नीलम कुलश्रेष्ठ
“आज तुझे बरसों बाद पकड़ा है ।” बाज़ार में सहसा किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा । मैं चौंक कर मुड़ी, एक भरे बदन वाली गोरे रंग की युवती मेरे मुड़ते ही मुस्करा उठी ।
“लेकिन मैं...” मैं संकोच में यह नहीं कह पा रही थी कि मुझे उस की सूरत दूर दूर तक भी जानी पहचानी नहीं लग रही ।
“अब क्यों पहचानेगी ? अख़बार में पढ़ा था कि तेरे शोध कार्य को पुरस्कृत किया गया है ।”
“हाँ, लेकिन...”
“यार !पढ़पढ़ कर तेरी याददाश्त बेहद कमज़ोर हो गई । अब तू मुझे ही नहीं पहचान रही ।” उस ने झुंझलाते हुए अपना बड़ा सा धूप का चश्मा उतारा ।
“अरे नूपुर तू ?” मैं हैरानी से बोली, “इतना गोरा रंग, इतना सौंदर्य शादी के बाद कहाँ से चुरा लाई है?”
“सब तेरी मेहरबानियाँ हैं ।” उस ने भावुक हो कर मेरा हाथ दबाया ।
“मेरी ?”
“अरे इतनी जल्दी भूल गई ? चल, तुझ से ढेर सी बातें करनी हैं , कहीं चल कर गप्पें मारते हैं ।”
नूपुर के साथ का आकर्षण इतना था कि मैं यह भूल ही गई कि मुझे कॉलेज में पढ़ाने भी जाना है । मैं सोचने लगी कि कहाँ वह दुबलेपतले हाथपैरों वाली नूपुर, जिस के सिकुड़े चेहरे पर बड़ीबड़ी आँखें ही शानदार लगती थीं और, बालों में तेल चुपड़ कर दो कसी चोटियों में काला रिबन बांधने वाली नूपुर और कहाँ यह लहराते हुए बालों वाली तरूणी !
मैंने रेस्तरां के काउंटर से कॉलेज में अनुपस्थित रहने के लिए फ़ोन कर दिया । पाइन एपल ज्यूस का घूँट लेते हुए मैंने सब से पहले नूपुर से यही पूछा, “यह जमीन आसमान का असर कैसे हुआ ?”
“प्यार करने वाला पति, पैसा, दो गोलमटोल से बच्चे और...” कहते कहते उस की आँखें सजल हो गईं ।
“और क्या...? क्यों बारबार रहस्य, रोमांच फ़िल्मों जैसा नाटक कर रही है ?”
“और मेरे ऊपर की गई तेरी बहुत बड़ी मेहरबानी ।”
“कौन सी ? यार, कहीं जतिन की बात तो नहीं कर रही है ?”
