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रेगिस्तान में ओएसिस सी औरत

औरत - 6

रेगिस्तान में ओएसिस सी औरत

[ एक युवा विकलांग औरत अपने रेगिस्तानी जीवन में कोई ओएसिस अर्थात एक छोटा सा पानी का गढ्ढा, जो जीवन का प्रतीक है, खोज लेती है व स्वयं जीवन का स्पंदन या ओएसिस बन जाती है। नीलम कुलश्रेष्ठ के जीवन की प्रथम कहानी कैक्टस ! प्यासे नहीं रहो’ पढ़िए ]

नीलम कुलश्रेष्ठ

मैं व्हील चेयर ढकेलते हुए खिड़की पर आती हूँ, डूबते हुए सूरज को देखने.... तीन साल से मेरा यही क्रम बन गया है । डूबते हुए सूरज को देखकर राहत मिलती है । मैं अकेली नहीं हूँ, और भी हैं, जो डूब रहे हैं । शायद मेरी आँखों में पानी आ गया है ! ये इतनी गीली रहती हैं कि अब इनमें सिर्फ पानी आता है, आँसू नहीं ! तभी मुझे दरवाजे पर आहट सुनाई पड़ती है । मुँह घुमाकर देखती हूँ तो दरवाजे के हिलते हुए पर्दों को देखकर समझ जाती हूँ कि अभी-अभी उसके पीछे से मम्मी जल्दी से हटकर गयी हैं । आज वह फिर भूल गई होगी कि गीता डूबते हुए सूरज को देखकर हर दिन रोती है । ऐसा ही तो वह दिन था जब मुझे अपने धीरे-धीरे डूबते रहने का अहसास हुआ था । मैं और मम्मी खिड़की के पास बैठे हुए बातें कर रहे थे । मम्मी मुझे अपने कॉलेज की लड़कियों की बातें बता रही थी । बहुत मज़ा आ रहा था उन बातों को सुनकर । तभी मेरी आँखें उस धीमी रोशनी वाले सूरज की ओर उठ गई थी, जो धीरे-धीरे डूब रहा था । मेरी आवाज़ काँप कर रह गई थी- कुछ घबराहट से । उस समय मुझे लगा था मेरी आवाज़ कहीं दूर से आ रही है, मम्मी ! मेरी ज़िन्दगी भी इस सूरज की तरह डूब रही है, बिल्कुल धीरे-धीरे ! न जाने, मुझे और कितना डूबना है, पूरा डूबने के लिए....’

‘गीता ! क्या कह रही हो ? शायद तुम भूल गई हो यही सूरज कितने लोगों को सुख दे रहा है ।’ कहते-कहते मम्मी रो पड़ी थीं और तेज़ी से कमरे के बाहर निकल गई थीं । मैं वहीं बैठी निरीह देखती रह गई थी और मुझे लगा कि मेरे कमरे में रखे कैक्टस के पौधों को प्यास लगी है, ‘चलूं उन्हें पानी पिला दूँ ।’ जब तक मेरी आँखों से पानी निकलता रहा मैं कैक्टस के पौधों को पानी डालती रही । उसी समय मुझे एहसास हुआ कि कैक्टस भी कितना दुःख झेलता है, अपने छोटे शरीर पर काँटों को रखकर । मुझे कैक्टस को देखकर न जाने क्या हो जाता है, मन करता है उसके एक-एक काँटे को निकालकर उसके घावों पर पट्टी बाँधकर ‘ड्रेसिंग’ कर दूँ । जब भी किसी बात पर दिल भर आता है तो कैक्टस पर पानी डालने लगती हूँ ! यही सोचकर कि कैक्टस की प्यास शायद थोड़ी सी ही कम हो जाय ।

ऐसा ही एक दिन था जब कि मेरे दिल के घाव रिसने लगे थे और मैं कैक्टस पर पानी डाल रही थी तभी मेरे कमरे के सामने से रीता निकली थी । मुझे ऐसा करते देखकर रुक गई और बोली, “वाह दीदी ! यह भी खूब रही । यह तो बिना पानी के ही बढ़ते रहते हैं । ‘आर्ट्स साइड’ की स्टूडेन्ट हो न । इसलिए तुम क्या जानो ‘ट्राँसपिरेशन’ को रोकने के लिए ही तो उसमें काँटें होते हैं; अब जब मैंने बता दिया है तो क्यों पानी बर्बाद कर रही हो ?”

