[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]
मैं क्या बदल गई हूँ ? ऊँह, अभी तो नहीं । अभी तो सिर्फ़ पहले जैसे आदर्श विचार ही धसकती हुई मिट्टी की तरह फिसल गये हैं । इन क्षणों में मैं बहुत अस्त-व्यस्त सा महसूस करती हूँ, जब मैं स्वयं को ढूँढ़ना चाहती हूँ, टटोलना चाहती हूँ । अपने को पहचानने की कोशिश के समय भी हम केवल अपनी इच्छाओं का 'सलेक्टिव ऑब्ज़र्वेशन' कर पाते हैं, अपनी कमियों के आगे सबसे अधिक हमारा ही सिर झुकता है, यही भय उन्हें मन में यत्न से पर्दों में छिपा कर रखता है ।
मुझे शुरू से ही ऐसे लोग पसंद हैं जो धर्म आदर्श, सत्य इन सब बातों को अपनी फूंक से उड़ाकर रखते हैं, उस तरह जीते हैं जैसे वह स्वयं चाहते हैं लेकिन फिर भी मैं स्वयं ऐसा नहीं कर पाती निहायत दब्बूपन या अपने संस्कारों के कारण?---ये सब युवा मन की भटकन है वरना मुझे सच ही आदर्शों से, जीवन अनुशासन से, परिवार से दीवानगी की हद तक प्यार है
“अपनी किसी फ़्रेंड के प्रैक्टिकल में नम्बर तो नहीं बढ़वाने हैं !” उन रिश्तेदार ने लगभग आज से तीन वर्ष पूछा था । हमारेकॉलेज में ‘साइकोलोजी’ के एक्सटर्नल बन कर आये थे ।
मैं दम साधे उन्हें देखती रह गई थी । उनका ‘मॉरल’ कहाँ था ? या इस नाम की वस्तु दुनिया में ही नहीं है । एक तीव्र घृणा हो आई थी उनके अस्तित्व पर ।
मैं कल गुस्से से काँपती ‘हैड’ के कमरे से बाहर निकली थी ।कॉलेज--पत्रिका के सम्पादक के लिये उन्होंने एक नेता टाइप लड़के का चुनाव कर लिया था जो साहित्य के विषय में कुछ भी नहीं जानता । सोर्स लगाना चाहती तो मैं भी लगा सकती थी लेकिन स्वाभिमान और संस्कार आगे आ गये थे । जीवन की बुनियाद कॉलेज में ही पड़ती है- इस तरह की बातों को अक्सर पढ़ा है और सुना था लेकिन कल महसूस भी कर लिया । कॉलेज छोड़ने के आखिरी साल में विरासत में लेकर जाऊँगी--समाज के भ्रष्टाचार की बुनियाद कॉलेज में ही पड़ती है ।
नौकरी के लिये प्रार्थनापत्र दूँगी तो उससे पहले भी एक सोर्स ढूँढ़ूँगी.....नहीं, नहीं मुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिये । ऐसे विचार आने पर मैं बहुत कमज़ोर हो उठती हूँ, जानते हुये भी आज की दुनिया में जो जितना व्यवहारिक है वह उतना ही सुखी है । आदर्शों पर टिके हुये कितने लोग चैन से रोटी खा पाते हैं ? मैं क्या चाहती हूँ ? मैं स्वयं नहीं जानती । कौन सा रास्ता अपनाऊँ ?... ... समझ में नहीं आता ।
शायद आज मैं अधिक ही 'सेन्टीमेन्टल' हो रही हूँ । अब तो मैं अपने आप को उस पर छोड़ दूँगी । वह भी आम ‘फ़ियांसी’ की तरह लम्बे और भावपूर्ण पत्र लिखता है ‘डीयर अनु ! मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता ।’ उन थोड़े से दिखने दिखाने के उन्माद के क्षणों में उसके बारे में जाना भी क्या जा सकता था । उस समय तो हर बात स्वप्निल सी लग रही थी । तभी तो ‘अरेन्ज्ड मैरिज’ मुझे ऐसी लगती है जैसे दो लोगों को घेर कर उन्हें एक घर में बंद कर दिया जाये, “बेट्टा ! दुनियां में गिनती बढ़ाओ !”
