फिल्मों में भद्दी गालियों का महत्त्व Suvidha Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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फिल्मों में भद्दी गालियों का महत्त्व

आजकल की नई पीढ़ी फ़िल्मों से बहुत प्रेरित रहती है और कहने वाले ये भी कहते हैं कि फिल्में किसी समाज का दर्पण होती हैं। समाज में क्या चल रहा है, ज़्यादातर वही फिल्मों में दिखाया जाता है। वैसे तो यह बहस बहुत पुरानी है कि फिल्में समाज को दर्शाती हैं या समाज फिल्मों से प्रेरणा लेता है। हिंदी फिल्म जगत में अनेक प्रकार के मुद्दों पर फिल्में बनती हैं जैसे एक्शन, वास्तविक घटनाओं पर आधारित, महापुरुषों की जीवनियों पर, बच्चों पर, अपराध जगत पर, कॉमेडी, पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर, पारिवारिक, मसाला, मनोवैज्ञानिक, प्रेम, खेल, जासूसी, थ्रीलर आदि आदि। हमारे यहां इतने विषय हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं। और इतनी श्रेणियां हैं, शायद हम गिनते-गिनते थक जाएं।
हालांकि, मैं फिल्में बहुत ही कम देखती हूं। पर अभी लॉकडाउन में, मुझे समय मिला कुछ फिल्में देखने का। चाहे वह कोई भी माध्यम रहा हो जैसे नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजॉन प्राइम आदि। मैं आज यहां बात माध्यम की नहीं कर रही हूं बल्कि सिर्फ फिल्मों की करना चाहती हूं। हमारे यहां कुछ बहुत अच्छी फिल्में भी बनती हैं। अच्छी फिल्मों से मेरा अभिप्राय है साफ-सुथरी और स्पष्ट संदेश देने वाली। जिसका स्तर सच में... बहुत ऊंचा होता है।
पर अभी मेरी चिंता का विषय वह फ़िल्में हैं जिनमें भर-भर कर अश्लीलता, भद्दी-भद्दी गालियां और दोहरे संवाद वाले वाक्यों की भरमार रहती है। ऐसी फिल्में चाहे किसी भी विषय पर हों, उसमें हर वृतांत को तोड़ मरोड़ कर, अश्लीलता की सारी सीमाएं पार करके, असंख्य गालियों के साथ दिखाना क्या उचित है? 'यह तो कहानी की मांग है', के नाम पर आप दर्शकों को कुछ भी दिखाए जा रहे हैं। क्या आपको ज़रा सा भी एहसास है कि तथाकथित 'कहानी की मांग' के नाम पर, आने वाली पीढ़ी के सामने, आप कैसी अश्लील सोच और कुंठित मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। क्या आपने कभी यह सोचा है कि आप भावी पीढ़ी को किस दिशा में ले जा रहे हैं?