“हाँ, अगर तू ने सही समय पर मुझे संभाला न होता तो शायद यह भरपूर जीवन मेरी पहुँच से बहुत दूर चला जाता ।”
अनायास मेरी आँखों में जतिन का चेहरा घूम आया । पहली बार जब मैंने भी उसे देखा था तो प्रभावित हुए बिना न रह सकी थी । अच्छा लंबा कद, गोरा रंग, अजीब सी मस्ती भरी चाल से वह बाजार के दूसरी तरफ जा रहा था । जब उस ने नूपुर को देखा तो आँखें तिरछी कर के मुस्करा कर आगे बढ़ गया । मुझे लगा, उस की हलकी हरी आँखों में एक गहरा आकर्षण है । फिर भी पता नहीं क्यों मेरे मुँह से निकल ही गया, “मेरी छठी इंद्रिय कह रही है कि यह लड़का बेहद दिलफेंक होना चाहिए ।”
“तेरी छठी इंद्रिय कुछ न कुछ कहती ही रहती है । कहीं मुझ से जलभुन तो नहीं गई । इतना सुंदर लड़का मुझ पर लट्टू हो गया है ।” वह अपनी चोटियां झटक कर बोली थी ।
“यह लट्टू होने की बातें आप को ही मुबारक हों, लेकिन फिर भी फूँक फूँक कर आगे बढ़ना, मुझे तो यह बेहद चलता पुर्ज़ा मालूम हो रहा है ।”
“आप को तो हर स्मार्ट व्यक्ति चलता पुर्ज़ा नजर आता है । आप की तरह काले मोटे फ्रेम का चश्मा चढ़ाए हुए कोई ढीला ढाला बुद्धिजीवी होता तो शायद आप उसे पास कर देतीं ।”
“सावधान करना मेरा काम है, उस पर अमल करना तेरा ।” नोंक झोंक करते करते हम लोगों का घर आ गया था । मैं अपने घर की तरफ मुड़ गई थी ।
बड़ी अजीब सी थी दोनों की दोस्ती । कॉलौनी एक, कक्षा एक, लेकिन मिज़ाज से पूर्व पश्चिम का अंतर था । उस की माँ की मृत्यु हो चुकी थी, वही घर का काम काज देखती थी । छोटे भाई बहन को संभालती, घर के रूखे सूखे माहौल के कारण कॉलेज में हर समय शोख तितली बन कर उड़ना चाहती थी, किंतु पिता के कड़क अनुशासन से थरथर काँपते हुए बालों में तेल चुपड़ दो चोटियाँ कर के कॉलेज जाती थी ।
उधर मेरे घर में हर तरह की आज़ादी थी, फिर भी मेरा मन किताबों में लगता था । मुशकिल हम दोनों की थी क्योंकि कॉलेज का रास्ता एक ही था, विचारों के न मिलने पर भी वह रास्ता हमें लड़तेझगड़े नोंकझोंक करते काटना ही पड़ता था । बेहद अजीब थी हमारी दोस्ती । मिलते तो लड़ते थे, यदि न मिल पाते तो दिल को चैन नहीं पड़ता था । यदि किसी कारण एक कॉलेज नहीं जाती थी तो दूसरी को रास्ता काटना दूभर हो जाता था । वह तो बेचारी घर के झंझटों में अधिक उलझी रहती थी । अक्सर मैं ही उस के घर चली जाया करती थी ।
बी.ए. के प्रथम वर्ष की परीक्षा के बाद मैंने देखा कि वह बहुत बुझी बुझी व गुमसुम रहने लगी है । एक दिन उसे बातों में लगा कर छत पर ले गई, क कोने में ले जा कर मैंने पूछा, “क्या बात है ? तू कुछ बदली बदली सी लग रही है, न पहले की तरह हंसती है, न खिलखिलाती है...बस खोईखोई सी रहती है ।”
“याद आ रही है ।” उसने सूनी आँखों से मुझे देखा था ।
“किस की?” मैं हैरान हो उठी ।
“उस की...” कहते हुए उस ने शरमा कर चेहरा छिपा लिया ।
“अरे क्या फ़िल्मी हीरोइन जैसा नाटक कर रही है । अभी बी.ए. पास किया नहीं है, बस इधर उधर ताक झांक शुरू कर दी ।”
“लेकिन मैंने कुछ नहीं किया । उसी ने झांका है ।”
