मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 4 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 4

मैं भारत बोल रहा हूं 4

( काव्य संकलन )

वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’

11.परिश्रम

व्यर्थ होता है कभी क्या-यह परिश्रम,

कर्म की गीता पसीना बोलता है।

बिन्दु में वैभव, प्रगति प्रति बिम्ब बनते,

श्वास में बहकर सभी कुछ खोलता है।।

सृष्टि की सरगम, विभा विज्ञान की यह,

क्रांन्ति का कलरव, कला की कल्पना है।

विग्य वामन का विराटी विभव बपु है,

गर्व गिरि, गोधाम जम की त्रास ना है।

श्रवण करना है, श्रवण को खोल कर के,

मुक्ति गंगा का विधाता बोलता है।।1।।

जो चला, निश्चय उसे मंजिल मिली है,

सुचि सुरभि ने सुमन से स्वागत किया है।

प्रगति पग का, गर्व तज कर, गगन ने भी,

अश्रुजल से प्रेम प्रच्छालन किया है।

तरनि भी तज तेज तापन, शशि बना यहां,

बिन्दु में ही सिन्धु डगमग डोलता है।।2।।

गगन भेदी गुवंदो की बोलती बुनियाद हरक्षण,

किलों की कुंदन किनारी, कोकिलों से बात करती,

वार से वारीक देखो दस्तकारी राज दिल की,

कर कला भी आज यहां, जीवित कला सी बात करती,

क्या नहीं करता यहां पर श्रमिक का श्रम

समय की सब तौल, हरक्षण तौलता है।।3।।

12.पावन पर्व

आज पावन पर्व में, तुम गीत मुक्ति के सुनाओ।

त्याग कर मतभेद, सच्चे प्रेम से नजदीक आओ।।

जो बना सकते, तो दुनियाँ को बनाकर के दिखाना।

जो लगा सकते, तो सुन्दर पुष्प,फल बगिया लगाना।

जो जला सकते, तो पावन ज्ञान कर दीपक जलाना।

जो जगा सकते, तो सोये युगों से, उनको जगाना।

बस यही पावन पर्व पर, कार्य तुम करके दिखाओ।।1।।

इस जहां की चाल में, चलते नहीं, गिरते दिखे हैं।

कर रहे व्यवहार कुछ, सिद्धान्त बस कोरे लिखे हैं ।

छल कपट परिधान पहने-छली दुनियां में पुजे हैं,

जो लिये श्रंगार गहने, वे हलालह में बुझे हैं ।

छोड़ अस बहुरूपिता को आज सच्चा रूप लाओ।।2।।

आज भी पावन जमीं पर, गाढ़ दो गौरव निशाना।

सूल के स्थान पर ही, फूल सब मग में विछाना।

गर्व गौरव का तुम्हें तो, देश को ऊॅंचा उठाना।

द्वेष मधुशाला मिटाकर, ज्ञान की शाला बनाना।

हो कहीं मानव सही में, गीत तुम मनमस्त गाओ।।3।।

यहां विछी सतंरज-चौसर चाल ये सब चल रहे हैं ।

गोट अपनी को बचाने और के घर खल रहें हैं ।

सोचलो!सब ओर में दरवानगी के ये सिपाही।

घेर कर तुझको खडे है गोट अपनी अब बचाना।

पर प्रलोभन की लपट से देख अपने को बचाओ।।4।।

13. व्यवस्था की रेलगाडी

व्यवस्था की रेलगाडी, बहुत धीमी चल रही हैं।

मूक बन बैठे सभी, हर किसी को खल रही है।।

हर कदम पर देखलो अब, पटरियाँ हैं लडखडाती,

लग रहा ढीली कसी है, स्लीपरों पर खड़खड़ाती।

और चक्का जाम सच में, जंग इनमें लग रही है,

मूंक............................................... रही है।।1।।

ठीक करने की व्यवस्था, जिन करों में सोंपतें हैं ,

उन करों की क्या कहै, वे जहर का नख घोंपते हैं ।

रोशनी से हीन डिब्बे खिकडकियां भी झड़ रहीं हैं ,

मूंक..................................................रही है।।2।।

बन गये चालाक चालक, मौज मस्ती ले रहे हैं,

जाम भर-भर जाम लेते, जाम दुनियाँ कर रहे है।

कोल फायर मैंने बेचे, स्टीम ठंडी पड रही है,

मूंक.................................................. रही है।।3।।

क्या भरोशा गार्ड का है, गार्ड की कहानी निराली,

नींद गहरी शयन-गा में, गार्ड डिब्बा हाय खाली,

सोचते मनमस्त क्या हो, अंधड़मेला चल रही है

मूंक...................................................रही है।।4।।

14.पसीने की दास्तान

यह न जानो कि, पसीना चुप रहा है,

बोलता जब, तब हिमालय डोलता है।

श्वांस में मथते दिखे है सप्त सागर,

प्रलय होतीं, जब भी आँखें खोलता है।।

इस पसीने से स्वर्ग आया धरा पर,

देवता बैचेन, धरती हंस रही है।

क्या गजब लीला पसीने की दिखी है,

हर कलाऐं रूप धरकर नच रही है।

मानवी की मुक्ति का अवतार है यह,

रोकना मुश्किल इसे जब खौलता है।।1।।

मौन धरती ने मुखर हो, पग बढ़ाकर,

रतन सारे इसी को अर्पण किये हैं ।

हर घडी पर सौरभी सुन्दर सुमन से,

अनवरत इस धरा ने स्वागत किये हैं ।

कौन इतना कर्मयोगी हो सका है?

सृष्टि का कण-कण हमेशा बोलता है।।2।।

विश्व का वैभव इसी के उर-उदधि में,

यह विराटी रूप धर सन्मुख खड़ा है।

जब कभी भी सृष्टि में भू-चाल आया,

रोकने को कर उठा कर, यह अड़ा है।

पढ़ सको तो तुम पढ़ो, इसकी लिपी को,

कब कहां पर किस विधा में बोलता है।।3।।

मानवी में मानवी अवतार है यह,

दानवी संहार का नरसिंह जानो।

विश्व की वैभव-विभा का यह विधाता,

युग-युगों का योग्यतम युग पुरूष मानों।

कौन इसके सामने अब तक टिका है,

हर कही उन्मुक्त हो यह डोलता है।।4।।