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मां का पटरा

8"/10" की छोटी सी रसोई में मां की सारी दुनिया सिमटी हुई थी। एक तरफ की बड़ी अलमारी में निचले फट्टे पर छोटे-बड़े दालों और मसालों के ढ़ेर सारे डिब्बे थे और उसके ऊपर वाले फट्टे पर ऐसा सामान था, जो रोजमर्रा में कम ही काम आता था। ज्यादातर स्टोरेज़ का सामान था। सामने चूल्हे के ऊपर छोटी छोटी अलमारियों में अलग-अलग किस्म का सामान था। जैसे पहली अलमारी में मां का हरा प्लास्टिक का नमक-मिर्चदान। बहुत पुराना हो गया था। एक जगह से गर्म तवा लगने से थोड़ा सा प्लास्टिक भी चिपक गया था। कितने साल मां को कहती रही कि मां अच्छा नहीं लगता, इसे बदल दो। पर शायद मां के दिल के किसी कोने में वह बैठ गया था। मां का लाडला था, वह पूरी रसोई में। चाहते हुए भी मां कभी उसको बदल नहीं पाईं। मैंने भी शायद उसको नजरबट्टू समझकर स्वीकार कर लिया था।

दूसरी छोटी अलमारी में नीचे घी के डब्बे और ऊपर के खाने में मां साफे रखती थीं। तीसरी अलमारी में मिक्सी के बाउल और तरह-तरह के शरबत की बोतलें रहती थीं। चौथी अलमारी में चीनी-पत्ती, कॉफी के डिब्बे सजे रहते थे। पांचवी अलमारी में मां के सारे पतीले छोटे से बड़े एक दूसरे में ऐसे समा जाते थे, जैसे बच्चे मां बाप की गोद में चले जाते हैं। एक के अंदर एक करके मां दस-बारह पतीले रखती थीं। रसोई में वह हमेशा से ही मेरे आकर्षण का केंद्र रहे। पता नहीं क्यों उनका ऐसे घुल-मिलकर रहना मुझे बहुत पसंद था। उन पतीलों के साथ-साथ स्टील के गिलास भी एक दूसरे से चिपक कर एक के ऊपर एक रखे रहते थे। इस तरह से उस अलमारी में काफी कम जगह में ही काफी अधिक सामान आ जाता था। उसके साथ वाली आख़िरी अलमारी में सब तरह के साबुन रहते थे कोई नहाने का तो कोई कपड़े धोने का। आखिर की छोटी अलमारी के नीचे एक छोटा बर्तन का स्टैंड था और साथ ही वाटर प्यूरीफायर लगा हुआ था। एक तरफ की दीवार पर बड़े बर्तनों का स्टील का स्टैंड था तो एक दीवार के बाहर बड़ी अलमारी में क्रोकरी सजी रहती थी। नीचे की अलमारियों में तरह-तरह के छोटे-बड़े ढेर बर्तन, आटे का कनस्तर, घी-तेल और गैस का सिलेंडर थे।

इसके अलावा भी रसोई में कोई था, एक ऊंचा सा बड़ा पटरा। रास्ते में ही पड़ा रहता था, जैसे मेरी आंख की किरकिरी बन कर। कितनी बार मुझे उससे ठोकर भी लगती थी। मां से कितना तो कहती थी कि क्या है, छोटी सी रसोई में यह बीच में क्यों रखती हो? इसकी क्या जरूरत है? मां कहती थी, "बेटा जब काम करते-करते थक जाती हूं, तो इस पर बीच-बीच में बैठकर काम कर लेती हूं, थोड़ा आराम मिलता है।" पर इस बात की गहराई मुझे तब कभी इतनी समझ ही नहीं आई। अब जब ख़ुद उम्र की ढलान पर रसोई में कुर्सी लगवाई, तो मां के पटरे की बहुत याद आई। मां का पटरा नहीं, वह मां का सहारा था, जैसे ये मेरी प्यारी कुर्सी। जब रसोई में काम करते-करते थक जाती हूं, तो दो पल चैन से बैठ जाती हूं। पति और बच्चे भी गुस्सा करते हैं कि क्या है, यह कुर्सी रास्ते में क्यों रखती हो? उनकी झुंझलाहट पर अब मुझे हैरानी नहीं होती। क्योंकि मां के पटरे पर निकाली अपनी झुंझलाहट याद आ जाती है। अब इन्हें कैसे समझाऊं इस कुर्सी की ज़रूरत, मुझे ख़ुद इस उम्र में समझ आई मां के पटरे की अहमियत। वह कहते हैं ना...
जाके पैर न फटी बिवाई,
वह क्या जाने पीर पराई...
अब मां के पटरे पर मुझे बेहद प्यार आता है,
पर वह बीता बचपन कहां बार बार आता है...


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