सामाजिक विषमता हिन्दू धर्म शील के लिए अशोभनीय
डाक्टर भीम राव अम्बेकर को जानने के लिए आइये पहले उनकी कुछ मान्यताओं पर एक दृष्टिपात
करते हैं :
सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
1. “हम भारतीय हैं, सबसे पहले भी और अंत में भी।”
2. “केवल मतदाता होना पर्याप्त नहीं है। कानून का निर्माता होना आवश्यक है; अन्यथा जो कानून के निर्माता होंगे वे उन लोगों पर शासन करेंगे जो केवल निर्वाचक हैं।”
3 .“जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं करते हैं, तब तक कानून द्वारा जो भी स्वतंत्रता प्रदान की जाती है वह आपके लिए कोई लाभकारी नहीं है।”
4 .“जाति कोई कंटीले तार या ईंटों की दीवार जैसी भौतिक वस्तु नहीं है जो हिंदुओं को एकीकृत होने से रोकती है। जाति एक धारणा है यह तो मन की एक अवस्था है।”
5 .“कानून-व्यवस्था राजनीति के लिए दवा की तरह है। जब राजनीति बीमार हो जाती है तब इस दवा को लागू किया जाता है।”– डॉ. भीमराव अम्बेडकर
6 .“उदासीनता सबसे खराब तरह की बीमारी है जो लोगों को प्रभावित कर सकती है”
7 .“समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फिर भी इसे एक सरकारी नियम के रूप में स्वीकार करना चाहिए।”– डॉ. भीमराव अम्बेडकर
8 .“एक सुरक्षित सेना एक सुरक्षित सीमा से बेहतर है।”
9. “पानी की एक बूंद जो समुद्र में शामिल होते ही अपनी पहचान खो देती है, लेकिन व्यक्ति को समाज में अपना अस्तित्व नहीं खोना चाहिए जिसमें वह रहता है। मनुष्य का जीवन स्वतंत्र है। उनका जन्म समाज के विकास के लिए नहीं, बल्कि स्वयं के विकास के लिए हुआ है।”
10. “भारतीय आज दो अलग-अलग विचारधाराओं द्वारा शासित हैं। संविधान की प्रस्तावना में उनका राजनीतिक आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के जीवन की पुष्टि करता है। उनके धर्म में सन्निहित सामाजिक आदर्श उन्हें नकारते हैं।”
11. “मनुष्य नश्वर है और विचार भी। एक विचार को प्रसार की आवश्यकता होती है जितना एक पौधे को पानी की आवश्यकता होती है। नहीं तो दोनों मुरझाएंगे और मरेंगे।”
12 .“राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं चल सकता जब तक कि सामाजिक लोकतंत्र का आधार नहीं होता। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका मतलब जीवन का एक तरीका है जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को पहचानता है।”
13 .“यदि हम एक एकीकृत आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं तो सभी धर्मों के धर्मग्रंथों की संप्रभुता समाप्त होनी चाहिए।”
14. “मैं एक समुदाय की प्रगति को उस डिग्री से मापता हूं जो महिलाओं ने हासिल की है।”
15. “एक आदर्श समाज गतिशील होना चाहिए, एक हिस्से से दूसरे हिस्सों में होने वाले बदलाव को व्यक्त करने के लिए चैनलों से भरा होना चाहिए। एक आदर्श समाज में, सचेत रूप से संवाद और साझा किए जाने वाले कई हित होने चाहिए।”
16 .“कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें केवल अस्पृश्यता के उन्मूलन से संतुष्ट होना चाहिए, केवल जाति प्रथा को छोड़कर। जाति प्रथा में निहित असमानताओं को खत्म करने की कोशिश किए बिना छुआछूत के उन्मूलन का उद्देश्य उपयुक्त नहीं है।”
इन सभी विचारों से गुजरते हुए, डाक्टर भीम राव जी को लेकर जो स्पष्ट चित्र हमारे मस्तिष्क में उभरता है, वह यह कि वे बड़ी गहराई से देश और समाज की मूल भूत प्रवृतिओं पर निरंतर चिंतन ही नहीं करते थे, उन प्रवृतिओं से उत्पन्न हुई समस्याओं के लिए व्यवहारिक उपाय भी सुझाते थे। उनकी प्रबल धारणा थी कि भारतवर्ष हमारा देश है, हम भारत वर्ष के नागरिक हैं और सम्मान के साथ इसमें रहना और इसे सम्मान देना हमारी प्रवृति का अंतिम मूल्य होना चाहिए। इस रूप में वे एक समर्पित राष्ट्रवादी थे। उनकी मानवीयता, भारत राष्ट्र की उच्च प्रतिब्धता से ही होकर निकलती थी। उनका मानना था कि हर भारतीय को राजनितिक रूप से जागरूक होना चाहिए जिससे केवल कर्मठ और ईमानदार नेतृत्व देश को निरंतर मिलता रहे।
