नीलम कुलश्रेष्ठ
" हूँ-------हूँ ----हूँम ----हूँम ----हूँ---. "
वह बाल बिखराये सफ़ेद धोती में झूम रही थी, उसके मुँह से अजीब अजीब आवाज़े निकल रहीं थी. उसके घुँघराले बाल हवा में लहरा रहे थे. उसके माथे पर लगे चंदन के टीके के बीच सिंदूर की लाल बिन्दी में लगी सुन्हरी बिंदी देवी के आगे रक्खे देशी घी की ज्योत में चमक रही थी. अगरबत्ती व धूपबत्ती के धुंये से गमकते कमरे में चौड़ा काजल लगी उसकी बड़ी बड़ी आँखें और भी रहस्यमय हो उठती थी जब वह घर के बाहर कमरे में माता की चौकी बिठती थी.
कमरे के बीचों बीच लाल पीली गोटे लगे कपड़ों के छोटे से शामियाने से सजे मंदिर
के बीच में लाल जीभ लपलपाती काली की मूर्ति है. आस पास जगदंबा, पावागढ़ वाली काली देव की तस्वीरे हैं एक भाई जात्रा पर गया था तो वैष्णो देवी की तसवीर भी ले आया था. इतनी सारी देवियो से घिरी वह स्वयं नहीं जानती कि वह कौन सी देवी की उपासिका है ?
वह फिर भी नारा लगाती है सबसे पहले गुजरात की छोटे से पहाड़ पर बसी देवी का, जिसमें काली माँ के मंदिर के ऊपर मजार है, कहते हैं इसीलिये वो मुसलमान बादशाह उसे तोड़ नहीं पाया था "जय पावागढ़ वाली ----हूँ ----हूँ ----हूँ म --हूँ म ---. "
उसकी देह झूमकर थरथरा रही है. वह आँखें नहीं खोलना चाह रही है लेकिन किन्हीं आँखो की तपन से जैसे उसकी पलकें जल रहीं है. वह आँख की झिरी से देखती है, वह ढीठ उसे अपलक घूरे जा रहा है. जब वह आँखें खोलती है तो वह उसे देख कर मुस्करा देता है. वह पिछले महीने से उसे अनदेखा करना चाहती है, लेकिन हर बैठक में कमरे के कोने में उसकी उपस्थिति उसका दिल महसूस करता रह्ता है.
देवी की बैठक में भक्त उसके पास अपने अपनी समस्यायें लेकर आते रहते हैं. वह उन्हें पूजा पाठ, दान पुन्य बताती है. हर भक्त इस बैठक में कभी मिठाई, फल, रुपये या साड़ी तक देवी माँ के चरणों में चढ़ाकर जाता है जबकि वह ख़ुद आज तक नहीं समझ पाए कि किस देवी का सत उसकी जीभ पर आ बैठा है. वह बैठक में झूमती लोगों की समस्यायों का हल बताती है, "अपने घर के मन्दिर में घरवालों से छिपाकर ग्यारह रुपये रक्खो. " कभी कहती है, "अपने घर के पास वाले पीपल पर सुबह चार बजे एक लौटा दूध चदाओ. "या "अपने घर साधु को भोजन कराओ. "या "अपने बाल की दो लटें काटकर ज़मीन में गाड़ दो `. अकसर उसे याद नहीं रहता कि किसको उसने क्या उपाय बताया है, तो वह चालाकी से भक्त से ही उगलवा कर कुछ सुझाव देती है.
वह जो भी भक्तों से कहती है, उसमें थोड़ा बहुत सच हो भी जाता है, एक बार में नहीं तो भक्त के तीन चार बार आने से कुछ समस्या हल हो जाती है. जिनकी नहीं होती उन्हें वह बड़ी भाभी की सिखाई चालाकी से भक्त पर इल्ज़ाम डाल देती है कि उसी ने देवी के बताये उपाय को सही विधि से नहीं किया. यदि कोई लड़ने पर उतारू हो जाये तो दोनों भाई दादागिरी दिखाते हुए उसे धमकाते हैं, " तेरी ही पूजा में खोट है. यदि यहाँ दादागिरी की तो देवी उल्टा चक्र चलाकर तेरा और बुरा कर देगी, भाग यहा से. "
भक्त बिचारा घबरा कर चल देता है.