इतना तो मैंने अक्सर चाहा है वह इतना अधिक कमांडिंग पर्सनालिटी वाला हो तो इस तरह के बेहूदा विचारों को मेरे मस्तिष्क से खींचकर बाहर फेंक दे और मैं निश्चिंतता से उसके सहारे टिकी दूऽऽऽर तक चलती चली जाऊँ।
स्थिति एकः
ड्रॉइंग रूम से आती हुई आवाज़ें धीमी व धीमी होती जा रही हैं । वह अपना ध्यान बुनाई में लगा रही है । किन्तु पता नहीं किस तरह आँखें फन्दों के जाल में फँसी हुई भी ड्राइंग रूम के पर्दे को भेदने की कोशिश कर रही है । इस चक्कर में कई बार उल्टा भी बुन गई है । उसे उधेड़ कर दुबारा बुनना पड़ा है । मन की दबी-दबी उत्तेजना के बीच जिसमें दोनों तरह के परिणामों की आकाँक्षा रहती है और दोनों मे से कोई भी स्थिति ग्राह की जा सकती है ।
वह तेज़ी से पर्दा हटाता हुआ कमरे के अन्दर आता है । वह आँखों से कुछ पूछती है । मुस्करा कर बाँयी आँख दबाते हुये, फुसफुसाते से स्वर में कहता है, “मूंजी फँस गया है । चाय भिजवा दो, जरा वज़नदार । और हाँ, तुम ही ‘सर्व’ करने आना ।”
एक पुलक सी उठती है, ‘रियली,’ ‘कांग्रचलेशन्स’ करते हुये उसका हाथ दबा देती है, “लेकिन कितने में?”
“दिस इज़ ट्रेड सीक्रेट ।” वह शरारत से मुस्कराता चला जाता है ।
वह तेज़ी से उठती है । श्यामसिंह से चाय के लिये कह कर स्टोर से नाश्ता निकालने चली जाती है । जब गुप्ता आया था तो बहुत भरा हुआ आया था। गुस्से में जाने बाहर क्या क्या बक रहा था । वह अंदर बैठी काँप रही थी हालाँकि वह इन सब स्थितियों से गुज़र चुकी है । लेकिन उसने भी गुप्ता को ड्राइंगरूम में बिठाकर एक चतुर आदमी की तरह ‘हैन्डिल’ कर लिया ।
पहले वह उसकी इस ‘हैन्डिल’ करने वाली आदत से बहुत परेशान व किसी हद तक आहत भी हुई थी । उसने कहा भी था, “मैं यह सब पसंद नहीं करती, नंबर दो के पैसे से मिली हुई सुविधाओं का मेरे लिये कोई मूल्य नहीं है।”
उसने भी बहुत सादगी भरा उत्तर दिया था, “अनु ! ठीक है, जैसा तुम समझो ।” उसके उत्तर पर वह आश्चर्य कर उठी थी इतना बदल गया वह ।
एक दिन पता नहीं किस मूड में उसने कहा था, “अब तो हमें फ्रिज ले लेना चाहिये ।”
“तुम्हारा हुकुम हो अनु! हम न माने ।” उसने उसके प्रस्ताव को तुरन्त ही स्वीकार कर लिया था ।
दुकान पर जब उसने एक गड्डी नोट निकाले तो उसके दिल में कुछ उथल-पुथल हुआ। कुछ सोचकर जूड़े के नीचे गरदन पर पसीना चुहचुहा आया । उसने शंका भरी आँखों से उसे देखा लेकिन वह जान बूझ कर नज़रें चुरा गया । मन हुआ कि दुकान से एक क्षण में ही वापिस लौट जाये लेकिन पहली बार महसूस हुआ कि ‘फ्रिज’ का सफ़ेद रंग सात रंगों से मिलकर बना है जिसमें उसके दिल का रंग भी घुलमिल गया है । और उसने काँपते पसीजे हुए हाथ फ्रिज के ‘कैशमेमो’ पर रख दिये थे ।
और उसके बाद तो कभी न ख़त्म होने वाला नंबर दो की कमाई का एक सिलसिला शुरू हो गया घर में बढ़ती सामान की लिस्ट के साथ ।
