सुरेश पाण्‍डे सरस डबरा का काव्‍य संग्रह - 4 Ramgopal Bhavuk Gwaaliyar द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सुरेश पाण्‍डे सरस डबरा का काव्‍य संग्रह - 4

सुरेश पाण्‍डे सरस डबरा का काव्‍य संग्रह 4

सरस प्रीत

सुरेश पाण्‍डे सरस डबरा

सम्पादकीय

सुरेश पाण्‍डे सरस की कवितायें प्रेम की जमीन पर अंकुरित हुई हैं। कवि ने बड़ी ईमानदारी के साथ स्‍वीकार किया है।

पर भुला पाता नहीं हूँ ।

मेरे दिन क्‍या मेरी रातें

तेरा मुखड़ा तेरी बातें

गीत जो तुझ पर लिखे वो

गीत अब गाता नहीं हूँ

अपनी मधुरतम भावनाओं को छिन्‍न भिन्‍न देखकर कवि का हृदय कराह उठा। उसका भावुक मन पीड़ा से चीख उठा। वह उन पुरानी स्‍मृतियों को भुला नहीं पाया

आज अपने ही किये पर रो रहा है आदमी

बीज ईर्ष्‍या, द्वेष के क्‍यों वो रहा है आदमी

आज दानवता बढ़ी है स्‍वार्थ की लम्‍बी डगर पर

मनुजता का गला घुटता सो रहा है आदमी

डबरा नगर के प्रसिद्ध शिक्षक श्री रमाशंकर राय जी ने लिखा है, कविता बड़ी बनती है अनुभूति की गहराई से, संवेदना की व्‍यापकता से, दूसरों के हृदय में बैठ जाने की अपनी क्षमता से । कवि बड़ा होता है, शब्‍द के आकार में सत्‍य की आराधना से । पाण्‍डे जी के पास कवि की प्रतिभा हैं, पराजय के क्षणों में उन्‍होंने भाग्‍य के अस्तित्‍व को भी स्‍वीकार किया है।

कर्म, भाग्‍य अस्तित्‍व, दोनों ही तो मैंने स्‍वीकारे हैं।

किन्‍तु भाग्‍य अस्तित्‍व तभी स्‍वीकारा जब जब हम हारे हैं।।

इन दिनों पाण्‍डे जी अस्वस्थ चल रहे हैं, मैं अपने प्रभू से उनके स्वस्थ होने की कामना करता हूं तथा आशा करता हूं कि उनका यह काव्‍य संग्रह सहृदय पाठकों का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित करेगा

रामगोपाल भावुक

सम्पादक

शान्ति गूलर का फूल बनगई

शान्ति गूलर का फूल बन गयी

ज्ञान और संतोष जग से उठ चुका

खिन्‍नता, स्‍क्रान्ति मिटाने के लिये

जाम पीना एक भूल बन गयीं

शान्ति गूलर का............

चेतना चिन्‍तन से मानव दूर है

परिस्थितियों से अपनी खुद मजबूर है

मानसिक वेदना मिटाने के जिये

जाम पीना उसूल बन गई

शान्ति गूलर का...................

सुबह जली है, शाम जली है

सुबह जली है शाम जली है, अरमानों की चिता जली है

शलभ जला है शमां जली है, उपवन की हर कली जली है

सुबह जली है................

काम है जिनका नाम न उनका, नाम है जिनका काम न उनका

प्रसादों को जन्‍मा जिनने, रहने उन्‍हें न जगह मिली है

सुबह जली है................

ताज बना इनकी महनत से, इनके पसीने इनके तन से

सजा मिली इनको महनत की, हाथों की अर्थी निकली है

सुबह जली है................

फूल चढ़ाने आया ताज पर, आंखों में आंसू हैं आज

यहां नहीं दफना है प्‍यारे, यहां कलाकार की कला जली है

सुबह जली है................

ज्‍वाला की बेटी

ज्‍वाला की बेटी निकल पड़ी

कर में अपने तलवार लिये

महलों से मैदानों में आई

रण चण्‍डी अवतार लिये

भागीरथ से जन्‍मी मनु थी

आगे बन लक्ष्‍मी काम किया

घोड़े पर चढ़ना अस्‍त्र-शस्‍त्र

विद्या बचपन में सीख किया

फिर व्‍याह हुआ गंगाधर से

झांसी दुल्‍हन बन आई थी

लक्ष्‍मी के झांसी आने पर

घर-घर ने खुसी मनाई थी

झांसी की रानी बन आई

वह जन-जन का प्‍यार लिये

ज्‍वाला की बेटी..............

बीते नौ वर्ष विवाह के जब

रानी ने पुत्र को जन्‍म दिया

राजा प्रसन्‍नता से फूले

जनता ने खुशी का शोर किया

फिर बादल छाये विघ्‍नों के

इकलौता बेटा नहीं रहा

सौभाग्‍य सूर्य भी रानी का

रानी से विधि ने छीन लिया

जनता का हृदय बिदीर्ण हुआ

था राजमहल चित्‍कार लिये

ज्‍वाला की बेटी.................