वह कोने मे बैठने वाला भक्त ऎसा है कि अपनी कभी कोई समस्या नहीं बताता. एक दिन जब बैठक के बाद सारा कमरा खाली हो गया तो वह अपनी जगह ही बैठा ही रहा. वह स्वयं अपने आसान से उठकर उसके पास आयी. उसके पास आते ही वह उस पर नजरें गढ़ाते हुए मुस्करा उठा. उसने अपनी हड़बड़ाहट छिपाई और बोली, "जब आपकी कोई समस्या नहीं है तो यहां क्यों आते हो ?"
" मैं तो सिर्फ़ देवी के दर्शन करने आता हूँ. "वह ढीठ हाथ जोड़कर कहने लगा.
उसने जानबूझकर अपने साड़ी का आँचल अपना थोड़ा शरीर हिलाकर गिरा दिया और बोली, "अब करो तुम देवी के दर्शन. "आँचल के हटते ही कोहनियों तक कटे उसके दोनों हाथ दिखाई देने लगे.
हाथों की जगह दो ठूँठ देखकर भी वह विचलित नहीं हुआ, "देवी के इस रुप का मुझे पता है. "
वह क्रोध में झनझना गई, " जब पता है तो तुम क्या चाहते हो ?ये कोई समय गुजारने की जगह है ? जब कोई समस्या हो तभी आना. ` `
`समस्या तो है लेकिन बहुत निजी है ---कभी आपको बताऊँगा. "
वह क्रोध में और कुछ कहती कि बड़े भइया आ गए, "कपिला !कितना चढ़ावा आया है ?"वह सोच रहे थे कि कमरा खाली होगा लेकिन वहा एक अजनबी को देखकर थोड़ा झेंप गए. वह युवक भाई को प्रणाम करता खिसक लिया. बड़े भइया व्यग्र हो देवी के चढ़ावे पर टूट पड़े. उन्होंने देवी के सामने बिछाये लाल कपड़े पर से चावल, रोली, सुपारी, व धूपबत्ती की राख को अलग कर एक तरफ ढेरी बना ली. दूसरी तरफ सिक्कों व रुपयों की. अभी वह पैसों को गिनकर चुपचाप दो सौ के नोट अपनी जेब में डालने की कोशिश कर ही रहे थे कि कमरे में तेज़ी से छोटी भाभी आ गई थी, "भाईसाहब! इतनी जल्दी क्या है हाथ मारने की ? हमे भी तो मौका दीजिये. "
भाई साहब ने झेंपकर वे नोट उस ढेरी में मिला दिए. वे दोंनों दो बिल्लियों की तरह बँटवारा करने बैठ गए. वह खीजती सी अंदर चल दी. इस देवी शो [उसने देवी की बैठक को यए नाम दिया है ] के बाद सच ही वह ऐसी थक जाती है जैसे उसे चाबुक मार मार कर ज़बर्दस्ती दौड़ाया जा गया हो. वह दौड़ना नहीं चाहती, हांफ कर रुक जाती है तो उस पर चाबुक और ज़ोर से पड़ता है, फिर उसे तेज़ दौड़ना ही पड़ता है. दौड़ समाप्त होते ही उसका एक एक जोड़ दुखने लगता है. अपनी चारपाई पर गिर कर सोने की कोशिश करती है तो देवी की बैठक में हाथ जोड़े भोले भाले वो गरीब चेहरे उसकी आँखों में बसे रहते हैं जिन्हें वह धोखा देती रह्ती है. वह इस बस्ती में ही नहीं दूर दूर के बस्तियों में मशहूँ र हो गई है. वह अच्छी तरह समझती है कि जो चढ़ावा कोई भी व्यक्ति चढ़ाता है वह उसके सामर्थ की बात नहीं है. इसके लिए उसके बच्चों को अधपेट सोना पड़ता होगा. क्यों शुरू की उसने ये देवी की बैठक ?
