सुरेश पाण्डे डबरा का काव्य संग्रह 1
सरस प्रीत
सुरेश पाण्डे सरस डबरा
सम्पादकीय
सुरेश पाण्डे सरस की कवितायें प्रेम की जमीन पर अंकुरित हुई हैं। कवि ने बड़ी ईमानदारी के साथ स्वीकार किया है।
पर भुला पाता नहीं हूँ ।
मेरे दिन क्या मेरी रातें
तेरा मुखड़ा तेरी बातें
गीत जो तुझ पर लिखे वो
गीत अब गाता नहीं हूँ
अपनी मधुरतम भावनाओं को छिन्न भिन्न देखकर कवि का हृदय कराह उठा। उसका भावुक मन पीड़ा से चीख उठा। वह उन पुरानी स्मृतियों को भुला नहीं पाया
आज अपने ही किये पर रो रहा है आदमी
बीज ईर्ष्या, द्वेष के क्यों वो रहा है आदमी
आज दानवता बढ़ी है स्वार्थ की लम्बी डगर पर
मनुजता का गला घुटता सो रहा है आदमी
डबरा नगर के प्रसिद्ध शिक्षक श्री रमाशंकर राय जी ने लिखा है, कविता बड़ी बनती है अनुभूति की गहराई से, संवेदना की व्यापकता से, दूसरों के हृदय में बैठ जाने की अपनी क्षमता से । कवि बड़ा होता है, शब्द के आकार में सत्य की आराधना से । पाण्डे जी के पास कवि की प्रतिभा हैं, पराजय के क्षणों में उन्होंने भाग्य के अस्तित्व को भी स्वीकार किया है।
कर्म, भाग्य अस्तित्व, दोनों ही तो मैंने स्वीकारे हैं।
किन्तु भाग्य अस्तित्व तभी स्वीकारा जब जब हम हारे हैं।।
इन दिनों पाण्डे जी अस्वस्थ चल रहे हैं, मैं अपने प्रभू से उनके स्वस्थ होने की कामना करता हूं तथा आशा करता हूं कि उनका यह काव्य संग्रह सहृदय पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करेगा
रामगोपाल भावुक
सम्पादक
सुरेश पाण्डे जी का व्यक्तित्व बहु आयामी
श्री सुरेश पाण्डे सरस की कृति है। इस संग्रह की अधिकतर रचनायें (कवितायें) जिस धरती पर अंकुरित हुई हैं। उसे हम प्रेम की धरती कह सकते हैं यों भी कविता का विशेष कर ‘गीत’ का जन्म प्रेम की जमीन पर ही होता है, उस प्रेम का आधार कोई भी हो सकता है, क्यों कि बिना प्रेम के, बिना गहरे लगाव के कविता नहीं लिखी जा सकती, और कुछ भले ही लिख लिया जाय वैसे आज कविता के नाम पर सैकड़ों हजारों पंक्तियां लिखी जा रही हैं। अखबारों में छप भी रही हैं, पर पढ़ी जाती हैं कि नहीं मैं नहीं जानता। पर न तो वे पंक्तियां कविता होती हैं न उनके लिखने वाले कवि ‘हां बाद में वे कागज धनिया और हल्दी की पुडि़या बांधने के काम जरूर आ जाते हैं। डबरा की साहित्यिक गोष्ठियों में चाहे वे गोष्ठियां ‘मनीषा’ की हो या नवोदित कलाकार मण्डल की हों, दो नये लड़के अक्सर हमारा ध्यान अपनी ओर खींचते थे। वे लड़के थे। ‘श्री सुरेश पाण्डे सरस’ और ‘श्री ओमप्रकाश तिवारी’
ओमप्रकाश तिवारी ने तो बड़ी तेजी के साथ ग्वालियर के कवि-सम्मेलनों में भी काफी सम्मान जनक स्थिति बना ली थी पर कुछ दिनों से वे दृश्य से ओझल हैं। हो सकता है किसी और गहरी साधना में लगे हो श्री सुरेश पाण्डे उन दिनों कर्मक्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे, और अपने आपको कर्मभूमि में स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। इस लिये उनकी साहित्य साधना में कुछ व्यवधान आ गया था, पर यह बड़ी प्रसन्नता की बात है उन्होंने पुन: इस क्षेत्र की ओर ध्यान दिया है।
तरूणाई की पहली स्वर्णम वेला में ही किसी कमनीय नारी मूर्ति ने कवि के हृदय पर अधिकार कर लिया ‘कवि उस आकर्षण को अपने अस्तित्व की सार्थकता समझ बैठा। अपने व्यक्तित्व का समूचा विश्वास भी उस प्रेम पात्र को सौंप बैठा।
कवि का समूचा व्यक्तित्व ही इस आकर्षण की आंच से पिघलने लगा और उसकी यह पिघलन ही उसकी संवेदनात्मक तरलता बनकर उसके गीतों में प्रारम्भ संचार करने लगी।