इन सब चीज़ों के साथ वह मिसेज चावला जैसी स्त्रियों के बीच भी सम्मान पा सकी थी जो कि पार्टी में उसे देखकर फुसफुसाया करती थी, “क्या पुअर स्टैन्डर्ड है ।”
“अनु तुम भीफिलॉसफ़र हो. आदमी को जीने के लिये सभी कुछ करना होता है । जो लोग अपने जीवन में कुछ प्राप्त नहीं कर पाते वे ही इन ढकोसलों का नाम ‘आदर्श’ रख देते हैं ।”
पहले इन सब बातों से विरक्त हो उठती थी लेकिन अब फिर भी बहुत कुछ विश्वास करने लगी है ।
आजकल वह बहुत परेशान है- अधूरा खाना, सोते समय बीच में हड़बड़ा कर उठ जाना, पलंग पर लेटे-लेटे छत को टकटकी बांधे देखते रहना । बात करने हुए भी कहीं खो सा जाता है । उसके बहुत पूछने पर उसने बताया था,“ साला गुप्ता धोखा दे गया । उसने बॉस से शिकायत कर दी है । वह तो मुझसे पहले ही खार खाये बैठा है । अगर वह ‘एक्शन’ ले ले तो मैं कहीं का न रहूँगा, लेकिन वह एक समझौते के इन्तज़ार में है ।''
उसकी बात सुनकर वह भी चिन्तित हो उठी है, '' कैसे समझौते के इंतज़ार में ?''
''मैं कुछ कहूंगा तो तुम बुरा मान जाओगी। ''उसने और भी कातर दृष्टि से उससे कहा।
उसने अपने हाथों में उसका चेहरा भर लिया,''मुझे नहीं बताओगे तो किसे अपनी मजबूरी बताओगे ?''
''बॉस ने तुम्हें एनुअल मीट में देखा था,तबसे तुम पर फ़िदा है। ही इज़ अ वूमेनाइज़र। यदि तुम उसके पास ---. ''
क्रोध से जलती आँखों से उसने उसे परे धकेल दिया और चीखी,''हाऊ टु डेयर मी टु से सच अ वलगर थिंग ? ''
''आई एम सॉरी, मैं अपनी तबाही का सोचकर पागल हुआ जा रहा हूँ। ''। एक भय सा मन में झुका रहता है । समझ नहीं पाती उसे किस तरह सांत्वना दे । हकबकायी सी सारे घर के सामान को उलट-पुलट करती रहती है । थरथराहट में बहुत सी क्रॉकरी तोड़ चुकी है ।
आखिर वह स्थिति आ ही गई जिसका संकेत बहुत पहले ही कर चुका था । वह अपमानित होकर सन्न खड़ी रह गयी थी, तब वह उसे एक घंटा अपने पास बिठा कर क्या कुछ समझाता रहा था लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ था । तब वह लड़कियों की तरह बेचारगी लिये हुए उसके गले से लिपटकर रो पड़ा था, “अनु, मेरा सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ।”
'' तुम मुझे किसी को एक रिश्वत की तरह सौंपने के लिए सोच कैसे सकते हो ?''
अचनाक उसके बेचारगी ख़त्म हो गई है।उसकी ऑंखें क्रोध से लाल हो गईं हैं,''तुम मेरी अर्धांगिनी हो,मेरा लाया नंबर दो का पैसा रखतीं रहीं तो मैं क्यों बर्बाद हो जाऊं ?मेरे बच्चों का क्या होगा। ''
उसने उसकी कलाई पकड़ी और बाहर के दरवाज़े की तरफ़ ले गया,'' निर्णय तुम्हें लेना है या तो इस घर से विदा हो जाओ या मेरी बात मानो --डिस इज़ माई ऑर्डर। ''
उसे लगा कि सारी पृथ्वी घूम रही है,उसका दिमाग़ हिचकोले ले रहा है। वह जीवित है या नहीं ?वह क्यों ड्रेसिंग टेबल के सामने तैयार क्यों हो रही है ?---अपने शरीर को घसीटती कार की आगे वाली सीट पर उसकी बगल में बैठ गई है?
