केले वाली अलमारी Suvidha Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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केले वाली अलमारी

नींद अभी पूरी तरह खुली नहीं थी। फिर खेस से ज़रा सा झांककर देखा तो कमरे में कोई नहीं था। मैं भी यूं ही लेटी रही। तभी गली में केला बेचने वाले की आवाज आई, "केले ले लो केले, ताजे-मीठे केले ले लो।" फिर तो बस किसका बिस्तर और किसका खेस, झट बिस्तर से उठी और खिड़की की रेलिंग पर कूदकर चढ़ गई, केले वाले की रेहड़ी को देखने के लिए। इतने में मां दौड़ती हुई आई, "अरे बबली, कहां चढ़ी हुई हो? नीचे उतर गिर जाएगी।" मैंने भी ठुनकते हुए कहा, "नहीं मां, पहले केले लो। फिर ही नीचे उतरूंगी।" मां ने समझाया, "बेटा, नानी ले तो रही है ना केले। तू नीचे उतर, वरना गिर जाएगी।" "मां नानी सिर्फ एक देती है। तुम मुझको दो दोगी, तो ही मैं नीचे आऊंगी," मैंने भी अपनी गुहार लगाई। मां बोली, "बेटा नानी सबको देगी। अगर तुझे दो दिए तो फिर बाकी सब भी दो-दो ही मांगेंगे। फिर सब को कैसे मिलेंगे?"

मुझे मां की बात से कोई लेना-देना नहीं था। बस गुस्सा आ रहा था कि मां मुझे दो क्यों नहीं दे सकती। खिड़की से झांककर अब बाहर देखा तो नानी केले वाले तक पहुंच गई थी। छींट की साड़ी में नानी सिर पर थोड़ा पल्ला करके गली में निकली थीं। मेरी नानी बेहद खूबसूरत थीं। पूरे घर भर में उनका रौब था। रौब ना रखतीं तो आठ-आठ बच्चों को कैसे पालतीं। आजकल तो एक या दो ही पालने मुश्किल होते जा रहे हैं। उस पर भी हाल यह कि बच्चे मां-बाप पर ज़्यादा रौब जमा लेते हैं। अब कम बच्चे होने से ज़्यादा सिर चढ़े होने लगे। पहले ज़्यादा बच्चों में, मां-बाप किस-किस को सिर चढ़ाएं, बेचारा एक ही तो सर है।

हां, तो मैं कहां थी, बात केले की चल रही थी। अब नानी केले वाले से मोलभाव कर रही थीं। उसने शायद पांच रुपए के दर्जन के हिसाब से दिए। नानी ने भी दो दर्जन केले दस रुपए के ले लिए। नानी जब केले लेकर, घर में घुस रही थीं, उनको देखकर मेरी तो बांछें ही खिल गईं। मैंने बड़ी सी मुस्कान की, नानी को रिश्वत देने की कोशिश की। पर नानी कहां टस से मस होने वाली थीं। पूरा बडा हॉल पार करके, साथ वाले कमरे में गईं और अपनी लकड़ी की अलमारी, जिसमें लोहे की जाली लगी हुई थी, पहले जमाने में ऐसी अलमारी हर घर में होती थी और उसमें ऐसा सामान रखा जाता था, जिसे हवा लगती रहे और वह जल्दी खराब ना हो क्योंकि तब फ्रिज नहीं होते थे, उसमें सारे केले संभाल कर रख दिए।

मां दूर से ही सारा नज़ारा देख रहीं थीं और मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। पर मेरे चेहरे की मुस्कान अब तक गायब हो चुकी थी। मैं बड़ी ललचाई नजरों से नानी को देख रही थी। सोचा एक कोशिश और करके देखती हूं। खूब मटकती हुई नानी के पास गई और अपने छः साल के दिमाग में जितनी भी अक्ल थी, सब लगाकर बोली, "नानी! बीनू, बुट्टू, मोना, गिट्टू, नीटी को तो सारा दिन केले के ही सपने आते रहते हैं, पर मुझे तो बिल्कुल नहीं आते। वैसे नानी केले कब दोगी?" नानी भी हंस पड़ी और मुझे गोद में बिठाकर बोलीं,"मेरी चंदा, मेरी सूरज, अभी केले दे दिए तो तुम सब नाश्ता नहीं करोगे। इसलिए पहले नाश्ता करो, फिर दिन में सबको केले दूंगी।" मेरा तो जैसे मुंह ही उतर गया। सब जतन किए पर केला फिर ना हाथ लगा। फिर ठुनकती हुई मां के पास गई। गाल पर एक आंसू भी लुढ़क रहा था। पर मां पर भी कुछ असर नहीं हुआ। मां का भी वही जवाब था जो नानी का था।

