मैं भारत बोल रहा हूं
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
37. कवच कुण्डल विना
व्याकरण ना पढ़ा, व्याख्या करते दिखा,
शब्द-संसार को जिसने जाना नहीं।
स्वर से व्यजंन बड़ा, या व्यजंन से स्वर,
फिर भी हठखेलियाँ, बाज माना नहीं।।
नहीं मौलिक बना, अनुकरण ही किया,
ऐसे चिंतन-मनन का भिखारी रहा,
आचरण में नहीं, भाव-भाषा कहीं,
नीति-संघर्ष से दूर, हर क्षण रहा।।
जिंदगी के समर, अन्याय पंथी बना,
बात की घात में, उन संग जीवन जिया।
अनुशरण ही किया, उद्वरण न बना,
मृत्यु के द्वार नहीं कोई धरणा दिया।।
कोई साधक बना, न कहीं उपकरण,
विना कवच-कुण्डल आज रण में खड़ा।
होयेगा क्या विजय? कैसे बतला सको,
विना हथियार के , कोरा जिद पर अड़ा।।
38.आस्तीनी हो!
अपना समझा तुम्हें, अपने ना ही कढ़े,
अपनी घातों में दबके, दबके रहे।
दूध पीया मगर, जहर उगला सदॉं,
ऐसी अनबूझी, कहानी ही कहते रहे।।
अब भी बदला नहीं, आचरण आपने,
लोग दूर ही रहे, इतने बदनाम हो,
फूक से, दांत से, जहर उगला सदॉं।
दॉंत जहरीले, केवल तुम्हीं नाम हो।।
लगता प्यारों से कोई नहीं वास्ता,
छद्म वेसी तुम्हारा चलन ही रहा।
आज भी हो, निगाहों में, सबके तुम्हीं,
सांप तो हो मगर, आस्तीनी कहा।।
39.हिन्दी दिवस
हिन्दी दिवस सिर्फ मनता है, कोई न उत्स झरे,
हिन्द सितारों को ही अब तो, हिन्दी याद करें।
वो कविरा की टेर, सूर्य के पद की झॉंकी ,
अब भी गाते लोग साख है, साखी सांसी।
तुलसी कविता नॉंद, मीर के पीर तराने,
दादू मीरा प्रेम, भक्ति रेदासी चाखी।
ताकत इनकी ओर, बॉंह की तकिया शीश धरे।।1।।
कहानी प्रेमचंद की सुनने, भारतेन्दु की भाषा,
जयशंकर प्रसाद पथ जोहत, दिनकर की अभिलाषा।
साकेतों का प्यार मैथली, धर्मवीर की गाथा
निराला और हजारी से भी, लगी अनूठी आशा।
सॉंकृत्यायन महादेवी भी, कभी नहीं विसरे।।2।।
माखनलाल, सुभद्रा चिंतन, नागार्जुन की धरती,
मुक्ति बोध अज्ञेय, सुलेखन, दुष्यंत आहें भरती।
पंत सुमित्रानंदन, बच्चन, फणीश्वरनाथ, कमलेश्वर,
निर्मल वर्मा, परसाई संग, जनमन दुख को हरती।
मोहन राकेश, सरद गोशी से, जीवन दुख टरे।।3।।
रवीन्द्रकालिया, कर्ष्णासोवती, नीरज गीतो बोली,
श्री लाल जी शुक्ल व्याख्या, जयनेन्द्र भाषा भोली।
देवकीनंदन खत्री चिंतन, और कई अलवेले,
साहित्य-सुमन रहे नित यादों, फैलाती निज झोली।
अब तक राष्ट्रभाव भाषा नहीं, चिंतक सभी डरे।।4।।
हिन्दी के प्रतिनिधी कवियों को, हिन्दी नमन करें,
जिन्दी रही तुम्हारी कोशिश, अब नित पंख झरे।
आज सिर्फ यादो तक सीमित आगे की को जाने,
खींचातानी मची देश में, अखियन अश्रू भरे।
का सोचत मनमस्त वावरे, सोचन काहै मरे।।
40.श्रम विन्दु
शीश के श्रम विन्दुओ को, क्या कभी देखा?
यदि, कभी देखा तो, उनका क्या किया लेखा।
सिर्फ तौला ही, कभी क्या दर्द पहिचाना
जिंदगी ऑंसू रही, खींच दी रेखा।।
वो तरसती जिंदगानी, मेहरवानी को,
वो उघारे रात-दिन भी गिनत जाने को।
सागर बना डाला जिन्होंने, पहाड़-चोटी को
तरसते हैं आज भी वे, ऐक रोटी को ।।
गौर कर देखो जरा कुछ, ऑंख के ऑंसू
घाव गहरे कर दिऐ हैं, बने जो नाशू
प्यार की मरहम, तुम्हारे पास क्या कोई?
कर सके मनमस्त उनके हृदय को काशू..।।
41.टकसाल
कहाँ गई टकसाल मेरे देश की।
बह पुरातन वेश की परिवेश की।।
ईश अवतार की धरती कहाँ गई।
यमुना गंगा धार अब कैसी भई।
चिंतनों में थे, मनु श्रद्धा के साऐ, खोगऐ-
हिम शिखर की गोद ऐसी क्यों भई।
आग सी लपटें बनी जहाँ शेष की।।1।।
सत्युगी दरबार कहाँ पर, खो गया।
वो धारा का प्यार कहाँ पर, सो गया।
सगर से योद्धा, दिलीप सी, आन वह-
रघु की पावन धरा को ले गया।
कोई तो सोचो, अभी भी देश की।।2।।
न्याय के सिद्धांत कैसे हो रहे।
राम कृष्णा के नियम क्यों खो रहे।
दिव्यगीता का कहाँ अनुनांद है-
आज पापों को, धरा क्यों वो रहे।
खुल रहीं पाती, अनंती केश की।।3।।
आज भी सोचो, धरा की आनि की।
छोड़ दो अठखेंलियाँ, निजतान की।
वुद्धि के तुम हो सितारे, जग पड़ो-
राख लो, लज्जा ही अपनी शान की।
मनमस्त ठानो-ठान, पावन भेष की।।4।।
42. बच्चों की मुस्कान
वे-मानी के इस पतझड़ में, बच्चों की मुस्कान कहाँ है,
भूख-पसीने के चिंतन पर, रागों की वो तान कहाँ है।
मुर्गा बोतल का उत्सव ये, कितना लंम्बा और चलेगा-
उस मानव चिंतन की बोलो, होती क्या पहिचान यहाँ है।।
मुस्कानों को बेच, खड हो किस चिंतन में,
आसूं को भी रहने दोगे, इस भूतल में।
बाजारू यह देह, विक रही क्यों बाजारो-
क्या होते हो तुम भी सामिल, उस हलचल में।।
एक नयी दुनियां को रचने, तुम आये हो,
गीत कौनसे, गाते यहाँ पर, तुम पाये हो।
मनमानी करते, जन-मन को, बहिला करके-
छदम वेश की पोषाकों में, तुम छाये हो।।
यहाँ कपास की गॉंठें, चुनता अन्न विधाता,
कूड़े के ढेरो पर देखा, बचपन गाता।
वृद्धों का जीवन चलता, यहाँ विना सहारे-
लोकतंत्र परिभाषा, मनमस्त कौन पढाता।।