उस की मासूम सूरत पर मुझे गुस्सा व प्यार दोनों एक साथ आ गये, उस ने भावुक हो कर परीक्षा कक्ष का जो विवरण किया उस से मुझे लगा कि मैं पूरी तरह उस के अनुभवों में उतर गई हूँ ।
परीक्षा के प्रथम दिन ही परीक्षा कक्ष का यह कोना नूपुर को बेहद अच्छा लग रहा था, खिड़की के बाहर से ही वनस्पति विभाग आरंभ हो जाता था, इसलिए वहाँ के हरे भरे पेड़ पौधों की सुगंधित हवा को उस ने जी भर कर अपने अंदर खींचा, सामने के पेड़ों पर लिपटी हुई लचकीली लताएं दृश्य की और भी सुंदर बना रही थीं।
“कहाँ खो गई, नूपुर रानी? परीक्षा की घंटी बज चुकी है, अब अपनी सीट पर बैठ जाइए ।”
“ओह...” वह प्रकृति को देख कर अपनी सुध बुध भूल जाती है, उस की सभी सहेलियाँ यह जानती हैं । वह झेंप कर अपनी सीट पर बैठ गई और बेवजह ही रूमाल से पसीना पोंछने लगी ।
दो निरीक्षक प्राध्यापकों ने उस के कमरे में प्रवेश किया और दोनों ने कापियाँ व प्रश्नपत्र बाँटने आरंभ कर दिये । जैसे ही उन में से एक नूपुर के पास आया, उस ने प्रश्नपत्र लेने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन वह प्रश्न पत्र फर्श पर गिर गया । वह उसे उठाने के लिए नीचे की तरफ झुकी, उधर वह प्राध्यापक भी झुका तो दोनों के सिर टकरा गये । घबराहट से उस ने प्रश्न पत्र उठाते हुए कहा, “सॉरी ।”
“कोई बात नहीं ।” वह उसे देखते हुए शरारत से मुस्करा दिये ।
उन की इस मुस्कराहट से नूपुर का दिल तेज़ी से धड़कने लगा । सिर की झनझनाहट उस के समूचे शरीर में उतर गई । उसे लगा कि उस का सारा खून गालों की तरफ दौड़ने लगा है । उस ने मुशकिल से अपने आप पर काबू पाया और प्रश्नपत्र हल करने में लग गई । जब एक कॉपी भर गई तो उस ने खड़े हो कर जानबूझ कर दूसरे निरीक्षक से कहा, “सर !कॉपी चाहिये ।”
इस से पहले की दूसरे वाले निरीक्षक कॉपी निकालें, पहले वाले निरीक्षक ने जल्दी से कॉपी निकाली और तेज़ कदमों से उस के पास आ गये और गहरी मुस्कराहट से उसे देखते हुए बोले, “यह लीजिये, आप को और कुछ चाहिये ?”
“नहीं ।” उस ने जानबूझ कर आँखें नहीं उठाईं और लिखने में लगी रही । वह महोदय कमरे में निरीक्षण करते समय उस के पास आ कर हर बार दो मिनट रुक कर उस की कॉपी पढ़ने का प्रयास करते रहते । जब तक वह उस के पास खड़े रहते नूपुर का दिल घबराने लगता । हाथ में हलका सा कंपन होने लगता । वह और अधिक सिर झुका कर उन की उपस्थिति को अनदेखा कर लिखने में जुट जाती ।
परीक्षा समाप्त होते ही वह लगभग दौड़ते हुए उस की सीट के पास आ गये । उस की कॉपी लेते हुए उन्होंने उस का नाम पढ़ा, “नूपुर ।” फिर ज़बरदस्ती अपना परिचय दिया । “मैं जतिन हूँ । लाजपत कॉलेज में इतिहास पढ़ाता हूँ ।”
उस का मन तो हुआ कि चिल्ला कर कहे कि मैंने आप से आप का परिचय कब पूछा था लेकिन शिष्टाचारवश सिर्फ़ इतना ही कह पाई, “जी ।”
और जल्दी जल्दी अपने पैन डब्बे में रख कर तुरंत ही उठ गई । वह उन्हें अनदेखा सा करती हुई बाहर निकल आई और वह उसे मौन खड़े देखते रह गये । पिछले वर्ष के हुए परीक्षा परिणामों के घोटाले के कारण उन के यहाँ के प्राध्यापक निरीक्षण करने लाजपत कॉलेज भेजे गये थे और वहाँ के प्राध्यापकों को यहाँ बुलाया गया था ।