उसके पिताजी ने तो उसे अपनी सशक्त बाँहों में उस हादसे के बाद संभाल लिया था व उसकी पड़ाई लिखाई पर ध्यान देते थे. शिक्षा बोर्ड भी ऎसे लिखने वालों के लिये परीक्षा में एक लिखने वाला देता है. दसवीं की उसने परीक्षा ही दी थी कि वे चल बसे थे. वह बाहे के कमरे में एक छोटा सा मन्दिर बनाकर पूजा पाठ में मन लगाकर अपने रिज़ल्ट का इंतज़ार करती. घंटों ध्यानमग्न रहती. एक नवरात्रि की अष्ठमी को जैसे ही उसने आँखें खोली देखा पड़ोस की ज्योति ताई उसके सामने हाथ जोड़े बैठीं है.
"आप ?"
"हाँ, तू पूजा के समय साक्षात देवी का रुप लग रही थी. बड़कू का एक महीने से बुखार नहीं टूट रहा, बता कब टूटेगा ?"
उसे शरारत सूझी, "आज शाम तक बुखार टूट जायेगा. "
रात में सच ही ताई एक प्लेट में लड्डू लेकर आ गई और उसके हाथ में देते हुए बोली. `हे देवी !प्रसाद ग्रहण करो. तुमने मेरे बेटे को ठीक कर दिया है. "
वह अचकचा गई और छोटी भाभी हँसते हँसते लौट पोट हो गई, "वाह री देवी !क्या परताप है तुम्हारा. "
चौथे दिन उसकी पूजा के समय ताई अपनी पड़ौसिन को ले आयी थीं. वह हाथ जोड़कर बोली, "मेरे पति का धंधा बहुत मन्दा चल रहा है. मेरे तीन छोटे छोटे बच्चे हैं, कैसे गुजर होगी मइया ?"
" मैं क्या जानू ?"उसे उनके विश्वास को देखकर आश्चर्य हो रहा था.
वह उसके पैरों पर गिर गई, "माँ !मेरा घर बचा लो. "
उसने जान छुड़ाने के लिये कह दिया, "तीन दिन में उनका धंधा ज़ोर पकड़ लेगा. "
"जय देवी तेरी जय हो. "जयकारा करती वे चली गई थी.
दस दिन बाद उस औरत ने एक फल का टोकरा लाकर उसके चरणों में रख दिया था. वह घबराकर खड़ी हो गई, "ये -----ये ---आप क्या कर रही है ?आप तो मुझसे बड़ी हैं. "
"छ; महीने से मेरे पति का धन्धा मन्दा चल रहा था. इन तीन दिन में ही उन्हें दस गुना मुनाफ़ा हो गया है. "
"मैंने कुछ नहीं किया, ये तो भगवान की दया है. "
"ना बेटी !तेरी जीभ पर देवी का वास है. तेरे चेहरे के तेज़ को देख मैं समझ गई हूँ. कल मैं अपनी सहेली को लेकर आउंगी. उसका पति बहुत बीमार रहता है "
दो तीन बार और उसकी बातें सच निकल गई. तभी उसका दसवीं का रिज़ल्ट भी आ गया. वह कॉलेज में दाखिला लेने के लिये बड़े भाई के पास रुपये लेने गई. उसने देखा दोनों भाई व भाभी एक साथ बैठे हैं धीमे स्वर में कुछ मंत्रणा कर रहे थे. बड़े भाई से जब उसने पैसे माँगें तो वे बोले, `पढ़ाई में रक्खा ही क्या है ?अब से तुम मंगलवार व शनिवार देवी की बैठक किया करना. बिना पढ़े रुपयों का अम्बार लग जायेगा. `
वह चौंक गई, "आप तो जानते हैं मैं देवी नहीं हूँ. वह तो तुक्के से मेरी बातें सच हो रही है. "
छोटा भाई बोला, "अब से तू अपने को देवी समझ. बाकी कुछ उलटा सीधा हुआ तो हम बैठे हैं सम्भालने के लिये. `
उसने दृढ़ता से कहा, " मैं लोगो को बेवकूफ़ नहीं बनाऊंगी. मैं आगे पढूंगी. "
बड़ी भाभी ने घुड़क दिया, " भाइयों से ज़बान चलाती है ?जो कह रहे है, तुझे करना पड़ेगा. "