बहनों-भाइयों, मामा-मोसियों के जमावड़े के साथ चुपचाप, भारी मन से, आधा-पचादा नाश्ता किया। दिलों दिमाग पर बस केला छाया हुआ था। मां और नानी भी मेरा सारा तमाशा देख रहीं थीं। पर मजाल है जो पिघल जांए। जब देखा दोनों पर कुछ असर नहीं हो रहा, तो चुपचाप रसोईघर से उठकर सब बहन भाइयों के साथ 'स्टापू' खेलने में लग गई। बीच-बीच में मेरा केले की अलमारी पर नजर रखना, ज़ारी रहा। घड़ी में जैसे ही बारह बजे, नानी की आवाज़ आई,"बच्चों केला खा लो।" सिर पर पैर रखकर भागी कि आखिरकार केला खाने का समय आ ही गया। नानी ने सबको बांटकर एक-एक केला दिया। हम सब छः भाई-बहन, चार मौसी, तीन मामा, मां, नाना-नानी और दो-चार लोग नाना से मिलने आए हुए थे और तीन-चार पड़ोस के बच्चे भी थे, जो हमारे साथ खेल रहे थे, नानी ने सबको केले दिए। पूरे दो दर्जन केले एक-एक करके नानी की अलमारी से सबके हाथ में चले गए।

सब मज़े में केला खा रहे थे और मैं अंदर से उदास थी कि काश मुझे एक और केला मिल जाता। अपना तो मैं पहले ही गटक चुकी थी। जैसे ही सब बाहर दोबारा से खेलने जा रहे थे, नानी ने मेरा हाथ पीछे से पकड़ कर रोक लिया और मुझे इशारे से चुप रहने को बोला। फिर धीरे से नानी ने अपने हिस्से का केला मेरी और बढ़ाया। दूसरा केला देखकर मैं तो नाच उठी। फिर ध्यान आया कि नानी ने भी तो नहीं खाया। नानी ने प्यार से मुझे गोद में बिठाया और मुझे केला खिलाने लगीं। मैंने कहा,"नानी, थोड़ा आप भी तो खाओ।" नानी बोली," अरी बिटिया, मेरा पेट तो तुझे खिलाने की खुशी से ही भरा जा रहा है।" दूसरा केला खाकर मैं फिर से 'स्टापू' खेलने में मस्त हो गई। इस बात को गुज़रे जिंदगी के कितने सावन बीत गए।

नादान बचपन, तब सोचती थी जब बड़ी हो जाऊंगी, खूब सारे केले खरीदा करूंगी और अकेले ही सब खाया करूंगी, किसी को नहीं दूंगी। अब बाज़ार से इलायची केले अस्सी रुपए दर्जन के भाव से चार ही खरीद कर लाती हूं, तो लाकर मेज़ पर रख देती हूं। कोई नहीं है मांगने वाला, ना कोई केले के लिए मान-मनुहार करने वाला। कभी मैं केले को देखती हूं कभी केला मेरे अकेलेपन को। कोई अलमारी में छिपा कर रखने वाला भी तो नहीं है। सब मेरे ही तो हैं, चाहे जितने खाऊं। पर अब मन नहीं होता दो खाने को। कभी-कभी तो मन ही नहीं होता खाने को और केले पड़े-पड़े ज़्यादा पक जाते हैं तो पौधों में खाद बनने डाल देती हूं। अब पता चला, बचपन में चीजों को बांट कर खाने में जो आनंद था, वह अकेले खाने में कहां? शायद जब तक चीज़ कम होती है, तभी तक उसका महत्व होता है, पर यह बात समझने में हम सारी उम्र लगा देते हैं...