दूसरे दिन भी जतिन उसे कॉपी देते हुए फुसफुसाये, “मैं देखने में बड़ा लगता हूँ, लेकिन सिर्फ दो वर्ष से ही कॉलेज में पढ़ा रहा हूँ।”
उस ने झुंझला कर कहना चाहा, “आप दो वर्ष से कॉलेज में पढ़ा रहे हों या दस वर्ष से, इस से मुझे क्या?” लेकिन संकोच में कुछ न कह सकी ।
तीसरे दिन तो इतिहास का ही प्रश्नपत्र था । वह उसे प्रश्नपत्र देते हुए फुसुफुसाये, “आप को यदि कोई उत्तर समझ में न आए तो मुझ से पूछ लीजियेगा ।”
घर के कार्यों में अधिकतर व्यस्त रहने के कारण नूपुर पढ़ाई के लिए कम समय निकाल पाती थी, इसलिये अनजाने में ही उस के मुँह से निकल गया, “जी ।”
पिछले दो दिन की तरह उस ने दूसरे निरीक्षण की तरह मुँह कर के कॉपी मांगी तो आदतन जतिन लपकते हुए कॉपी ले कर आ गये और फुसफुसाये, “इस कॉपी में मैंने एक पृष्ठ रख दिया है, जिस पर प्रश्नपत्र में पूछी गई इतिहास की मुख्य घटनाओं के वर्ष लिखे हैं ।”
वह अचंभित हो उन का मुँह देखती रह गई । इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की बातें व वर्ष याद रखना उस के बस की बात नहीं थी । किसी तरह थोड़ा पढ़ कर थोड़ा मन से मिलाकर घसीटती हुई द्वितीय श्रेणी ले आती थी । जब दूसरे निरीक्षक कुछ मिनट के लिये कहीं गये थे, तभी जतिन ने एक पृष्ठ पर वर्ष व कुछ महत्त्वपूर्ण उत्तर लिख दिये थे । उस ने ख़ुशी ख़ुशी नकल कर ली ।
चौथे दिन तो जतिन का चेहरा देखते ही उस के चेहरे पर अपने आप मुस्कराहट आ गई । उस दिन इतिहास का दूसरा प्रश्नपत्र था । जतिन ने फिर चोरी छिपे उस की मदद की । उस कक्ष में बैठनेवाले सभी लड़के लड़कियाँ जान गये थे कि जतिन अधिकतर नूपुर की सीट के आसपास मंडराता रहता है । वह परीक्षा दे कर बाहर निकलती तो उस की सहेलियाँ खिल्ली उड़ाती, “आजकल तेरी उस से बहुत पट रही है ।”
“किस से?”
“उस छैल छबीले प्रोफ़ेसर से ।”
“क्या पट रही है ? वह तो सभी की सहायता करने के लिये भागता रहता है ।”
“तेरा तो विशेष ही ध्यान रखता है ।”
“तुम लोग तो बेकार की बातें करती हो ।” कहकर उस ने पीछा छुड़ा लिया । घर आ कर स्वयं को वह शीशे के सामने घूमघूम कर निहारती रही । वह हैरान थी कि उस के व्यक्तित्व में ऐसा कौन सा आकर्षण है जो जतिन जैसा लड़का उस पर मुग्ध हो गया है ।
अंतिम प्रश्नपत्र के दिन वह उदास थी । जतिन भी कातर आँखों से उसे देख रहा था । प्रश्न पत्र पूरा होने के बाद जब वह उस की कॉपी लेने आया तो फुसफुसा कर बोला, “मैं जुबली बाजार में गोल्डी कोल्ड ड्रिंक्स में शाम को रोज़ आता हूँ ।”
उस की इस बात पर नूपुर ने भरपूर आँखों से उसे देखा लेकिन उत्तर में कुछ भी नहीं कह पाई ।
“तो महारानी जी, आप उस जरा सी घटना के लिये उदास रहती हैं ।” मैंने अपने घर की छत पर उस से कहा, “परीक्षा के दिनों में मैं भी सोचती थी कि आखिर चक्कर क्या है ? रास्ते में चक चक करने वाली नूपुर बोलती क्यों नहीं है । मैं तो यह सोच रही थी कि परीक्षा की थकान ने बोलती बंद की हुई है ।”
“तू बता, मैं उस से गोल्डी कोल्ड ड्रिंक्स में मिलने जाऊँ या नहीं ?”