आते सोमवार को भाइयों ने सारी बस्ती में बच्चों से अफ़वाह फैलवा दी कि कपिला को सपने में देवी ने दर्शन दिए हैं कि वह मंगलवार व शनिवार को उसके ऊपर सिद्ध होकर लोगो के दुःख दर्द समाप्त करेगी. पहली बैठक के लिये उसे भाभियों ने सफ़ेद धोती पहनाकर तैयार किया. वो बाहर के कमरे में बीस बाईस लोगो को देखकर कांप कर वापिस जाने को मुड़ी लेकिन उससे सटी भाभियों ने घुड़की दी, "जाओ जल्दी से आसान पर बैठो. "
तीन चार बैठकों के बाद छोटी ने ही सुझाया, "बिना नौटंकी की बैठक बेकार लगती है. कपिला !देवी होने की कुछ तो नौटंकी कर. बाल खोलकर झूमने का नाटक कर. गरबा में नहीं देखा कैसे कुछ औरतें देवी आने पर झूमती फिरती है. "
"मुझसे ये सब नहीं होगा. "
बड़ी भाभी हाथ नचाकर बोली थी "कैसे नहीं होगा ? अपनी कटी बाँहें नहीं देखी ?तू हमारा अहसान मान कि एक धन्धा तुझे बता दिया है. "
छोटी मतलब की बात पर आ गई थी, "दो चार पैसे हमे भी मिल जायेंगे. वैसे भी अपने देश में लूले लंगडे साधुओं के बहुत मान्यता है. "
कितना विरोध किया था उसने भाइयों के सामने, कितनी खुशामद की थी उसके हाथ नहीं कटे होते तो वह हाथ जोड़कर गिडगिडा उठती. "मुझसे ये नाटक नहीं होता. "
"नाटक कौन करता है ?देखती नहीं है कि देवी तेरी जीभ पर वास करने आ जाती है. "
"कोई देवी नहीं आती. यदि वह आती तो सबसे पहले मेरे हाथ ठीक करती. मेरे मुँह से जो निकल जाता है, मैं बोल देती हूँ. "
"और वह सच हो जाता है. उससे लोगों का भला ही होता है. "
"क्या तुम्हे पता नहीं है कि इन गरीबों को धोखा देकर हम रुपया निकलवा रहे हैं. "
"अपने को इससे क्या ? हम उनके घर तो नहीं जाते वे ही हमारी देहरी पर आते हैं. "
"आप लोग क्यों नहीं घरों में बर्तन धोने या पोंछा लगाने का कम कर लेती ?दिन भर घर में पड़ी रह्ती हो और मुझसे झूठ बुलवाती हो. "
"अगर हम दूसरो के घरों में काम करने जायेंगे तो तुझ जैसी बिना हाथ की लड़की को कोई दबोच लेगा. तू क्या बिना हाथ के व बिना इज़्ज़त की होना चाहती है ?"बड़ी भाभी ने अपना पुराना हथियार चलाया था.
छोटी ने ज़िद में आकर उस दिन उस्के माथे पर चंदन व सिन्दूर का टीका लगाकर, आँखों में चौडा काजल लगाकर तैयार किया था.
उसका मन होता था उसी रेल की पटरी पर अपना सिर पटक कर अपने जान दे दे जिसके कारण उसके ये हालत हुई है. चारपाई पर पड़े पड़े वह कब सो गई उसे पता नहीं चला.
उसे घूरता वह भक्त बैठक में आना नहीं छोड़ रहा. वह एक दिन रेलवे अस्पताल के काउंटर पर खड़ी दवाई ले रही है. बड़ी असमंजस की स्थिति में है किससे कहे कि ये दवाईयाँ उसके थैले में डाल दे क्योंकि इस लाइन में कोई भी स्त्री नहीं है. तभी कोई हाथ उसकी दवाई की शीशियाँ व गोलियां काउंटर से उठाकर उसके कन्धे पर टँगें थैले में डाल देता है. वह दृष्टि उठाती है, सामने बैठक वाला युवक मुस्करा रहा है.