उनका मानना था कि भारतीय समाज को जाति प्रथा से मुक्त होना चाहिए। इस कुप्रवृति से मुक्त हुए बिना इस समाज में उपस्थित सबसे बड़े कोढ़, छुआछूत से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। जाति प्रथा और उससे निकली छुआछूत ने देश के विभिन्न वर्गों में समरसता स्थापित करने के मार्ग और मंशा में अनेक अवरोध खड़े किये हैं। उनका यह निष्कर्ष कितने गहन चिंतन और भारतीय समाज की सदियों से चली आ रही बुराइओं के कितने गहरे एवं विस्तृत अध्ययन से निकला था और उसमें कितनी सत्यता थी, यह आज हम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। जाति प्रथा ने बहुत से राष्ट्र भक्त और समाज के उत्थान के लिए समर्पित व्यक्तिओं को जनप्रतिनिधि नहीं बनने दिया। इसके विपरीत जातिओं का उपयोग करके बहुत से अयोग्य, यहां तक कि भ्रष्ट और अपराधी प्रवृति के लोग भी जनप्रतिनिधि बनने में सफल हो गए। ऐसे स्वार्थी लोगों की सफलता ने, देश के वास्तविक, उस समाज की प्रगति, जो साधनहीन होने के साथ, मेधावी और कर्मठ भी था, को आगे आकर देश की सेवा से वंचित किया । जब तक प्रगति का पहिया अपने हर छोर को स्पर्श नहीं करता, उसका आगे बढ़ना सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। डाक्टर भीम राव आंबेडकर, भारतीय समाज से हर उस आडम्बर या अवरोध को हटाने के प्रबल अधिवक्ता थे, जो उसे किसी भी रूप में बांटता हो। उनका मानना था कि शरीर का कोई भी अंग कमजोर रह जाय तो पूरा शरीर अपनी पूरी छमता से कार्य नहीं कर सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि शरीर के उस कमजोर भाग को तब तक उचित चिकित्सा मिले, जब तक वह पूरी तरह से ठीक न हो जाय। ठीक हो जाने के बाद ही वह शरीर के विकास में अपना आवश्यक योगदान दे सकेगा।यदि राष्ट्र को हम एक समन्वित कार्य प्रणाली वाला शरीर मान लें, तो उसकी संरंचना करने वाली पूरी जनसँख्या उसके विभिन्न अंग हैं। इन सभी का सामान रूप से स्वस्थ रहना अर्थात आर्थिक और मानसिक रूप से समर्थ रहना आवश्यक है, तभी हमारा देश एक खुशहाल और बलवान देश बन सकेगा। इसके लिए समरस और समन्वित कार्यनीति ही नहीं, दृष्टिकोण भी आवश्यक है।
भारतीय समाज में फैली जातिप्रथा और उससे निकली छुआछूत की प्रवृति, उन्हें बहुत बुरी लगती थी। वे इससे देश को निजात दिलाना चाहते थे। कर्मकांडों से घिरे स्वार्थी और बलशाली लोग, उनके इस भगीरथ प्रयास का रोड़ा थे क्योंकि इससे उनकी व्यक्तिगत हानि थी। इन बातों ने उन्हें व्यथित भी खूब कियाऔर वे बहुत खिन्न भी हुए। उनकी व्यथा इस बिंदु तक पहुंची कि उन्होंने उस धार्मिक व्यवस्था से ही स्वयं को मुक्त करने का निर्णय ले लिया, जो जाति और वर्ण - व्यवस्था को अपने निजी हितों की कुलालसा में बनाये रखना चाहती थी। उनकी व्यथा और खिन्नता को इस्लामिक समूहों ने भुनाने की हर सम्भव कोशिश की। परन्तु उनके राष्ट्रप्रेमी चिंतक मस्तिष्क को इस बात का पूरा आभास और विश्वास था कि भारतवर्ष में लोकतंत्र की मजबूती और सामाजिकता से भरपूर न्यायिक व्यवस्था का विकास और स्थायित्व, किसी ऐसी मान्यता के नीचे नहीं हो सकता, जिसकी जड़ें एवं आस्था विदेशियों द्वारा संचालित होती हों। उन्हें इस्लामिक समूहों की तरफ से अनेक प्रलोभन भी दिए गए।जिसे उन्होंने सिरे से ठुकरा दिया। वे हिन्दू समाज को समरस देखना चाहते थे। जीवन के अपने इसी उद्देश्य को पाने के लिए वे निरंतर संघर्ष करते रहे।