“बुद्दू है क्या ? बी.ए. नहीं करना है ? इस चक्कर में मत पड़, वैसे तेरी कोई ग़लती नहीं है । इस उम्र की किसी भी लड़की के पीछे जब कोई लड़का दो चार चक्कर काट लेता है तो वह अपने को हूर समझ कर उसके पीछे दीवानी हो जाती है ।”
“लेकिन आखिरी परीक्षा वाले दिन तो वह बेहद उदास था । ऐसा लग रहा था यदि मैं उस से नहीं मिली तो बेचारा कैसे दिन गुज़ारेगा । और हाँ, बात तो ऐसे कर रही है, जैसे तू मेरी उम्र की लड़की नहीं कोई दादी अम्मां है ।”
“मैं तो ख़ैर मैच्योर्ड ही पैदा हुई हूँ । लेकिन तू पागल मत बन । यदि सच्चा प्रेमी होगा तो एक न एक दिन ख़ुद तेरे पिता के सामने तेरा हाथ मांगने आ जायेगा ।”
एक दिन हम दोनों बाजार जा रहीं थी, तभी नूपुर ने जतिन को मुझे दिखाया था । मैं बहुत ख़ुश थी कि नूपुर ने जतिन का ख़्याल मन से निकाल दिया है ।
कुछ महीने बाद भैया के दोस्त जो लाजपत कॉलेज में पढ़ाते थे, हमारे घर आये और मुझ से पूछने लगे, “क्या नूपुर तुम्हारी सहेली है ?”
“हाँ ।”
“वही तो नहीं, जो दो चोटियों में काले रिबन बांधती है, दुबली सी है लेकिन अच्छी लगती है?”
“क्यों, क्या इरादे हैं ?” मेरे भैया ने बीच में चुटकी ली ।
“मेरे इरादे तो नेक हैं, किंतु वह तुम्हारी सहेली है, इसलिये बता देता हूँ , उस से कहना कि वह संभल जाये ।”
“कैसे ?”
“आजकल वह हमारे कॉलेज के जतिन के चक्कर में पड़ गई है । वह उसे बर्बाद कर के छोड़ देगा ।”
“कौन जतिन?”
“हमारे कॉलेज का प्रसिद्ध आशिक ।”
“मैं तो नूपुर को अच्छी तरह जानती हूँ ... वह इन चक्करों से बहुत दूर है ।”
“तो उस से पूछना कि वह हर तीसरे चौथे दिन गोल्डी कोल्ड ड्रिंक्स में क्यों जाती है?”
गोल्डी कोल्ड ड्रिंक्स के नाम से मैं चौंक गई । नाम कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था । तो आखिर वह मेरे समझाने पर भी अपने को रोक नहीं पाई ।
“लेकिन यह आशिक नाम से क्यों प्रसिद्ध है ?”
“है तो बड़ी घिसीपिटी सी कहानी, लेकिन हर बार दोहराई जानेवाली कहानी, कभी किसी के भावुक मन पर भरपूर चोट लगा कर उसे जीवन भर के लिये आहत कर देती है । जतिन भी पहले सीधा सादा युवक था...”
“फिर क्या हुआ ?”