उसने धीरे से कहा, "चलो मैं तुम्हे घर छोड़ देता हूँ. "
"धन्यवाद, मुझे अकेले चलने की आदत है. "
` `एक दिन में आदत खराब नहीं हो जायेगी. "
वह चल दी, वह भी उसका थैला उसके कन्धे से उतार साथ चल दिया, "कपिला जी !मुझे पूछना नहीं चाहिये था लेकिन फिर भी पूछ रहा हूँ. कि तुम्हारे हाथ कैसे कटे?"
"मेरे पिताजी रेलवे में चपरासी थे. मैं बचपन में कॉलोनी में और बच्चों के साथ खेल रही थी भागते भागते रेलवे लाइन पर निकल गई. "
"फिर ?"
"जैस ही पॉइंट्स मैं न ने लीवर खींचा मेरा पैर दो पटरियों के बीच फँस गया, मैं गिर गई. एक शंटिंग करता इंजिन मेरे हाथों पर से धड़ धड़ करता से निकल गया. मैं बेहोश हो गई थी. . जब होश आया तो मेरे हाथ ----". उसने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया, वह सिसक पड़ी. उस युवक ने अपनी बाँह से उसे घेर लिया, "रोने से क्या होगा ?ये सोचो तुम कितने लोगों को सुखी बना रही हो. मेरा नाम नीलेश है, मैं एक प्राइवेट कम्पनी में क्लर्क हूँ. ".
उसका घर आते ही नीलेश ने उसका थैला उसके कन्धे पर टाँग दिया और कहा, "किसी काम के ज़रूरत हो तो बताना. "
` `आप देवी की बैठक में नहीं आया करिये. `
" क्यों ?देवी का दरबार तो सबके लिए खुला होता है. तुम क्यों मुझे रोकना चाह्ती हो?"
"बस ऎसे ही, "वह उससे नज़रें नहीं मिला पाई.
शनिवार की बैठक में नीलेश उसी स्थान पर बैठा था. उसे लग रहा था वह सच ही झूम रही है, उसका पोर पोर झूम रहा है. एक एक घुँघराले बाल हवा में थिरक रहे हैं.
जब सभी भक्त चले गए तो नीलेश उसके पास आकर फुसफुसाया. "इतनी जल्दी क्यों ठीक हो गई ?फिर अस्पताल दवा लेने क्यों नहीं आई ? "
वह भी शोखी से मुसकरा दी, "कल आऊँगी, उसी समय. "
बड़ा भाई झपटता सा चला आया था. उसे देखकर नीलेश उठकर चल दिया. कपिला जान बूझकर आवाज़ देकर बोली, "देवी माँ की बैठक से खाली हाथ मत जाओ. वह दरवाज़े से वापिस आ गया. कपिला ने उसे प्रसाद व देवी के चरणों में चढ़े फूलों में से लाल गुलाब को उठाने का इशारा किया.
तब तक छोटी भाभी अपने आँचल से हाथ पोंछती आ गई, " कहीं प्रसाद के साथ उसे रुपये उठाकर तो नहीं दे दिए ?"
वह बरस उठी, " मैं इसे जानती तक नहीं तो रुपये क्यों दूँगी ?"
भाई घुर्राया, "इतने महीनो से वह आ रहा है कहीं तुमने बैंक में अलग खाता तो नहीं खुलवा लिया ?"
"तुम लोग तो मुझे चैन से जीने भी नहीं देते. "वह क्रोधित हो उठी और अन्दर चल दी. कोई और समय होता तो वह रो पड़ती लेकिन अब लग रहा था उसका मन किसी और छाँह जा बसा है, एक तान पर झूम रहा है.
"तुम बहुत सुंदर हो. "अगले दिन नीलेश ने अस्पताल से चलते हुए कहा था. यह वह भी जानती है उसने माँ जैसा गोल भरा हुआ चेहरा पाया है. काले घुँघराले बालों के बीच उसकी भावपूर्ण आँखें देखकर कोई भी उसके अंतर्मन की कोमलता को महसूस कर सकता है. वह बरबस कह उठती है, "इस सौंदर्य को तो भगवान ने खंडित कर दिया है. "
"तुम हमेशा अपनी हाथों के विषय में क्यों सोचती हो ? "
"तो क्या करूँ ?"
