मैं भारत बोल रहा हूं 5
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
15.संकल्प करलो निराला
न्याय की होंली जले जहॉं, सत्य का उपहास हो,
संकल्प लो! उस राज-सी दरबार की दहरी चढ़ो ना।।
जन हृदय की बीथियों की धूल को कुम-कुम बनाना,
शुष्क मुकुलित पंखुडी को, शीश पर अपने बिठाना।
अरू करो श्रंगार दिल से-धूल-धूषित मानवी का-
सोचलो पर, दानवों की गोद में नहीं भूल जाना।।1।।
फूंस की प्रिय झोंपडी में, सुख अनूठे मिले सकेंगे,
दीपकों की रोशनी में, फूल दिल के खिल सकेंगे।
सदां प्यारी जिंदगी को, फूल-सी सुन्दर समझ कर,
चाव कर सूखे चना भी, प्रेम से दिन काट लेना।।2।।
त्याग कर जीना तुम्हें है, रत्न मुकुटों की कहानी,
न्याय का अस्तित्व सच है, छोड़ चल अपनी निशानी।
जीवनी-घृत यज्ञ रचकर, विश्व को मनमस्त कर दे,
पर प्रलोभन की लपट से, देख अपने को बचाना।।3।।
16.उस गुलशन का क्या होगा?
सोच आज मानव का कुंठाओं से कुंठित,
तुम कहते कुछ नये गीत ”मनमस्त“ सुनाओ।
बागवान ही, बागी बन, जहॉं करैं बगावत,
उस गुलशन का क्या होगा? अब तुम्हीं बताओ।।
गहन वेदनाऐं घहराती गगन चढ़ी हैं,
पथरीले गलियारे, कटंक गढे़ं पॉंव में।
राजमार्ग को यहाँ, बबूलों ने ही घेरा,
नागफनी उग आयीं, देखो गॉंव-गॉंव में।
जहरीला हो गया धरा का चप्पा-चप्पा,
जन-जीवन का क्या होगा? अब तुम्हीं बताओ।।1।।
वातरवरण प्रदूषित चहुंदिस, श्वॉंस कहाँ लें,
जल भी जलकर लगता है, अब भाप हो गया।
बौनों की पल्टन ने, यहाँ कुरूक्षेत्र रचा है,
रावण-सा परिवार, यहाँ सब पाक हो गया।
पावन गृह, परिमाणु-शस्त्रागार हो गये,
आज जिंदगी जियें कहाँ? अब तुम्हीं बताओ।।2।।
मानसरोवर पर, कागों की लगी सभाऐं,
लगता है, हंसों को कैदी बना लिया है।
स्यार जंगलों के शाही राजा बन बैठे,
सिहों को आजीबन कारावास दिया है।
अब भी समय संभालो, इस वीराने जग को,
बारूदी घर बैठ, अमन के गीत न गाओ।।3।।
चारौ तरफ देखलो तांडव नृत्य हो रहा,
आसमान भी आज उगलता है अंगारे।
धरती धीरज धीरे-धीरे धसक रहा है,
घेर रहे है देखो सूरज को अधियारे।
साहस बांधो, समय गवाना ठीक न होगा,
सोचो, खुद को कितने दिन अब और छुपाओ।।4।।
रेल गाड़ियों-सी धड़कन बढ़ती जाती हैं ,
अनचाहे जालों के जाले उलझ गये हैं ।
हर क्षण पर टकराव खड़ा अंगड़ाई लेता,
चालक भी वे-समय, होस तज सोय गये हैं ।
कैसे आगे चले जिंदगी की ये गाड़ी,
हर क्षण पर गडबड़ ही गडबड़ सुनते जाओ।।5।।
श्वेत पोश ऊसर काया बन रही धरा की,
जिसमें अब आशा के पौधे नहीं निकलते।
करलो कुछ उपचार धरा को स्वर्ग बनाने,
संक्रामक रोगों के सागर यहाँ मचलते।
सच मानो, विपल्व के बादल मड़राते हैं ,
अब भी जागो और सभी को यहाँ जगाओ।।6।।
17.विजय ध्वज
आओं-आओं मिलकर गाये, विजय ध्वजा ले हाथ में।
बलिदानों की स्वर्ण भूमि का, तिलक लगाये माथ में।।
उत्तर में फहराये तिरंगा, हिमगिरी ताज महान पै,
और बुलन्दी से गाता है, काश्मीर की शान पै,
वीर भूमि का गौरव छाया, अब भी राजस्थान पै,
और राजपूताना जानों, जौहर के स्थान पै,
जहॉं सजी थी वीर आरतीं बरमाला सी हाथ मै।।
बलिदानौं...........................................माथ मैं।।1।।
शस्य-श्यामलम लहराती है, भूमि यहीं बंगाल की,
सुखी बनाती, भूख मिटती पग-पग पै कंगाल की,
मातृभूमि की रक्षा करना, लिखा यहां हर पात में,
जलियों वाला दर्द भरे है, कोटि पचासी हाथ में,
वीर यहाँ कुर्बान हो गये, गोलीं खाते गात में।।
बलिदानों..........................................माथ में।।2।।
वीर शिवाजी की धरती पर, लहर-लहर लहराता है,
आजादी हित कुर्वानी के, गीत बुलन्दी गाता है,
भगत सिंह, आजाद, जवाहर, गाँधी जी का भ्राता है,
आजादी की करो सुरक्षा, सबको पाठ पढ़ाता है,
आगे को मनमस्त बढ़ो अब, लिऐ तिरंगा हाथ में।।
बलिदानों...............................................माथ में।।3।।
18.गीतः- गर......आपने सोचा नहिं!
गर....आपने सोचा नहीं! नव- जिन्दगी मुरझायेगी।
इस तरह भारत भुवन की, आनि ही मिट जायेगी।।
अंतस-हृदय के चक्षुओ को, खोलकर देखा कभी।
कितनी प्रगति? सोचो जरा, गुजरा शतक आधा अभी।
मद-मोह के पी-मादकों को, हो गये वे-सुध इधर।
भटके हुये हो मार्ग से, सोचा कभी?जाना किधर।।
युग-चिन्तनों के देश में, नव चेतना कब आयेगी।।1।।
सिद्धांत को रख ताक में, यहाँ न्याय की होंली जलीं।
अन्याय, उत्पीड़न, घोटालों की, प्रवल ऑंधी चलीं।।
आस्था, विश्वास के, ढहते दिखे, मंदिर यहाँ ।
धरती-दरकती दिख रहीं, सोचा कभी? जायें कहाँ।
क्रूर झॅंझा-नर्तनों की, बाढ़ कब मिट पायेगी।।2।।
वह मानवी चिंतन किधर, है दर्द जिसको देश का।
युग की विरासत के लिये, निज वेश का, परिवेश का।।
दर-व-दर चौड़ी हो रही, वे-मानियों की खॉंइयाँ।
देखो उधर! दिखने लगी, विप्लवी परिछाइयाँ।
होगा नवोदय कब यहाँ, ऊषा कबै मुस्कायेगी।।3।।