“हुआ यह कि वह एक जौहरी की बेटी से प्यार कर बैठा ।ये दोनों बहुत निकट आ गये थे । दोनों के घर वाले भी उन की दोस्ती देख कर उन की शादी के लिए तैयार हो गये थे, लेकिन व्यापारी की बेटी आखिर व्यापारी ही निकली । अमरिका में बसे अपनी जाति के किसी लड़के के संपर्क में आते ही वह जतिन को धोखा दे कर अमरिका चली गई ।”
“इसलिये जतिन की विचार धारा ही बदल गई ।”
“हाँ, कुछ महीने तो वह अपने ही दुख में डूबा रहा । उन दिनों मैं भी उसी हॉस्टल में था । कक्षा से लौट कर वह सीधे अपने कमरे में बंद हो जाता । अचानक वह कुछ दिनों के लिए हॉस्टल से गायब हो गया । किसी को भी पता नहीं चला कि वह कहाँ चला गया है । जब वह लौटा तो एकदम बदला हुआ था । उस की एक एक बात बदली हुई थी । उस ने बालों को नये अंदाज में कटवाया हुआ था व ढेर सारे आधुनिक कपड़े खरीद लिये थे। वह बना ठना हर समय अँग्रेज़ी बोलता रहता था । वह कॉलेज की किसी न किसी लड़की को आकर्षित करने में जी जान लगा देता । जब वह उस के प्यार में डूब जाती तो उसे धोखा दे कर दूसरी को फंसाना शुरू कर देता । इस खेल में उस के चोट खाये अहं को अजीब संतुष्टि मिलती ।”
“उसे कॉलेज में नौकरी कैसे मिल गई ?”
“पढ़ने में बहुत तेज़ था । हम दोनों को साथ साथ ही नौकरी मिली थी । हमारे कॉलेज में तो अब लड़कियाँ उस की आदत पहचानने लगी हैं, इसलिये तुम्हारे कॉलेज में उसे निरीक्षक बनने का मौका मिला तो नूपुर पर डोरे डालने लगा । जब उस के बारे में किसी ने बताया तो मुझे ख़्याल आया कि वह तो तुम्हारी सहेली है । यदि चाहो तो अपनी सहेली को बचा लो ।”
मैं अवाक थी कि किसी के दिल पर लगी चोट इतना भयानक रूप भी ले सकती है । मैं चाहती थी कि फोरन नूपुर से मिल कर उसे सारी स्थिति बता दूँ । दूसरे दिन मुझे उस के घर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी । वह स्वयं ही आ गई । उसे देखते ही मेरे मुँह से निकला, “तेरे मुँह पर बारह क्यों बज रहे हैं ?”
“मुझे कल कुछ लोग देखने आने वाले हैं । पिताजी ने कहा है मैं तुझे बुला कर लाऊं, जिस से कल तू मसजने संवरने में मेरी मदद कर सके ।”
“तेरा मुँह क्यों लटक रहा है, तुझे तो ख़ुश होना चाहिये । वैसे भी तेरा पढ़ाई में मन लगता नहीं ...शादी होने से पढ़ाई से तो तेरी जान छूट जायेगी ।” मैं उस का हाथ पकड़ कर जानबूझ कर अपने कमरे में ले आई । वह पलंग पर गोद में तकिया ले कर बैठ गई और सुबकने लगी , “मैं जतिन के बिना नहीं रह सकती ।”
“कौन जतिन?” मैं जानबूझ कर अनजान बनी रही ।
“यही लाजपत कॉलेज वाला ।”
“यानि कि वह धोखेबाज़ आशिक?”
“धोखेबाज़ आशिक से तेरा क्या मतलब है?”