‘हाँ, शायद मैं भूल गई थी, ये बिना पानी के ही बढ़ते रह सकते हैं बिलकुल मेरी तरह लेकिन तू जानती नहीं है, इन्हीं काँटों के कारण ये कितने वर्षों से प्यासे ही बढ़ रहे हैं । इनकी प्यास बुझाने वाला कोई नहीं है । सोचा कि मैं ही इनकी प्यास बुझा सकूँ तो अच्छा है ।’

“ओह ! यू आर ए ‘सेण्टीमेन्टल फ़ूल’ ।” और रीता अजीब ढ़ंग से मुँह बिचकाती हुई चली गई थी ।

देखती हूँ साँझ खिड़की से मेरे कमरे में उतरने लगती है । सात बज चुके हैं, दीपक आता ही होगा । मुझे लगा कि मेरे अन्दर हल्की-सी कोई लहर दौड़ गई । लेकिन यह क्या ? लहर उठते ही बिखर गई । ओह ! मैं भूल गई थी । अब दीपक मेरे पास कहाँ आता है? उससे मेरे सभी सम्बन्ध कट जो गये हैं, मेरे न चाहने पर भी; लेकिन मैं चाहने वाली कौन होती हूँ ? जब दीपक ने सुना था कि कॉलेज से लौटते समय मेरा कार से ‘एक्सीडेंट हो गया है तो वह बदहवास दौडा चला आया था । मैंने अपनी अर्द्ध चेतना में सुनी दीपक की वह घबराई हुई आवाज़, “आण्टी! गीता का एक्सीडेंट कैसे हो गया? होश में तो है ? कब तक ठीक हो जायेगी ?” तब शायद मम्मी को भी नहीं पता था कि उनकी प्यारी बेटी अपनी दोनों टाँगें एक्सीडेन्ट में खो चुकी है !

शायद टाँगें ही नहीं, और भी बहुत कुछ टूट गया था मेरे भीतर ? और जब मैंने आगे न पढ़ने का निर्णय कर लिया तो यह सुनते ही दीपक धड़धड़ाता हुआ मेरे कमरे में घुस आया था, “पागल हो गई हो गीता ! जो पढ़ाई बन्द कर दोगी ? यह दुनियाँ बहुत बड़ी है । इसमें न जाने कितने लोग, जाने कैसे-कैसे दुःख झेलते जी रहे हैं फिर तुम्हारा दुःख उनके दुःखों के सामने कुछ भी नहीं है ।”

“माना कि प्राइवेट पढ़ाई कर लूँगी लेकिन ऐसी हालत में मैं परीक्षा देने जाऊँगी तो मुझे कितना अजीब लगेगा, तुम सोच भी नहीं सकते ।”

“ क्यों क्या व्हील चेयर पर कॉलेज नहीं जा पाओगी ?” उसी मनोबल के सहारे मैं कॉलेज फिर से जाने की हिम्मत कर पाई थी । मेरी पढ़ाई फिर से शुरू हो गई थी । कॉलेज में मिलने वाली, दया दिखाती, तरस दिखाती आँखों की तरफ से मैं लापरवाह हो उठी थी ! इस ज़िन्दगी का यही रूप होना था, मेरे हिस्से में आई ज़िन्दगी को लाचार डगमगाते हुए चलना था । सब मैंने स्वीकार कर लिया था ।

दीपक मेरे लिए रोज़ न जाने कहाँ-कहाँ से पुस्तकें लाता था । मेरे दिन भी कट रहे थे किताबें यानि अपना ‘मेण्टल फ़ूड ’ पाकर। हर शाम को सात बजते ही मेरे कमरे की तरफ बढ़ती हुई आहट मुझे बता देती थी कि दीपक आ रहा है । सारे शहर की बातें, दुनियाँ, जहान की बातों से मेरा दिल बहलाया करता था । मुझे लगता था कि मेरा भी कोई आत्मीय है जो मुझे जीना सिखा रहा है ।

‘गीता अपना चित्र ले लो ।’ मम्मी की आवाज़ पर मैं चौंक उठती हूँ और देखती हूँ मम्मी हाथ में मेरा बनाया हुआ चित्र लिए कमरे के अंदर आ गई हैं ।

मैं कुछ उत्साह से पूछती हूँ, “क्या डैडी ने इसको पसंद किया ?”

