मैं भारत बोल रहा हूं 3
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
8.जागना होगा
फिर घिरा, घर में अंधेरा, जागना होगा।
नींद में डूबे चितेरे, जागना होगा।।
और भी ऐसी घनी काली निशा आई-
तब चुनौती बन गयी थी तूलिका तेरी।
रंग दिया आकाश सारा सात रंगो से-
रोशनी थी चेतना के द्वारा की चेरी।
सो गया तूं, सौंप जिनको धूप दिनभर की-
ले चुके बे सब बसेरे-जागना होगा।।1।।
नींद में ................................................
दूर तक जलते मरूस्थल में विमल जल सा
सहज-शीतल, गीत उसका नाम होता है।
किन्तु यह वंशी नहीं केवल बहारो की-
ऑंधियों और रेत के आवर्त लगे संज्ञा-
हाथ ऊपर सिर्फ तेरे, जागना होगा।।2।।
नींद में..................................................
ले झटकदे यह सघन-जडता शिराओं की-
खलबलाते रक्त की फिर धार बहने दे।
तोड़दे वे पाश, तन-मन की हतासा के-
देह को वेसुध नहीं, उतप्त रहने दे।।
आने वाले, अब तुझे फिर देखना होंगे-
पॉंव सहलाते सवेरे-जागना होगा।।3।।
नींद में...............................................
9.किसान
धन्-धन् तुम्हें किसान, गौरव के वरदान।
मातृ भूमि की लाज बचाने, करते अर्पण प्राण।।
प्रथम चहक चिडियों की सुनते,
अपने अन्तरमन में गुनते,
बैलों को भूसा है धरना,
क्या-क्या काम खेत में करना।
चिंतन में प्रातः की लाली, का होता हो भान।।
धन् धन् तुम्हें किसान।।1।।
सूरज पहले उग न पाये,
होड़ लगाकर कदम बढाये,
कंधा जुआ और हल धारे,
डोरैं बैल धन्य हर हारे।
ऊषा की लाली भी जिसका-करती हो सम्मान।।
धन् धन् तुम्हें किसान।।2।।
हल को चला बीज जब बोता,
अपना मानस श्रम बल धोता,
उगतीं फसलें मनहु जुन्हाई,
खरपतवार दये निंदवाई।
जब देखत मनमस्त फसल को,
उड़ता गहन उड़ान।।
धन् धन् तुम्हें किसान।।3।।
समतल करता पानी भरके,
धान रोपता खांचा करके,
पकैं फसल जब चिडिया आबैं,
गोफन लेकर तुरत भगावैं।
हो!हो!! चिडिया, चिडियां हो! हो!!
खाओ न मेरी धान।।
धन् धन् तुम्हें किसान।।4।।
सर्दी, गर्मी बर्षा झेले,
हंस हंस खेल अनौखे खेले,
कभी उदासी वदन न छाई,
गुन गुन गीत रहा जो गाई।
सुबह शाम का आना जाना
-इसे न होता भान।।
धन् धन् तुम्हें किसान।।5।।
अहा! निराला जीवन इसका,
क्या बतलायें रूप है किसका,
कठिन परिश्रम, दूर दृष्टि है,
कितनी सुन्दर सुमन सृष्टि है।
भारत को मनमस्त बनाने
वाला यह भगवान।।
धन् धन् तुम्हें किसान।।6।।
10 .बम्बई की सुबह-शाम, लहरें सुनामी-सी
घोर सोर सभी ओर, डूब रहा,पोर-पोर।
भीषण प्रवाह लिये, तोड़ते किनारो को,
बम्बई की सड़को पर, मानव प्रवाह था,
अन्तर मे दाह था।
पूरव से पश्चिम तक,
उत्तर से दक्षिण तक,
इधर-उधर हर कहीं,
भाग रहा मानव यूं,
लहरें ज्यौं सागर की।
अपने में खोये से,
अनजाने लोग सब,
संचालित तन था,
दूर कहीं मन था,
कदमो मे तेज गति,
चक्रित सी मौन मति,
बॅंधी जो कलाई पर,
देख रहे बार-बार,
घड़ियों को घड़ियो में।
भीड़ भरी, भीड़-भाड़,
दो पहिया, जीप, कार,
अनगिनते रंग लिये,
उठते विचारों को,
अपने ही संग लिये,
रस्ता यौं नापी थी,
आपा और धापी थी,
गति के अवरोधक थे,
जगह-जगह चौराहे।
मिलते ज्यौं आपस में,
भुजा उठा बॉंहें,
मौंनवती भाषा थी,
जल्दी की आशा थी,
मिलते इशारों में,
जीवन-परिभाषा थी।
मन के समुद्र में,
उथली-सी आह थी,
जीने की चाह थी।
इतनी थी तेज चाल,
दौंड़ रहे रोड़ ज्यौं,
ऊॅंची अट्टालिकाएं ,
पीछे रह जाती थीं।
कैसी क्या आशा थी?
अंबर और धरा बीच,
अनपढ.-सी भाषा थी,
घुटती सी आहों में,
घुमड़ते प्रवाहो में,
टूटे से शंख शीप,
मानव की चाहों में।
उठते बवंडर में,
मिलता न कोई हल,
मानव के अन्दर था,
घनीभूत कोलाहल।
ऊूंची अट्टालिकाऐं,
अन्दर में डोल रही ,
अनजानी भाषा में,
सब कुछ ही बोल रही।
पुल,पोल, कोटर में,
बुझती निगाहें भी,
कैसे?क्या?खेल रही,\
कितनी क्या?झेल रही।
अंध,घने अॅंधियारे,
एक दूजे को यहां,
सुबह शाम आशा में,
आपस में खोज रहे,
ऐसे ही रोज रहे।
पैदल,सवार सब,
दौड-धूप, धूप-दौड,
क्षण भंगुर जीवन में,
मिलते अनेक मोड़,
अम्बर के वस्त्र ओढ़,
खुले आसमान तले,
अनचाही मृत्यु से
कितनो ने हाथ मले।
सभी ओर उठती हैं,
लहरें सुनामी-सी,
जीवन के ऑंगन में,
छाया अनुगामी-सी।
गाती कुछ गीत नए ,
बहरे से कान भए ,
फिर भी हैं ऑंखों में,
स्वप्नो के साज नए ।