---कार रात में लगभग सुनसान सड़क पर चलती बढ़ी जा रही है। कार बॉस के बंगले के सामने रुकती है तो उसे झटका लगता है। कार से उतरकर उसके कदम उसके नहीं उठ रहे। पति उसे उसकी कलाई पकड़कर घसीटता सा ले चला है उस बंगले के बड़े गेट के पार.
वह जैसे होश में नहीं है । सामने के बंद दरवाजे को यंत्रवत,भौंचक देख रही है, कितना कुछ थोड़े से समय में बदल सकता है किसी अविश्वसनीय हद तक । अपने को समेटने की कोशिश कर रही है, इस कोशिश में सारा बदन कांपने लगता है । अपनी इस थरथराहट में ही उस कमरे की तरफ पैर बढ़ाती है लेकिन एक झटके से पलट कर करूण सिसकियों के साथ उसके गले से लिपट जाती है, “प्लीज, नहीं ।”
वह उसे कसकर उसकी पीठ पर हाथ फेरता हुआ कहता है, “टेक इट इज़ी अनु डीयर !”
स्थिति दोः
वे बहुत ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी हैं उन लोगों में से एक जिन्हें हर उम्र के व्यक्ति पसंद करते हैं। उसे भी उन्होंने शादी के पहले दिन से ही कुछ इस तरह अपने आकर्षणपाश में बाँधा था जिससे निकलने की वह सोच भी नहीं सकती । उसने अपने जीवन में मिले इस बड़े हिस्से पर गर्व करते हुये उनसे कहा था, “आप जैसे लोगों से मुझे बहुत ईर्ष्या होती है जो कि बिना हाथ पैर हिलाये दूसरे को आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं ।”
“अनु ! तुम भी तो कम सुन्दर नहीं।” वह जानती है उन्होंने उसे दिलासा दिया था । सौन्दर्य से हटकर कुछ और भी होता है जिसकी कशिश सिर्फ़ महसूस की जा सकती है । परिभाषा शायद ही कोई दे सके ।
“अरे ! तुम इतना अच्छा गाती हो ।” तीन वर्ष पूर्व उन्होंने बाथरूम से आती उसकी गुनगुनाती हुई आवाज़ को सुनकर कहा था .
जैसे ही वह बाहर आई तो बोले थे, “आवाज़ तो बहुत अच्छी है लेकिन कुछ गहराई नहीं है। ” वे हमेशा बहुत सफ़ाई के साथ किसी बात को बीनकर फ़ौरन ही उसका विश्लेषण शुरू कर देते हैं ।
उसने तुनककर कहा था,''क्या मैं प्रोफ़ेशनल सिंगर हूँ ?''