उसकी धीमी आवाज़ जैसे उसके कानों में उतरकर उसके शरीर में घुली जा रही है, "कौन विकलांग नहीं होता ?कोई तन का, कोई मन का, कोई दिमाग़ का, कोई अपनी आदतों का, असली सुंदरता तो मन की होती है, जो मैंने तुम में पा ली है. "
"क्या ?"वह अचरज से अपनी भोली आँखों से उसे देखती रह गई.
"अच्छा ये बताओ तुम्हे किसी कला से प्यार है ?तुम्हारे माथे की लकीरें कह रही है कि तुम्हे किसी एक कला से प्यार होना चाहिये. "
"मुझे संगीत से बहुत प्यार है. "वह अपने ज़ख्म किसी को नहीं दिखाती. नीलेश उसके ज़ख्म उधेदने में लगा हुआ था, "पप्पा ने संगीत स्कूल में संगीत सिखवाया था. "
"फिर ?"
"फुई [बुआ ] ! तुम कहाँ घूम रही हो ?"उसका भतीजा उसके सामने आकर चिल्लाया.
` क्यों क्या हुआ ?`
"तुम्हारा एक भक्त घर पर इंतज़ार कर रहा है. कोई मोटा सेठ है, शहर से बड़ा टोकरा लेकर आया है, जल्दी मेरी सायकल पर बैठकर चलो. "
नीलेश धीमे से फुसफुसाया, " ये बच्चे तुम पर ऎसे ही रौब मारते हैं ?, "
"हाँ, मैं तुम्हारे साथ थी ये बात ये घर पर जाकर कहेगा. "
अगली बैठक के बाद एकांत में नीलेश ने फिर अनुनय की, "अस्पताल कब आ रही हो ?"
`कभी नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूँ. "
वह कुछ और कह पाता कि उसका भाई लुंगी कसता हुआ आ गया, "ये मांनस यहां क्यों बातें बनाता रहता है ?"
"इसकी माँ बीमार है इसलिए कुछ पूछता रहता है. `
नीलेश के जाते ही बड़ी भाभी बड़बड़ाई, "जवान छोकरा है, इसे अपने पास मत मंडराने दे, पता नहीं क्या अनर्थ हो जाए. `
उसने उन दोनों की अनसुनी कर किसी तरह अपने आंचल में कुछ रुपये समेटने की कोशिश की. वे दोनों चिल्लाये, "ये क्या कर रही है ?"
वह उनके सामने पहली बार तन कर खड़ी हो गई, "क्या अपनी कमाई पर इतना भी मेरा हक नहीं है ?"
छोटी भाभी मुँह टेड़ा करके बोली, "भाई साहब !मुझे तो इसके रंग ढंग ठीक नहीं लग रहे. उस मूँछों वाले लड़के के साथ देवी की बैठक के बाद देर तक खुसुर पुसुर करती रहती है. "
" मैं देख् लूँगा उस लड़के को ---और हाँ, तू रुपये इधर रख. "बैठा
"नहीं रक्खूंगी, अगर मैंने देवी की बैठक छोड़ दी तो तुम्हारे सारे ठाट बाट रक्खे के रक्खे रह जायेंगे. "वह अकड़ती अन्दर चली गई.
पीछॆ भाई गुस्से से बोला, " मैं देख लूँगा उसको, हमारे घर की इज़्ज़त की तरफ़ आँख उठाकर देखा. "
वह अन्दर कमरे में क्रोधित हो उठी, "यदि तुम्हें घर की इज़्ज़त की परवाह होती तो बहिन से नौटंकी नहीं करवाते. "
उस दिन वह किसी अपनी सहेली के यहां से भजन करके लौट रही थी. नीलेश उसे आवाज़ देता साथ हो लिया, "तुम भजन बहुत सुंदर गाती हो. `
"तुम्हे कैसे पता ?"