पर जैसा कि अक्सर होता हैं यथार्थ की चट्टान से टकरा कर उसकी कल्पना का स्वपिनल संसार खंडित हो गया। अपनी मधुरतम भावनाओं को इस तरह छिन्न भिन्न देखकर कवि का हृदय कराह उठा। उसका भावुक मन पीड़ा से चीख उठा। वह उन पुरानी स्मृतियों को भुला नहीं पाया, जो उसके अस्तित्व का अविभाज्य अंग बन चुकी थी। उन स्मृतियों का देश ही उनकी गहरी चुभन ही उसकी कविता में हैं।
कवि ने बड़ी ईमानदारी के साथ स्वीकार किया है।
मैं कवि, तुम मेरी कविता हो।
मैं दीपक, तुम तो सविता हो।।
तुम उदचायल, मैं अस्ताचल।
बाकी बातें बेकार यार,
सच्चा है मेरा प्यार यार।।
कवि इस अवसाद ग्रस्त मन: स्थिति को विश्लेषित करते हुए प्रसिद्ध दार्शनिक ‘कीर्केगार्द’ ने लिखा है, ‘कवि एक अवसाद ग्रस्त जीव होता है, उसका हृदय प्रच्छन्न वेदना से पिघलता रहता है। पर उसके अदभुत ओठ, हृदय से प्रवाहित होने वाली इस वेदना की तड़प को मधुर संगीत में परिणित कर देते हैं।‘’
सच्चाई तो यह है कि आज कविता में कविता ढूंढने वाले बहुत कम हैं। आज कविता में कोई द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद खोजता है तो कोई गांधीवाद तो कोई अस्तित्ववाद या और कोई मतवाद पर याद रखिये इन वादों से कोई कविता बड़ी नहीं होती। कविता बड़ी बनती है अनुभूति की गहराई से, संवेदना की व्यापकता, से दूसरों के हृदय में बैठजाने की अपनी क्षमता से कवि बड़ा होता है, अपनी प्रतिभा से सतत साहित्य साधना से शब्द के आकार में सत्य की आराधना से पाण्डे जी के पास कवि की प्रतिभा तो हैं आवश्यकता है उसके परिष्कार की और अधिक निखार की, ताकि उनकी सम्पादकीय साधना से एक बहुत बड़ा अंचल आलोकित हो उठे।
यद्यपि पाण्डे जी को कविता का मूल स्वर प्रेम का स्वर हैं वैयक्तित्व आकर्षण से उत्पन्न विरह वेदना का स्वर हैं। पर उन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर भी ध्यान दिया है। शोषण पर आधारित सामाजिक संरचना पर भी दृष्टिपात किया है।
कवि के ही शब्दों में
काम है जिनका, नाम न उनका।
नाम है जिनका, काम न उनका।।
प्रासादों को जन्मा जिनने रहने उन्हें न जगह मिली है।
ताज बना इनकी मेहनत से इनके पसीने इनके तन से।।
सजा मिली इनकी मेहनत को,
हाथों की अर्थी निकली है, सुबह जली है शाम जली है।।
इस संग्रह में कुछ राष्ट्रीय रचनायें भी हैं जैसे ‘महारानी लक्ष्मीबाई’ पर ‘ज्वाला की बेटी’ नाम से एक अच्छी रचना है। शहीदे आजम आजाद के प्रति पाण्डे जी के मन में बड़ी गहरी श्रद्धा रही है जहां तक मुझे याद है कि एक बार अग्रवाल धर्मशाला में आजाद की जयन्ती मनाने में उन्होंने अहम् भूमिका निभाई थी। आजाद के प्रति अपने मन के श्रद्धा सुमन उन्होंने कुछ तरह व्यक्त किया है।
जिसकी आंखों की दिव्य चमक को देख लोग भय खाते थे।
उस बीर ब्रहम्चारी सम्मुख हर मानी जन झुक जाते थे।।
पाण्डे जी ने सौन्दर्य की की जिस साकार प्रतिमा को अपनी काव्यांजली के सारे सुकुमार सुमन समर्पित कर दिये हैं। निश्चय ही वह कोई सामान्य नारी मूर्ति नहीं रही होगी’ पाण्डे जी अनुभूति की प्रमाणिकता असंदिग्ध है, उनके शब्दों की सच्चाई उनके रचनात्मक शब्दों को हमारे सामने खोल कर रख देती है।
हर बाजी जीता जीवन।
पर एक बाजी हार गया हूं।
सारा जीवन रूदन हो गया।
मेरा वह मन नहीं कि
हर प्रतिमा के आगे नमन हो गया।।