“तुम बन तो सकती हो। इस आवाज़ का कुछ उपयोग तो होना चाहिये ।” वे कुछ सोचते हुये बोले थे । “क्यों न तुम किसी अच्छे संगीत विद्यालय में दाखिला ले लो ।”
“ न बाबा न ! यह उम्र संगीत विद्यालय में जाने की नहीं है ।”
“कैसी बातें करती हो ? कुछ सीखने के लिये कोई भी उम्र बड़ी नहीं होती ।” वे अपनी तरह नियमित, जिज्ञासू और अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने वाले व्यक्तित्व का प्रतिरूप उसमें देखना चाहते थे ।
उन्होंने संगीतिका सुर विद्यालय में उसे दाखिला दिला दिया था,''तुम नौकरी नहीं करना चाहतीं तो मेरे ऑफ़िस जाने के बाद संगीत तो सीख सकती हो। ''
पहले तो उसे बहुत आलस आया था। उनके ऑफ़िस जाने के बाद अलसाये हुये अख़बार पढ़कर आराम से नहाना,देर तक फ़ोन पर सहेलियों से गप्पें मारना --कहाँ सितार बजाते संगीत गुरु जी के साथ अलाप लगाना,सुर ताल साधना। धीरे धीरे वह सुरों ने उसे जकड़ना शुरू किया। एक महीने बाद ही उसे लगना लगा कि सातों सुर उसकी आत्मा में बिंध गए हैं। वे वहीं से निकलकर उसके कंठ से सरसराते बाहर मधुर तान छेड़ देते हैं। पहली बार ही उसकी मंच प्रस्तुति ने अख़बार की सुर्ख़ियों में जगह बना ली थी।
संगीत के जाने कितने आरोहों और अवरोहों में डूबती उतरती आज इस स्थान तक पहुँची हैं । अपनी इस प्रगति पर वह स्वयं भी सहज विश्वास नहीं कर पाती ।
शादी से पहले वह राधा आंटी की बातेँ सुनकर,डरकर सोचती थी कि क्या उसका भी राधा आन्टी की तरह औरतीकरण हो जायेगा ? राधा आन्टी-जिनकी बातों का विषय खाना, घर से हटता ही नहीं था । इन्हीं बी ए पास आंटी ने एक बार अचरज से पूछा था,''अनु फ़्रेंच क्या होता है ?''
तब उसे लगा था कि वे ये भी नहीं जानतीं कि फ़्रांस की भाषा को फ़्रेंच कहतें हैं तो उनकी डिग्री फाड़ देनी चाहिए।
अपनी शादी के बाद उसने यह बदलाव महसूस भी किया था । वियतनाम में अमरीका की राजनीति क्या रंग ला रही है, सोचने वाली अनु बाजार में चावल-दाल के भावों के उतार-चढ़ाव में गुम होती जा रही थी । उस दिन सुबह उसने रोज़ की आदत की तरह उनसे पूछा था, “आज लंच में क्या बनाऊँ?”
“तुम औरतें खाने से हटकर कुछ सोच ही नहीं सकतीं । खाने से हटकर दुनियाँ में और भी बहुत कुछ है । क्या फ़र्क पड़ जायेगा यदि दोपहर दाल की जगह सब्ज़ी खा ली या कुछ और खा लिया ?”
उस समय बेवक्त की डाँट पर वह तिलमिला कर रो पड़ी थी लेकिन उनके ऑफ़िस चले जाने पर किसी हद तक आश्वस्त थी ।
संगीत साधना करके अब करते हुए उसे लग रहा है कि पुरानी अनु धीरे धीरे लौट रही है, ग्रहणी 'के ककून से निकल आएगी जो रसोई के कामों को करते हुए भी दुनियां जहान की बातों में रूचि लेती थी,उन पर चर्चा कर सकती थी। क्लास के बाद वहां के संगी साथियों से हर विषय पर चर्चा होती रहती
आज वह बहुत ख़ुश है, गुनगुनाते हुये सारे घर में सामान को उलट-पुलट कर रही है । अपनी सारी पेंटिंग बक्स में से निकाल कर देखीं हैं,पुरानी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं की प्रतियों को सरसरी निगाह से देखा है, ड्राइँगरूम में सजी स्वयं की बनाई गई कलात्मक वस्तुओं को निहार कर अपने अस्तित्व की एक एक परत फिर से उसे महसूस किया है ।
वे शाम को ऑफ़िस से आकर उसे रेडियो स्टेशन ले जायेंगे जहाँ आज उसका पहला इंटर्व्यू प्रसारित होगा, उसकी संगीत की उपलब्धियों पर । उसने सोच लिया है वह अपने विषय में शुरूआत कुछ इस तरह करेगी, “मैं आज जो कुछ हूँ सिर्फ़ अपने पति के कारण हूँ .....।”
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- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