" तुम्हारी सहेली का भाई मेरा दोस्त है. मैं उसके बाहर के कमरे में बैठा तुम्हारे भजन सुन रहा था. इतनी अच्छी आवाज़ तो रेडियों वाले अपने यहां ले लेंगें. "
"आवाज़ अच्छी होने से क्या होता है, किस्मत भी होनी चाहिये. दो साल पहले शहर की सबसे बड़ी संस्था सरगम की गीत की हरिफाई [प्रतियोगिता ] में मैं फ़र्स्ट आई थी. वह अपने खर्चे पर मुझे शास्त्रीय संगीत सिखाने को तैयार थे. मेरे रहने खाने पीने की व्यवस्था वही करने वाले थे. "
"फिर तुम गई क्यों नहीं ?"
"मेरे दोनों भाई सप्ताह में दो बार सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को अपने हाथ से कैसे निकल जाने देते ? "
"तुम्हे इस पिँजडे से घबराहट नहीं होती ?"
"होती भी है तो मैं कहाँ जाऊँ ?"
" मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ. "
"क्या ?"उस्का गला रुँध जाने से उसमें से बड़ी मुश्किल से आवाज़ निकली, "मुझसे मज़ाक मत करो. "
" मैं सच कह रहा हूँ. "
"मुझ पर तरस खाने की ज़रूरत नहीं है. "
"ऎसा नहीं है, यदि तुम मुझ से शादी करोगी तो मेरे दिल पर तरस खाओगी. "नीलेश ने उसे जिन नज़रों से देखा वह शरमा गई.
उसी रात रात का खाना खाने के बाद घर के सभी लोग टी वी. के सामने जमा हुए. वह चारपाई के एक कोने में सिमटी हुई बैठी थी. उसी चारपाई पर दो छोटे बच्चे कुश्ती लड़ रहे थे. कोई विज्ञापन आता तो सीधे बैठकर उसे देखने लगते. उसके बंद होते ही फिर भिड़ने लगते. दो बड़े बच्चे नीचे चटाई पर बैठे बड़े ध्यान से टी वी देख रहे थे. दोनों भाई लुंगी व बनियान पहने कुर्सी पर बैठे थे.
बड़ी भाभी ज़मीन पर बैठी मेथी साफ़ करते हुए अपने पति से बोली, "तुम्हे कुछ याद है या नहीं ?मनीषा को इस महीने सत्र्ह बरस पूरे हो रहे हैं. उसके ब्याह की चिन्ता करना शुरू करो. लड़का देखते देखते एक साल तो निकाल जायेगा. "
बड़े भाई गुस्सा हो गए, "ये औरत भी ना-------यही टाइम मिला था ये बात निकालने का ?"
"और कब बात करू ?सारा दिन तो तुम सेल्समैन बने घूमते हो. `
"अरे याद आया सुरेश पानवाला पूछ रहा था कि उसके लड़के के लिये कोई लड़की बताऊं. कहीं वह मनीषा के लिए इशारा तो नहीं दे रहा था "
"तो उससे बात करके देख लो. "
"ठीक है कल करूँगा. "
कपिला को मन ही मन गुस्सा आ रहा था, "अपनी बेटी की तो चिन्ता है, इन्हे मैं नहीं दिखाई देती. "उसने सोच लिया अब वह अपनी चिन्ता स्वयम करेगी.
तीसरे दिन ही उसकी बैठक थी. नीलेश जब अकेला रह गया तो उसने फुसफुसा कर कहा, " मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ. "
"शादी तो मैं आज ही कर लूँ लेकिन पाँच महीने में मेरा दो कमरों का मकान तैयार हो रहा है. मकान बनते ही मन्दिर में गुपचुप शादी कर लेंगे. माँ व बहिनों का साथ है. दो कमरे तो चाहिये वर्ना -----. "वह शरारत से मुस्करा दिया था. उसने शर्मा कर चेहरा नीचे कर लिया था.