पहले तो ज्यादातर लिखने वाले ही 'यही चलता है' के नाम पर, पता नहीं, क्या-क्या अंट-शंट, घटिया से घटिया संवाद लिखते जा रहे हैं। सिर्फ आर्थिक लाभ की खातिर,भारतीय समाज के समक्ष, आप अपनी इतनी छिछोरी और घिनौनी मानसिकता को प्रदर्शन कर रहे हैं कि आपको इसका तनिक भी अहसास नहीं है। आपके पास फिल्मों का एक सशक्त माध्यम उपलब्ध है, तो आप कुछ भी दिखाने का अधिकार कैसे रखते हैं? आपकी कोई नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है कि नहीं? आप सभ्यता की सारी सीमाएं लांघ रहे हैं। यह अधिकार आपको किसने दिया? आप जो भी अश्लीलता और नंगापन फिल्मों में दिखाते हैं, उसे अपने परिवार के साथ, एक ही छत के नीचे बैठकर देखिए और एहसास करिए कि समाज के लिए क्या सही है और क्या गलत? तब आपको पता चलेगा कि अपनी जेब भरने के लिए आप समाज में कितना कूड़ा बेच रहे हैं।
क्या फिल्में पहले नहीं बनती थी? वो इतनी साफ-सुथरी कैसे बनती थीं? पुरानी तकनीक को छोड़कर, नयी तकनीक अपनाने को कौन बुरा कह रहा है? लेकिन इस नई तकनीक की आड़ में, आप जो निर्लज्जता परोस रहे हैं और अश्लीलता का नंगा नाच दिखा रहे हैं, माफ कीजिएगा... आने वाली पीढ़ियों की मानसिकता का तो आप बिल्कुल भट्ठा बिठा कर रहेंगे। उन्हें तो वैसे ही आधुनिकता की चमक में, अपने नैतिक मूल्यों और संस्कारों को सिखाना मुश्किल ही नहीं, अत्यंत कठिन हो रहा है। ऊपर से रही सही कसर, आप की फिल्मों और वेब सीरीज़ की अश्लीलता और भद्दी-भद्दी गालियों ने पूरी कर रखी है।
आजकल अचानक से नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजॉन प्राइम आदि जैसे सभी माध्यमों पर, वेब सीरीज की बाढ़ सी आ गई है क्योंकि लॉकडाउन के समय में सब धारावाहिक बनने बंद थे और फिल्मों का रिलीज़ भी बंद था। मुझे भी लॉकडाउन में इन वेब सीरीज़ को देखने का अवसर मिला। क्योंकि मेरा भी, कुछ समय, मनोरंजन पर बिताने का मन किया। लॉकडाउन से पहले कुछ हल्के-फुल्के मनोरंजक धारावाहिक देख कर अच्छा लगता था। पर जैसे ही मैंने वेब सीरीज देखना शुरू किया... मुझे तो जैसे चार सौ चालीस वोल्ट का झटका लगा। लगभग हर पांच पंक्ति के बाद गाली। किसी-किसी में तो दूसरी-तीसरी पंक्ति के बाद ही... फिर चाहे वह कोई भी किरदार क्यों ना हो? चाहे नायक हो, नायिका हो या अन्य, हर दृश्य में गालियां ही गालियां, वह भी इतनी गंदी-गंदी की बस पूछिए मत। ऐसी गालियां सुन कर, किसी का भी दिमाग घूम जाए और मुंह का स्वाद भी इतना कसैला हो जाए कि फिल्म देखने की इच्छा ही खत्म हो जाए।
पहले जमाने में 'साला' भी एक बहुत बड़ी गाली समझी जाती थी। जो हम अभी तक न ही बोल पाते और न ही समझ पाते हैं और आप इन फिल्मों और वेब सीरीज़ में इतनी बड़ी-बड़ी बेहूदा गालियां, इतनी शान से बोल रहे हैं, जैसे आप बहुत ही सुनहरे शब्दों में किसी की तारीफ कर रहे हों। अच्छा, मैं आपको एक चुनौती देना चाहती हूं, आप ऐसी गालियों का 'प्रयोग' अपने घर में अपने माता-पिता, अपने जीवन-साथी, भाई-बहन या बच्चों आदि, किसी के भी साथ दिन, महीने, साल करके देखिए। अजी, सालभर तो छोड़िए, आप एक महीना भी करके दिखाइए। फिर देखिए,आपके बच्चे, कल को वही गालियां, आम बोल-चाल की भाषा समझ कर, आप से ना बोलने लगे तो कहिएगा। वही गलियां जो चलचित्रों के माध्यम से आप हमें परोस रहे हैं, आप अपने मां-बाप की नज़रों में नज़र डालकर एक बार बोलकर तो दिखाइए। फिर... पूरे समाज को ऐसी गालियां बोलने के लिए प्रेरित करना, कहां तक उपयुक्त है?