उनके जीवन का यह पक्ष हमारे मन में उनके प्रति श्रद्धा जगाता है। निश्चित रूप से हमें उनके चिंतन के अनुरूप, अपने समाज की संरचना करनी होगी । समरस हुए बिना हम, ऊंच - नीच के भाव से मुक्त नहीं हो सकते और जब तक ऊंच - नीच का भाव हमारे मनो से हट नहीं जाता तब तक स्थायी न्याय और प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
भारतीय लोकजीवन, राजनीति या अर्थशास्त्र के साथ राष्ट्र और उसके लोगों की समृद्धि व् समरसता का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था, जिस पर बाबा साहब ने गहन चिंतन न किया हो और देश को हर स्तर पर समृद्ध देखने की उनकी प्रतिबद्धता न दिखाई देती हो। भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना, अर्थशास्त्र में उनके अध्ययन का प्रतिफल थी। हिन्दू कोड बिल में महिलाओं को पैत्रिक सम्पति में अधिकार और समानता के रूप में स्थान दिलवाना, उनके ही सद्प्रयास से सम्भव हुआ। मजदूरों के हितों में श्रम कानून लागू करने की पहल भी उन्होंने ही की। नदी घाटी परियोजनाओं के प्रति प्रतिबद्धता में भी बाबा साहब ने ही अग्रणी भूमिका निभाई। देश को सामाजिक और आर्थिक रूप से समृद्ध करना उनके जीवन दर्शन की प्राथमिकताएं थीं।
बाबा साहब मानते थे कि राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमाओं के अंदर स्थित पर्वतों, नदिओं या फिर धरती के किसी भूभाग से नहीं बनता, बल्कि राष्ट्र एक आध्यात्मिक प्रबंधन का भी नाम है जिसके लिए वहां के निवासिओं की चेतना और राष्ट्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी आवश्यक है। वे कहते थे कि राष्ट्र एक पवित्र विचार है जिससे अनेक एहतिहासिक घटनाक्रम और संयोग जुड़े होते हैं। ये संयोग राष्ट्र के लिए आबंधों का कार्य करते हैं। एक राष्ट्र के नागरिकों के अतीत और वर्तमान साझे होते हैं और उनका भविष्य भी साझा ही रहेगा।
25 नवंबर, 1949 को उन्होंने कहा था कि हम एक स्वतंत्र व्यवस्था तो बन चुके हैं, अब हमें एक राष्ट्र भी बनना है जिसमें सबका भविष्य और सोच भी साझा हो। यह कोई सरल कार्य नहीं है क्योंकि हमारे देश में आर्थिक और सामाजिक असमानता, बहुत अधिक है, साथ ही परस्पर व्यवहार में कड़वाहट भी है। इन सब को हराकर हमें एक राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व विकसित करना है। इसके लिए जरुरी है कि हम समानता के आधार पर जाति विहीन समाज कि स्थापना करें। इसके लिए उन्होंने स्वतंत्रता के साथ समानता को भी संविधान में शामिल करवाया। इस प्रकार बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का सम्पूर्ण चिंतन व् कार्य पद्धति एक समरस भारतीय समाज स्थापित करने को समर्पित रही। हमें उन जैसे महापुरुषों के सपनो का देश भारत वर्ष को बनाने के लिए प्रतिबद्ध होना है।राष्ट्र के प्रति यही हमारा कर्तव्य है।
डाक्टर भीमराव अम्बेदकर जी के राष्ट्र के प्रति अत्यधिक योगदान को महत्व देते हुए देश के यशस्वी प्रधान मंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाचपेयी जी की प्रेरणा से दिल्ली में " अम्बेदकर इंटरनेशनल सेंटर " का निर्माण करवाया गया जिसका उद्घाटन स्वयं देश के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 14 अप्रेल, 2020 को किया। यहाँ उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के विभिन आयामों का दिग्दर्शन किया जा सकता है।
प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के अनुसार, " बाबा साहेब हमेशा कमजोर, शोषित, और वंचित वर्ग के उत्थान के लिए समर्पित रहे। उन्होंने मानवता की सेवा करने, समस्त मानव जाति को न्याय, समानता, अवसर, गरिमा और आपसी समरसता से भरा भविष्य बनाने के लिए हम सबको प्रेरित किया। "
बाबा साहब की जीवन पर्यन्त यही इच्छा रही।
सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
डी - 184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद - 201005 ( ऊ प्र )
मो 09911127277