दूसरे दिन जब वह अस्पताल में मिली तो आतुरता से बोली, "तुम शायद ये नहीं जानते कि मैं अपने पैरों से घर साफ़ कर लेती हूँ, खाना बना लेती हूँ. देवी के मन्दिर में जो रंगोली बनी होती है वह भी मैं ही बनाती हूँ . "
"क्या ? यह तो बहुत अच्छी बात है. मुझे तो तुम बहुत पसंद हो लेकिन तुम एक कलाकार हो ये नहीं पता था. मेरे दिल में कलाकारों के लिए बहुत इज़्ज़त है. शादी के बाद तुम अपनी संगीत साधना में लग जाना. मैं तुम्हारा सपना पूरा करूँगा. "
इसी इज़्ज़त को पाने के लिए वह बरसों से तड़प रही थी. नीलेश का मकान बनते ही शादी का दिन तय हो गया. ये भी तय हो गया कि वह घर से सहेली के घर जाने का बहाना बनाकर निकलेगी.
मन्दिर में नीलेश की माँ, उसकी दो बहिनों को देखकर कपिला को लगा कि वह अपनों के बीच पहुँच गई है. , वहा नीलेश के ऑफ़िस के दस पन्द्रह लोग और निमंत्रित थे.
विवाह संपन्न होते ही उसकी माँ पहले घर पहुँचकर दरवाजे पर आरती का थाल लेकर खड़ी थी. उनके टीका करने व आरती उतारने के बाद बहुत आत्मविश्वास से आलता लगे पैर से. पायल छनकाते हुए नीलेश के घर की देहरी लांघी. आस पास के स्त्रियों के जाते ही माँ ने कहा, " झुम्की ! भाभी को इनके कमरे में ले जा. बिचारी थक गई होगी. "
उसने धीरे धीरे अपने कमरे में कदम रक्खा. अन्दर से दिल एक अजीब सी उत्तेजना से काँप रहा था. झुम्की उसे एक साफ़ सुथरे बिस्तर पर बिठाकर भाग गई, "अगर मैं रुकी और आपसे बातें की तो माँ चिल्लायेगी, आप आराम करो भाभी !`
भाभी ---भाभी ----इस नए संबोधन से उसके मन के तार झँकृत हो गए. ज़रा स्थिर होते ही उसकी नज़र दाँयी तरफ़ के एक विशाल मन्दिर पर पड़ी -बीच में सजा था एक विशाल मन्दिर. उसके घर से बड़ा व भव्य. तभी नीलेश कमरे में आ गया. वह पूछ्ने लगी, "तुम भी देवी एक भक्त हो ?
"जब देवी की उपासिका से प्यार किया है तो भक्त होना ही पड़ेगा, "वह उसके पास आकर उसे बाहों में घेरकर बैठ गया, "कैसा लगा ये मन्दिर ?"
"बहुत सुंदर, "वह भाव विभोर होकर बोली.
"इस सप्ताह तो हम पावागढ़ पर हनीमून करने चलेंगे. काली माँ का आशीर्वाद ले आएंगे कि यहाँ भी तुम्हारी देवी की बैठक खूब फले फूले. "
"क्या मतलब है ?"वह चिन्हुक कर उसके बाँहों के घेरे से बाहर होना चाहा लेकिन उसने उसे और ज़ोर से जकड़ लिया. .
"चौंक क्यों रही हो ?संगीत सीखकर कौन से झंडे गाड़ लोगी ? अगले हफ़्ते सोमवार से देवी की बैठक शुरू कर देना. "
"ऎसे क्या देख रही हो ? तुम तो जानती हो मैं एक प्राइवेट कम्पनी में क्लर्क हूँ और क्लर्क की पगार ही कितनी होती है ?फिर इस मकान का हर महीने लोन चुकाना पड़ता है. दोनों बहिनों की शादी करनी है. अब तो तुम मेरी पत्नी हो. देवी की बैठक करके मेरी सहायता करना तुम्हारा फर्ज़ है. समझी ?"
वह समझ नहीं पाई नीलेश उसे समझा रहा है या घुड़की दे रहा है. उसने उन बाहों की गिरफ़्त से भागना चाहा लेकिन उसे लगा उसकी पैरों की पायल इस घर की देहरी में इतनी उलझ गई है कि वह भाग कर जायेगी कहाँ ?
नीलम कुलश्रेष्ठ