मित्रों, आपको नहीं लगता, यह अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। जिसको संबोधित करने की बहुत ज़्यादा आवश्यकता है। मेरा प्रश्न ऐसी फ़िल्में और वेब सीरीज़ बनाने वालों से है- आपके पास एक अत्यंत प्रभावशाली माध्यम है तो आप कुछ भी मनमानी करेंगे? क्या आपने कभी देश के, ज़्यादातर गणमान्य व्यक्तियों को उनके किसी भाषण में असभ्य भाषा का प्रयोग करते सुना है? कभी किसी न्यूज़ रीडर को न्यूज़ में गालियां देते सुना है?
अब जरा यह भी कल्पना कीजिए, आपका बच्चा विद्यालय में पढ़ने जा रहा है और उसकी सभी अध्यापिकाएं कक्षा में यही अशिष्ट गालियों वाली भाषा प्रयोग करें, तो आपके प्रिय नौनिहाल, इस देश के भावी कर्णधार या यूं कहिए कि आने वाली पीढ़ी, वही असभ्य भाषा को, लोकप्रिय भाषा समझ कर, आपके साथ बोलने लगे तो आपको कैसा लगेगा? मेरी फ़िल्म और वेब सीरीज़ बनाने वालों से हाथ जोड़कर विनती है कि आप इस प्रचलित माध्यम का दुरुपयोग करने की बजाय, सदुपयोग कीजिए, जिससे समाज और देश को सही दिशा मिले। ऐसी बहुत सी वेब सीरीज और फिल्में है जिसमें अगर अश्लीलता और गालियां निकाल दीं जाएं, तो वह बहुत उत्तम श्रेणी की हो जाएंगी।
साथियों, मेरा आप सब से भी करबद्ध अनुरोध है कि ऐसे सभी फ़िल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का बहिष्कार कीजिए, जो इतनी निर्लज्जता से यह सब अश्लीलता समाज में दिखा रहे हैं। कहीं न कहीं दोषी हम भी हैं, हम देख रहे हैं, तभी तो वह दिखा रहे हैं। अगर हम उनकी ऐसी आपत्तिजनक, वाहियात वेब सीरीज़ और फ़िल्में देखना बंद कर देंगे, तो उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह अपनी वेब सीरीज और फ़िल्मों में ऐसी सामाग्री डालना ही बंद कर देंगे। यही सब के हित में होगा। एनसीईआरटी की किताबों में भी अगर कोई लेखक किसी लेख या कहानी में, विषय के अनुरूप किसी अपशब्द का प्रयोग करता है तो उसके साथ स्टार लगा कर यह चेतावनी दी जाती है कि यह संवैधानिक रूप से मान्य नहीं है और सर्वथा वर्जित है
देश के हर नागरिक का, समाज और देश को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। समय की नितांत आवश्यकता है कि हम अपने बच्चों को समझाएं कि गालियां देना निंदनीय है और इनके इस्तेमाल से किसी भी व्यक्ति विशेष का भला नहीं हो सकता। परिस्थिति चाहे कैसी हो, आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग निषिद्ध है और यह कभी भी भारतीय परंपरा और सभ्यता का प्रतीक नहीं हो सकता है।
संत कबीर दास जी ने कितना सही कहा है...
"आवत गारी एक है ,उलटत होय अनेक।
कह कबीर नहीं उलटिए, वही एक की एक।।"
प्रस्तुत साखी में कबीर दास जी कहते हैं किसी के अपशब्दों का जवाब कभी भी अपशब्दों में मत दो। इससे वो अपशब्द बढ़ने की बजाय घटते-घटते खत्म हो जाएंगे।
तो मित्रों, कबीर दास जी ने भी गाली के महत्व को उजागर करते हुए कहा है कि गाली देने वाले के लिए, यह उसकी धरोहर है। उसे अपने पास संभाल के रखना चाहिए, चाहे अपने परिवार, अपनी पीढ़ी को स्थानांतरित कीजिए। पर उसे और किसी को बांटने की आवश्यकता नहीं है। समाज को तो अपनी इस धरोहर से दूर ही रखें, उसमें ही सबका कल्याण है...