गजल SURENDRA ARORA द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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गजल

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" इतने दिनों तक नाराज थे न. "

" मतलब तुम जानती थी कि मेरा मूड ठीक नहीं है और तुम्हे लेकर मैं अपसेट हूँ. "

" शुरू में तो इल्म नहीं था पर जब इतने दिनों तक तुमने कोई बात नहीं की, फोन भी नहीं उठाया तो मैं सोचने को मजबूर हो गयी कि हमारे बीच जरूर कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था । मैं बहुत दिनों तक सोचती रही कि मैंने ऐसा क्या कह दिया है जिसने मेरे आदित्य को मुझसे नाराज कर दिया है । "

" बाई दी वे किस नतीजे पर पहुंची तुम ? "

" नतीजा ये आया कि मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा है और न ही ऐसा कुछ किया है कि साहब हमसे नाराज हो जाये और इस कदर रूठ जाएँ कि हमसे मिलना तो दूर, बात करना भी गवारा न करें । "

" मतलब इस खाकसार का दिमाग खराब है, आदित्य नाम का जीव जो अलका नाम की अद्वितीय शख्शियत के सामने खड़ा है, बिना वजह मुहँ फुलाने की बीमारी से ग्रस्त है । "

अलका ने अपने होठों को अपने सीधे हाथ की हथेली से ढका, चेहरे पर आयी मुस्कान को स्वछंद खिलखिलाहट में बदलने से रोकने की कोशिश करने लगी परन्तु जब असफलता हाथ लगी तो उसकी पुरजोर हँसे फूट पड़ी और इतनी देर तक हंसती रही कि उसके पेट में बल पड़ गए । खिलखिलाती अलका, आदित्य के लिए कौतुहल बन गयी । उन्मुक्त अलका को वह स्नेहिल भाव से देखता रहा ।जब हंसती हुई अलका निढाल होकर रूक गयी तो बोला, " तुम्हारी हसीं तुम्हारे काबू में आ गयी हो तो अब मुझे उस चुटकुले का अर्थ बता दो जिसे सुनकर तुम्हें इतनी जोर से हंसीं आयी कि तुम हँसते - हँसते निढाल हो गयी ? "

अलका ने, आदित्य के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में समेटा. पास पड़े बेंच की ओर खींच कर ले गयी और उसके साथ लगभग सट कर बैठते हुए बोली," हाँ सचमुच का पगला है मेरा आदी ! प्यार क्या इसे तो अच्छे से रूठना भी नहीं आता । कितनी जल्दी मान जाता है । उस दिन मना किया था न तुम्हें, यही गलती थी मेरी । आज मना नहीं करूंगी ।बोलो क्या चाहते हो ।जो चाहिए, ले लो मुझसे."

आदित्य अपलक देखता रहा अपनी अलका को बहुत देर तक ।

वह आंखों से चंचलता बिखेरते हुए मुस्कुराते चेहरे के साथ उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी । अंदर कहीं चाह भी रही थी कि उसका आदी उसे अपनी बाँहों में भर ले । पर यह क्या आदित्य की आखों से अश्रुधार बहने लगी ।उसका गला भरा हुआ था ।

कभी - कभी मन के तार झनझनाते हैं तब भी शब्द अंदर कहीं अटक जाते हैं ।

गहरे अंतस्तल से निकले शब्दों को समेट कर बोला, " अलका ! जब भी कुछ गलत करूँ या करने की कोशिश करूँ तो रोक देना मुझे । मेरी नाराजगी की परवाह मत करना. तुम मेरे लिए किसी फिसलने वाले झूले की ढाल नहीं हो जिस पर कोई आराम से फिसल जाये,तुम जिंदगी की सीढ़ियां हो मेरी ! उन पर चढ़कर सारे जहां की ख़ूबसूरती का दिग्दर्शन करना चाहता हुँ । "

अलका का मन हुआ, सारी लाज - शरम छोड़कर लिपट जाये अपने आदी से । पर इतना ही कह पायीं, " रोको इन आसुओं को. बड़े कीमती हैं ये. मर्दों की आँखों में आंसूं वैसे भी अच्छे नहीं लगते. ये ढलकते हैं तो शरीर में न जाने कहाँ - कहाँ पीड़ा होती है । बिलकुल नहीं फिसलने दूंगीं तुम्हें । " कहते - कहते खुद ही सिसकने लगी.

आदित्य ने जेब से रुमाल निकाला ही था कि अलका ने अपना पल्लू आगे बढ़ा दिया और फिर दोनों इतनी जोर से खिलखिला पड़े कि पास बैठे बुजुर्गों का जोड़ा भी हँसे बिना न रह सका।जब सबकी हंसी रुक गयी तो बुजुर्ग महिला ने कहा, " बच्चो ! तुम दोनों की यह उन्मुक्त हंसी किसी अनकही खूबसूरत गजल का मजबून है, इसे यूँ ही संभाल कर रखना ।"

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा, D - 184, Shyam Park Extension,

साहिबाबाद - 201005. ( U.P.)

Mo. 09911127277