तब मैंने उसे धीरेधीरे जतिन की पूरी कहानी सुना दी । कहानी सुनने के बाद वह उत्तेजित हो उठी, “मान लिया कि तेरी बात सही भी है, लेकिन वह मुझे दिलोजान से चाहता है । मुझ से शादी करना चाहता है ।”
“तो अब तक क्यों नहीं की ? अब तक क्यों गोल्डी कोल्ड ड्रिंक्स पर तुझे ठंडी बोतलें पिला पिला कर टालता आ रहा है ? और एक बात बता कि तू किस बहाने से उस शॉप पर जाती है ?``
वह कुछ शर्मा दी ,``मैं ईवनिंग वॉक के बहाने घर से निकलतीं हूँ और रोज़ उस शॉप से एक रूपये की स्ट्रेपसिल्स खरीदतीं थी। उसे देखने का बहाना भर था। धीरे धीरे उसने बात करना शुरू किया। हम लोग कोल्ड ड्रिंक्स भी वहाँ पीने लगे।”
``क्या ?तुझे डर नहीं लगता कि कोई देख लेगा। ``
“नहीं ,अब वह शादी करने के लिये तैयार है । तुझे अपनी सहेली समझ कर एक बात बताना चाहती हूँ , किसी से कहेगी तो नहीं?”
“चल वायदा रहा, किसी से नहीं कहूँगी ।” मैंने उस की उदास सूरत पर तरस खा कर उस के हाथ पर हाथ रख दिया ।
“वह मुझे इतना प्यार करने लगा है कि मेरी किसी दूसरे से शादी होते नहीं देख सकता । इसलिये मैं कल दो बजे अपने कपड़े एक सूटकेस में रख कर स्टेशन पहुँच जाऊंगी । फिर किसी दूसरे शहर पहुँच कर हम दोनों शादी कर लेंगे ।”
मैं क्रोध से तमतमा उठी, “मैं तो तुझे सिर्फ़ बुद्धु समझती थी लेकिन तू तो महामूर्ख निकली । अब भी उस की चालबाज़ी समझ नहीं पा रही । कुछ महीनों तक तेरे साथ इधर उधर मौजमस्ती कर के वह तुझे छोड़ देगा ।”
“उस ने शादी करने का वायदा किया है ।”
“यह कैसा वायदा है ? देखने में इतना अच्छा है, अच्छे पद पर काम कर रहा है । लेकिन फिर क्यों तुझे भगा कर ले जाना चाहता है ? क्यों नहीं तेरे पिता के सामने शादी का प्रस्ताव रखता?”
“मेरे पिताजी बहुत गुस्सैल हैं, इसलिये डरता है ।”
“तू यदि घर से भागेगी तो अपनी ज़िन्दगी की सब से बड़ी गलती करेगी ।”
“मुझे अब कोई नहीं रोक सकता । तू ने मुझ से वायदा किया है, इसलिये किसी को यह बात बतायेगी नहीं। ” वह तकिया पलंग पर फेंक किसी चट्टान की तरह खड़ी हो गई ।
“तुझे तेरी बुद्धि ही रोकेगी । मेरी बात पर रात भर विचार करना । यदि भागी नहीं तो अपने बालों में कल तेल मत लगाना...शैंपू से बालों को धो कर रखना, तेल लगे बालों में तेरा मेकअप मुझ से नहीं होगा ।” मैंने भी उसे चिढ़ाते हुए कहा,
वह भी दोगुने वेग से चिल्लाई, “शैंपू से बाल धोकर ,ज़ुल्फ़ें बिखरा कर तू चाय की ट्रे ले कर उन के सामने चली जाना । सुना है लड़का डॉक्टर है ।”
“अरे, पहले क्यों नहीं बताया कि लड़का डॉक्टर है, तब तो तू जरूर भाग जाना, मैं अपना काम फ़िट कर लूंगी ।” गुस्से से चिढ़ कर मैं चिल्ला उठी थी । वह बड़बड़ाती हुई कमरे से निकल गई ।
मां घबराई हुई सी कमरे में नेपकिन से हाथ पोंछती आ गई थीं , “तुम दोनों इतनी ज़ोर से क्यों चीख रही थीं ? जब आपस में बनती ही नहीं है तो मिलती ही क्यों हो ?”