झांसी को समझ अनाथ रहे

अंग्रेज सरफिरे हरषाये

पर भारत की नारी शक्ति को

शायद समझ नहीं पाये

झांसी की रानी, झांसी वीरों ने

नारा एक दिया

हम मां को कभी नहीं देंगे

हम इसी भूमि के हैं जाये

रणभूमि में सब कूंद पड़े

रानी की जय जयकार लिये

ज्‍वाला की बेटी................

फिर घमासान था युद्ध हुआ

अंग्रेजों ने जब ललकारा

झांसी के एक सिपाही ने

सौ-सौ अंग्रेजों को मारा

घोड़ों की टप टप टाप हुई

तलबारों की झनकार हुई

रण भूमि में उद्धत मरने

झांसी का हर मानव प्‍यारा

वह क्रुद्ध सिंहनी बढ़ती गयी

अंग्रेजों को ललकार लिये

ज्‍वाला की बेटी.................

जिस ओर घुसे झांसी रानी

उस ओर सफाई हो जाती

उस वीर सिंहनी के हाथों

दुश्‍मन सेना मारी जाती

कभी पूरब में दिखती रानी

कभी पश्चिम में दिखती रानी

कभी उत्‍तर में कभी दक्षिण में

चम-चम कृपान को चमकाती

रणभूमि में रानी अपने

दुश्‍मन की हा-हा कार लिये

ज्‍वाला की बेटी...................

गलत है

मानवीयता है जहां पर है मेरा बसेरा

है उजाला तो उजाला है अंधेरा तो अंधेरा

तुम अंधेरे को उजाला कहते हो साथी गलत है

कर्म गीता ने बताया, धर्म बेदों ने सिखाया

देशभक्ति से बड़ा कोई धर्म दुनियां में न आया

भाग्‍य की माला तुम जपते तो मेरे साथी गलत हैं

तुम अंधेरे को...................

कोशा से जब जीव उपजा है सभी जीवित तो जीवित

जीवितों की बात क्‍या निर्जीव तक से प्‍यार करना

मानवों में भेद करते यह मेरे साथी गलत है

तुम अंधेरे को...................

झूठ को ही सत्‍य का आकार देते जा रहे कवि

ये सताने मानवों को तुम बताते मानवीयता

इस तरह उड़ते रहे तो यह मेरे साथी गलत है

तुम अंधेरे को...................

जो दर्द मानव का न देखे कागजी घोड़े दौड़ाते

झूठ की राहें बनाते झूठ के वाहन चलाते

फिर इन्‍इें भगवान कहते तो मेरे साथी गलत है

तुम अंधेरे को...................

मैं जूझ रहा हूं इनसे मित्र निकलने

ना जाने कितने आकर्षण बल

खींच रहे हैं मुझको

मैं जूझ रहा हूं इनसे मित्र निकलने

यह आकर्षण बल शायद

मेरे बल से है ज्‍यादा

कदम बढ़ाता हूं में आगे

पर पीछे खिंच जाता

मैं कई लड़ाई हार चुका हूं लेकिन

मेरे मन ने है हार नहीं स्‍वीकारी

यह हार मुझे देती है मेरा नया रूप

हर कणी का रक्‍त की बन जाती है चिन्‍गारी

अब मेरी शक्ति तौल रहा है आकर्षण

पर शीघ्र टूटने वाले इसके सपने

मैं जूझ रहा हूं इनसे मित्र निकलने

अब आकर्षण भी मेरी शक्ति जान गया है

कुछ समय बाद मेरी जब होगी जीत

तबसच कहता हूं आकर्षण माया झुक जायेगी

और मेरे गीतों को गायेगी दुनिया की प्रीत

मैं फिर भी लड़ता रहता हूं इस आकर्षण से

मेरे कर लगने को लगे मचलने

मैं जूझ रहा हूं इनसे मित्र निकलने

अब चट्टानें मुझ से टकराकर चूर-चूर होंगी

कठिनाई अस्तित्‍व मेरे सन्‍मुख खो जायेगी

अब तो मेरे साथ चलेगा समय मित्र

प्रीत, वीरता, शक्ति सुमन की बगिया मुस्‍कायेगी

मैं पहुंच गया हूं मन्जिल के नजदीक बहुत

और आकर्षण के पग पीछे को चलने

मैं जूझ रहा हूं इनसे मित्र निकलने

गीत मैं किसको सुनाऊं

दर्द से भीगे हुए यह गीत मैं किसको सुनाऊं

हर गली चौराहे पर

हैवानियत के बसेरे

जो चला इन्‍सानियत पर

घेर लेते हैं अंधेरे

कुसुम उपवन के मेरे ही हाथ में

मुरझा रहे हैं देवता की चाह में

दानवों की भीड़ है

अब फूल मैं किस पर चढ़ाऊं

दर्द के भीगे.............

झांक कर देखा नहीं तुमने

झरोखे से कभी उस ओर

दर्द की वह डोर जिसका

ओर तो है पर नहीं है छोर

और तुम अट्टालिकाओं में पड़े

मदहोश हो पीकर सुरा

फिर बताओ मैं गरीबों की

व्‍यथा किसको सुनाऊं

दर्द के भीगे.................