भारत में वेलेंटाइन डे का उत्सव इकोनोमिक लिब्रेलाईजेशन यानी आर्थिक उदारीकरण के बाद लोकप्रिय होने लगा। हमारे जमाने में यह सब परंपराएं नहीं थी। तब तो टीचर्स डे, क्लीनलीनेस डे, एनुअल फंक्शन डे आदि हुआ करते थे और जीवन सादगी से भरपूर होते थे। ऐसा नहीं है कि तब प्यार का प्रचलन नहीं था। बस, उसका ऐसा पश्चिमीकरण नहीं था। यह सही है, प्यार अपने आप में एक ख़ूबसूरत एहसास है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति, नाटकीय अंदाज़ में साल में एक विशेष दिन, यह समझ से बाहर है। और प्रेम की परिभाषा सिर्फ युवक और युवती के बीच का आकर्षण नहीं, हम स्नेह अपने मां-बाप, भाई-बहन, बच्चों-मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों से भी करते हैं। फिर ऐसा क्या है, जो आजकल की बहुत सी युवा पीढ़ी को, विदेशी परंपराओं की ओर आकर्षित करता है। ठीक इसके विपरीत बहुत से विदेशी, हमारे हिन्दू संस्कारों का महत्व समझ रहे हैं और उसको अपना रहे हैं।
वैलेंटाइन डे को, मैं नए ज़माने का पश्चिमी प्रचलन ही कहूंगी। दोष शायद हमारा है, जो हम अपने बच्चों को समय रहते, भारतीय संस्कार ठीक से सीखा नहीं पा रहे हैं। आजकल की पीढ़ी का यह सोचना कि समस्त पुरानी पीढ़ी, प्रेम विवाह या अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध है, यह सही नहींं है। हां, ग्रामीण इलाकों में शायद अभी जागरूकता कम है। पर अगर हम शहरों की बात करें, तो आजकल के माता-पिता, अब नए जमाने के साथ, प्राचीन संस्कारों का सामंजस्य बिठाकर, जीवन में आगे बढ़ रहे हैं।
पहले जमाने में बच्चों को, अपना जीवनसाथी चुनने की उतनी स्वतंत्रता नहीं थी, जितनी आजकल के जमाने में है। मुझे याद है, हमारे समय में हमारी पीढ़ी के कुछ युवा, इतने भटक जाते थे कि बिल्कुल ही बेमेल जीवनसाथी का चुनाव कर लेते थे और परिवार वालों के विरोध के चलते, भाग कर शादी करते थे। वह भी बहुत गलत था। परिणामस्वरूप मां-बाप ऐसे बेमेल संबंधों के डर के कारण, मजबूरी में बच्चों पर बंदिशें लगाते थे। यह सही भी है क्योंकि कच्ची उम्र का यौन आकर्षण, जो ना कराए सो कम है। फ़िल्में और टीवी देख-देख कर बच्चे और दिमाग खराब कर लेते हैं।
कभी-कभी लगता है, बड़े-बड़े प्राइवेट और इंटरनेशनल स्कूलों की शिक्षा, बच्चों को ज़्यादा भटकना सिखा रही है। बहुत से बच्चे ऐसे उलटे-सीधे मेल-मिलाप स्कूल के स्तर पर ही प्रारंभ कर देते हैं। मां-बाप भी जिंदगी में व्यस्तताओं के चलते, कभी अनजाने में या फिर कभी जानबूझ कर, बच्चों में आए इन सब बदलावों को अनदेखा करते रहते हैं। यह उचित नहीं है। बच्चों के व्यवहार में कोई भी परिवर्तन आए, तो हमें उसके प्रति सजग रहना चाहिए। अगर कोई बात घरवालों या समाज से छिपाई जा रही है, तो वह ग़लत है। बच्चों को भी खुलकर अपना पक्ष, मां-बाप के समक्ष रखना चाहिए। क्योंकि मूल रूप से हमारा परिवार ही, हमारे जीवन की सबसे सशक्त समर्थन प्रणाली यानी स्ट्रांग सपोर्ट सिस्टम होता है, जिसके सहारे हम जीवन में आगे बढ़ते हैं।
आजकल की बहुत सी युवा पीढ़ी, बहुत समझदार भी है। उन्हें अपने सही गलत की पहचान है। हमारे जमाने वाले बेमेल जोड़, अब बहुत कम ही नज़र आते हैं। अगर अच्छे संस्कार, बच्चों का सही मार्गदर्शन करें, तो बच्चे स्वयं से भी बहुत उपयुक्त जीवनसाथी का चुनाव कर लेते हैं। अंतर्जातीय विवाह को लेकर, ज़्यादातर शहरी इलाकों में मां-बाप का रवैया, अब काफी नरम रहता है। मैंने तो अधिकांश माता-पिता को यह कहते ही सुना है कि आजकल के बच्चे आपस में निभा लें, बस हमें और कुछ नहीं चाहिए। हां, यह सही है समलैंगिकता या दूसरे धर्म में विवाह करने की स्वीकृति देने में मां-बाप की सोच, बच्चों से अलग रहती है और मैं इस से पूरी तरह सहमत भी हूं। क्योंकि आमतौर पर ऐसा देखने में आता है, आगे जीवन में चलकर, बच्चों को आपस में और परिवार वालों से तालमेल बिठाने में बहुत समस्या आती है। यही कारण है कि आज समाज में तलाक की समस्या बहुत ज़्यादा बढ़ती जा रही है। जीवनसाथी के चुनाव को लेकर माता-पिता और बच्चों के मतभेद के कारण, कुछ लोग ऑनर किलिंग तक का रास्ता अपना लेते हैं, जिसका मैं कड़े शब्दों में विरोध करती हूं और यह किसी भी सभ्य समाज में माननीय नहीं हो सकती।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, लगभग हर साल, 14 फरवरी को भारत के कईं शहरों में, कानून और व्यवस्था की समस्याएं होती हैं। वैलेंटाइन डे मनाने के नाम पर कितनी जगह लड़कियों से छेड़छाड़ और गुंडागर्दी होती है, यह सच में चिंता का विषय है। जो लोग इसे एक पश्चिमी प्रभाव मानते हैं, उन समूहों द्वारा इस समारोह के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया जाता है। जिसका मैं पुरजोर समर्थन करती हूं। भटकी हुई युवा पीढ़ी को, विदेशी बेढंगी परंपराओं को छोड़कर, भारतीय संस्कारों से अभी अवगत नहीं कराया, तो शायद बहुत देर हो जाए। आपके क्या विचार हैं, कमेंट सेक्शन में कमेंट करके जरुर बताइएगा।