बड़े होने के कारण तथा अपने से भी बड़े लोगों से जो दृष्टि मैंने पाई है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि प्रेम हार जीत से बहुत ऊपर की चीज है, जहां जीतने वाला हार जाता है, और हाने वाला अक्सर जीत जाता है। प्रेम शरीर के धरातल पर उत्पन्न जरूर होता है। पर प्रेम की परिमित चेतना के जिस दिव्य धरातल पर होती है वहां शरीर बहुत पीछे छूट जाता है। पाण्डे पुरूषार्थी है। पर पराजय के क्षणों में उन्होंने भाग्य के अस्तित्व को भी स्वीकार किया है।
कर्म, भाग्य अस्तित्व, दोनों को ही तो मैंने स्वीकारे हैं।
किन्तु भाग्य अस्तित्व तभी स्वीकारा जब जब हम हारे हैं।।
इस संग्रह की अनेक रचनायें ऐसी हैं जो उद्धत की जा सकती हैं। पर मेरा उत्तरदायितव इस कृति को भूमिका लिखने तक ही सीमित हैं। इसकी समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं यो भी कृति की समीक्षा उसके प्रकाशित होने के बाद की जाती है।
निश्चय ही पाण्डे जी का व्यक्तित्व बहु आयामी है। वे एक अच्छे खिलाड़ी हैं। एक अच्छे बोलने वाले वक्ता भी हैं। अपने छात्र जीवन में छात्र संगठनों के साथ भी बड़ी गहराई के साथ जुड़े रहे हैं। वे एक व्यवहारिक और दुनियादार व्यक्ति भी हैं। पर मुझे लगता है कि उनकी सही जमीन कविता की जमीन है। व्यापक अर्थों में साहित्य की जमीन है। और हर पौधा अपनी माटी में ही पनपता है, महकता है और फलता फूलता है। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि पाण्डेजी अपनी जमीन पर लौट आये हैं। मेरी बहुत सी शुभकामनायें उनके साथ है ‘सब की सब तो नहीं क्यों कि कुछ औरों के लिये भी सुरक्षित रखनी पड़ेगी’।
मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूं तथा आशा करता हूं कि उनका यह काव्य संग्रह सहृदय पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करेगा।
रमाशंकर राय
मैं भुलाना चाहता हूँ
मैं भुलाना चाहता हूँ
पर भुला पाता नहीं हूँ ।
मेरे दिन क्या मेरी रातें
तेरा मुखड़ा तेरी बातें
गीत जो तुझ पर लिखे वो
गीत अब गाता नहीं हूँ
मैं भुलाना................
हर पृष्ठ पर तस्वीर तेरी
याद तेरी पीर मेरी
अश्रु बरसाती थी आंखें
अब में बरसाता नहीं हूँ
मैं भुलाना................
क्यों हुई मुलाकात मेरी
तुमसे क्यों हुई बात मेरी
पहले घबराता बहुत था
अब मैं घबराता नहीं हूँ
मैं भुलाना चाहता हूँ।
कांटों से प्यार करो तब जानें
फूलों से प्यार सभी करते
कांटों से प्यार करो तब जानें
सुख में तो साथ सभी रहते
दु:ख में भी साथ रहो तब जानें
कांटों स प्यार करो..............
सभी उजाले के साथी हैं
कौन तिभिर का बनता साथी
पूनम से प्यार सभी करते
अमावस से प्यार करो तब जानें
कांटों स प्यार करो..............
आंसू आते नहीं किसी को
ओस बिन्दु सबको भाते
अमीरों के साथ सभी रहते
निर्धन के साथ रहो तब जानें
कांटों स प्यार करो..............
सबको अच्छा लगता उदयाचल
अस्ताचल किसको भाता
भवनों से प्यार सभी करते
कुटियों से प्यार करो तब जानें
कांटों स प्यार करो..............
गीत प्रेयसी के सबको अच्छे लगते हैं
पर मानव क्रन्दन नहीं किसी को भाता
जीवन से प्यार सभी करते
मृत्यु से प्यार करो तब जानें
कांटों स प्यार करो..............
आदमी
आज अपने ही किये पर रो रहा है आदमी
बीज ईर्ष्या, द्वेष के क्यों वो रहा है आदमी
आज दानवता बढ़ी है स्वार्थ की लम्बी डगर पर
मनुजता का गला घुटता सो रहा है आदमी
मानवों के वेश में बस दानवों का राजय चलता
किन्तु स्वप्नों के जगत में खो रहा है आदमी
अभिनन्दन मंहगाई का बन्धनवार बांध करते वे
इधर बोझ जीवन बन बैठा ढो रहा है आदमी
एकता और प्रीत की माला तो तुमने तोड़ डाली
बिखरे मनके ढूंढकर अब पो रहा है आदमी
सत्ता की लड़ाई स्वार्थ अस्त्रों से लड़ी जाती रही है
इस वजह ही स्वार्थी अब हो रहा है आदमी