“माँ, इस लड़ाई ने ही तो हमारी दोस्ती पक्की कर रखी है ।” मैं जानबूझ कर सहज हो कर हँस दी ।
“नहीं, तेरी सूरत बता रही है कि बात कुछ गंभीर है ।”
“अरे, कल नूपुर को कुछ लोग देखने आने वाले हैं, इसलिये उस ने मुझे कल बुलाया है ।” नूपुर को अपना दिया हुआ वायदा याद कर के मैं उन से कुछ नहीं कह पाई थी ।
कत्ल की रात क्या होती है, मैंने यह उस रात जाना था । नींद आँखों से बहुत दूर थी, न इस करवट चैन, न उस करवट चैन । पता नहीं कितनी बार मैं पानी पीने उठी थी । अजीब सी घबराहट हो रही थी, दिल बैठा जा रहा था कि मैंने नूपुर के राज़ की बात किसी को न बता कर अच्छा नहीं किया । मैंने अपना वायदा नहीं तोड़ा था ।
दूसरे दिन दोपहर तीन बजे मैंने नूपुर के घर की घंटी बजाई । दरवाज़ा उस के छोटे भाई ने खोला, “आईये दीदी ! ”
मेरी उस से कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई । सारा घर शांत था । मैं दम साधे अंदर घुसती चली गई। मुझे ऐसा लग रहा था कि पता नहीं क्या विस्फ़ोट होने वाला है । अंदर जा कर देखा, नूपुर के खुले हुए रूखे बाल बिखरे हुये हैं, वह मेज पर रखे फूलदान में कुछ फूल लगा रही है । मैं दोड़ पड़ी, “नूपुर ।”
वह भी भावविभोर हो कर मेरे गले लग गई । हम दोनों थोड़ी देर तक सिसकती रहीं, उस के भाई बहन ताली बजा कर हंसने लगे, “आप दोनों तो ऐसे रो रही हैं, जैसे दीदी अभी ससुराल जा रही हैं ।”
नूपुर रोते रोते भी हँस पड़ी, फिर उस ने उनसे कहा , “तुम दोनों जा कर ड्रॉइंगरूम को ठीक करो.हम दोनों रसोई में जा रही हैं ।”
रसोई में जाते ही मैंने उस से पूछा, “यह सब कैसे हुआ?”
“मैं रात भर सो नहीं पाई थी । तेरी बातों को ठंडे दिमाग से सोचती रही । हम लोगों के दो बजे घर से भागने का टाइम फ़िक्स था लेकिन सुबह बाज़ार जाने के बहाने जब मैं जतिन से मिलने गई तो उस ने पिताजी से शादी के लिये मिलने से इनकार कर दिया । वह यहीं कहने लगा कि शादी तो कहीं भी भाग कर की जा सकती है । महीने भर बाहर रहेंगे तो बाद में सभी मान जायेंगे । मैंने अधिक ज़ोर दिया कि मेरे पापा से एक बार मिल कर तो देख लो, तो जानती है उस ने क्या कहा?”
“क्या कहा?”
“ऐसा करो, तुम शादी उधर कर लो तुम्हें लाइसेंस मिल जायेगा । मुझ से प्रेमिका के रूप में तुम मेरे फ़्लैट में मिलने आती रहना। ” कहते हुए वह सिसक उठी थी ।
उस दिन उस ने अपने दुख को ज़ब्त कर के अपने को बहुत मुश्किल से संभाला था ।
उस की बेचैन सूरत को देख कर लड़के वालों ने यही समझा था कि वह इस अवसर पर घबरा रही है ।
जो बाल उस दिन खुल कर लहराये थे, वे आज अचानक मिली नूपुर ,इस रेस्टोरेंट में सामने बैठी पाइन एपल के ज्यूस को गिलास से सिप करती नूपुर के चेहरे पर आस पास फहरा कर उसे और भी ग्लैमरस बना रहे हैं।
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- नीलम कुलश्रेष्ठ