mai bharat bol raha hun - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 9

मैं भारत बोल रहा हूं 9

(काव्य संकलन)

वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’

33. शहीदों को...........

अब-भी कुछ ऑंखों से अश्क बहालो साथी!

पाषाणों का हृदय दरकता नजर आ रहा।

वे-शहीद सीमा पर कैसे हुऐ हलाहल

क्या कहता आबाम, नहिं कुछ नजर आ रहा?।।

सोचो! फिर भी कैसे-कैसे जश्न हो रहे,

तंदूरी का काण्ड, ताज को भूल गऐ क्या?

कितने वर्ष बीत गऐ, ऐसी खिलबाड़ों में,

चंद्र, भगत, आजाद का पानी उतर गया क्या?

ऐसी गहरी नींद सो गऐ, इतनी जल्दी,

अब तो जागो वीर! समर-सा नजर आ रहा।।1।।

श्रवण खोलकर, क्यों नहिं सुनते भारत मॉं की?

उठती गहरी टीस, कराहैं तेज हो गईं

टॅूक-टॅूक-सा हृदय हो रहा, यूं लगता है,

मलिन हो रहा बदन, कि आहें तेज हो गईं।

कैसे मॉं के पूत? ऑंख के ऑंसू सूखे?

वो-पानी कहाँ गया, जिसे संसार गा रहा।।2।।

अब-भी समय! सॅंभालो इस वीराने जग को,

शास्त्र-शस्त्र के पूत! कि सीमा तुम्हें बुलाती।

करलो कुछ उपचार, समय है ओ! वाणी सुत,

पछताओगे सदा, लौटकर बात न आती।

भारत मॉं की लाज तुम्हारे कर-कमलों में,

पुनः उठाओ कलम!, आज युग कहाँ जा रहा।।3।।

34.हिन्दी का सम्मान करें हम

हिन्दी दिवस, परम पावन, पर हिन्दी का सम्मान करें हम।

किन्तु अन्य भाषाओं के प्रति, समता मूलक भाव रखैं हम।।

क्या केवल हिन्दी के बल पर, सुन्दर भारत बना हुआ है,

पंजाबी-पंजाब, वंग में बंगाली का गान हुआ है।

यहाँ अनेकता बनी ऐकता, फिर कैसा अभिमान हुआ हैं,

जब कि, भारत ऐक-ऐकता के धागे में बंधा हुआ है।।

राष्ट्र अंखडित जो चाहों तो, द्वेश-भाव का त्याग करें हम।।1।।

सब के सद् साहित्य बतातें, भाषा-गौरव-गर्व-निराला,

क्या गुजराती, द्रविड़, मराठी, राजस्थानी, असम, केरला।

अरबी, उर्दू और फारसी, आंगल के उदगार निहारो,

सबका भण्डारन है भारत, अपने मन में जरा विचारों।

आज सभी, इक जुट हो बोलो, हिन्दी का सम्मान करें हम।।2।।

राष्ट्र-भाव में सब भाषायें मिलकर-गंगा-यमुन हो गयी,

हिन्दी बनी राष्ट्र भाषा तो अन्य सभी क्या त्याज्य हो गयी।

अगणित रत्न छिपायें उर में- वह रत्नाकर बोला जाता,

इस धरती पर नेक बनें तो, युग गायेगा गौरब गाथा।

बन जाये मनमस्त हमारा भारत, ऐसा गान करै हम।।3।।

35.स्मृति में-शहीद

तुम्हारे आईने में बस यही था- अक्श भारत का।

अखण्डित-ऐकता के सूत्र को इतिहास गाता है।।

तुम्हीं ने भव्य-भारत को निहारा था करीबी से,

जहॉं पर मानवी को मानवी से गहन नाता है।

भरे है त्याग और बलिदान से वे पृष्ट सारे ही-

उन्हीं सदभाव के गीतों को सारा विश्व गाता है।।1।।

तुम्हीं हो कर्म पथ के, इक अनूठे पथिक, अपने में,

बचा ली लाज शिर देकर, बली सिद्धान्त गाता हैं।

जहॉं हो धर्म, भाषा के विवादों का महा-संगर-

वहॉं तब शान्त उपवन का, नया निर्माण आता है।।2।।

तुम्हारी राह पर चलकर सभी अलगाव को भूले-

त्याग के तुम मसीहा थे, तुम्हें बलिदान भाता है।

पुजारी बन गऐ थे, मानवी हित में अनोखे से-

भारत विश्व का गुरु है, तुम्हारा त्याग गाता है।।3।।

36. आज का आदमी

आदमीयत परे ,आदमी ही रहे,

अपनी लीकों चले, जानवर कहे गऐ।

कितना छदमो भरा, आदमी का चलन,

पर रक्षण जिऐ, राह कंटक भऐ।।

पीर के तीर चकवाक किसने लखे?

करवटों को बदलते किनारो खड़े।

चॉंदनी की चाहत में, चकोरी मरी,

चॉंद अब तक रहा, अपनी हद पर अडे़।।

कैसा दस्तूर संसार का यह अजब,

जिसको चाहत में चाहा, वही दूर है।

लीक से हट गया, आदमी आज का,

चमका वे-जोड़ जो, वोही कोहनूर है।।

कितना दुश्वार जीवन हुआ आजकल,

सच की, अन्याय कंधो पर अर्थी कढ़ी।

कोई बोला नहीं देखते सब रहे,

नहीं तकरीर की, न इबादत पढ़ी।।

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