरत गई स्नेह सबको पिलाया।
नीरस बने नेह हमने न पाया।
तम से लड़े, प्यार फिर भी न आया,
फूंकर, दुधारी से तुमने बुझाया।
फिर भी, सभी को है, मेरी जुहारी।।
-अन्तर में----
स्वातंत्रय देश मेरा,
फिर भी गुलाम बैठे।
दर-दर की ठोकरों से,
मुश्किल बना है जीवन।।
आती न नींद निशि में,
दिन-रात सोचते हैं।
खाली है पेट जिनका,
होती है देख टीमन।।
हर काम की कहानी,
नोटों पर पल रही है।
आमद में आज होरी,
जीवन की जल रही हैं।।
हर सत्य के हृदय में,
कहीं झूँठ भी छिया है।
अन्तर में गहरी खाई
देहरी हीं, लिप रही हैं।।
निज लक्ष्य को विठाने,
कंधा किसी का होगा।
अंगुआ बने न कोई,
उधड़ी हुई है सीबन।।
-नव युवक--
ग्रीष्म ऋतु के सूर्य बनकर,
विश्व को तपना सिखादो।
तीब्र झोंखे बन हवा के,
विश्व को कंपना सिखादो।।
दृढ़ धरा-सा शान्त स्वर हो।
शान्ति का मारग दिखा दो।
हौं न विचलित एक भी पग,
जन हृदय ऐसा बना दो।।
समधि से बन शान्त-स्थिर,
विश्व को दृढ़ता सिखा दो।
इन गुणों से तुम बने हो,
युवक, अब पौरूष दिखा दो।।
अंगद-कदम जमा लो,
कोई मुक्ति गीत गादो।
कांपेगा विश्व-पग पग,
ऐसा भू-चाल ला दो।।
खारों को हटा-मू से,
नव सुमन मू-बिछा दो।
हम ही हैं मुक्त साधक,
दुनिया को यह दिखा दो।।
-वेदना के गीत--
मुँह छुपाना है तुम्हें तो,
पाप से बेशक छुपालो।
दीन-हीनों को व्यथित लख,
वेदना के गीत गालो।।
जिंदगी से मोह है यदि,
अन्य को भी तो निहारो।
पग चले हैं, शान्ति पथ तो,
शान्ति से सबको पुकारो।।
अन्न को दर-दर भटकता,
अन्नदाता, क्या बना है।
क्या उसी की आहुति का,
आज यह, शमा तना है।।
जी रहे फिर भी, कहां तुम,
बेतुके घन बन, बरसते।
प्रेम के जल के जलदि नहीं,
उथल हिम के बन बरसते।।
इस क्षणिक सी जिंदगी में,
कोई लक्ष्य तो बनालो।
सार्थक तब जीवन होगा।
नवगीत, युग के आज गालो।।
--सोती कली को--
दर्द के दरिया किनारे,
दर्द को जो सह रही है।
आह में, अपनी कहानी।
ये जुबानी कह रही है।।
पेट की खातिर सभी कुछ,
गम दिलों के, बो रही है।
जान नहीं पाए अभी तक,
ये जुबानी, कह रही है।।
भूँख से तपता हो जीवन,
गम दिलों से खो रही है।
लकडि़यों के गट्ठरों को,
ये जवानी ढो रही है।।
हर जबां को शहन करती,
मानवी वन चल रही है।
नीच-वैभव की डगर पर,
आज ये भी खल रही है।।
क्रान्ति में, विश्रान्ति में जो,
स्वप्न में, सुख में नहीं है।
ओ पवन। सोती कली को,
छेड़ना तो हक नहीं है।।