“उन्हें तो यह पसंद आया है लेकिन.....” मम्मी कुछ रुक गईं ।

“लेकिन क्या? मम्मी !” मुझे लगता है मैं अधिक अधीर हो उठी हूँ ।

“वह पहले तो इसे देखकर बहुत खुश हुए लेकिन बाद में गंभीर हो उठे थे । इतने करुण चित्र क्यों बनाती हो ? तुम्हारे चित्र ही तुम्हारी भावनाओं को समझा देते है । अपने को इस तरह नहीं सुलगाओ गीता !” मम्मी की आवाज़ दुःख से थर्रा गई ।

“मम्मी ! मैं खुद ही नहीं चाहती कि सुलगूं लेकिन लगता है भगवान को भी मेरा सुलगना रास आ गया है । अब तो मैं इन्तज़ार करते-करते थक गई हूँ अपने इस सुलगने पर पानी पड़ने का ।” मम्मी मेरी बात सह नहीं पाती इसलिए वह अधिक देर नहीं ठहरतीं । मम्मी से कही बात मुझे कैक्टस की याद दिला देती हैं और मैं धीरे-धीरे व्हील चेयर से कैक्टस के पास आती हूँ । मेरा हाथ अनजाने में ही उसे सहलाने लगता है, सांत्वना देने के लिए ! ऊँगली से ख़ून निकल आया है । ख़ून काँटों में उलझता हुआ नीचे सरकता जा रहा है । मार्डन आर्ट सा-आर्ट जो मेरा जीवन है- एक दिन दीपक ने ही मेरे सामने पेंटिंग का सामान लाकर रख दिया था । मैं ख़ुशी से चिल्ला उठी थी, “ये सब मेरे लिये !”

मैं जब भी चित्र बनाती, तब मेरा हाथ न जाने कैसे फिसल कर व्यथा की गहराइयों में डूब जाता, वहाँ के रंग चुराकर ही कैनवास पर चलता । एक बार दीपक मेरा बनाया एक चित्र गौर से देख रहा था, जिसमें मैंने रेगिस्तान में खड़ी एक लड़की का चित्र बनाया था । मैं उसे चित्र को ध्यान से देखते हुए कह उठी थीं, “तुम सोचते होंगे कि मैंने ज़िंदगी ही कैनवास पर उतार दी है । शायद तुम ठीक सोच रहे हो । मेरा जीवन भी तो रेगिस्तान है, जिसमें कैक्टस उगते हैं, फूल नहीं । पानी नहीं मिलता इसलिए ।”

दीपक जल्दी से बोला, “तुम हमेशा ऐसी बातें करती हो । यह देख नहीं रही हो इस लड़की के पास छोटी सी झील है । अब देखो कि यह लड़की इस झील में गिरने वाली है ।” कहने के साथ-साथ दीपक ने मेरे चित्र की उस लड़की पर पास रखा हुआ पानी का गिलास उंड़ेल दिया । मुझे उस समय ऐसा लगा था कि मैं ही ऊपर से नीचे तक भीग गई हूँ । दीपक के जाने के बाद मैं न जाने कितनी देर तक तेज़ चलते पंखे के नीचे बैठी रही थी, सूखने के लिये । मैं स्वयं गीली होकर दीपक को रेगिस्तान में नहीं ढ़केलना चाहती थी ।

कई दिनों से दीपक नहीं आ रहा था । कुछ समझ में नहीं आ रहा था किससे पूछुं ? एक दिन मैंने मम्मी से पूछ लिया, “मम्मी! दीपक यहाँ क्यों नहीं आ रहा, आपको कारण मालूम है?”

“मालूम तो नहीं है । अब वह डॉक्टर बन गया है पोस्टिंग वगैरह भी हो गई होगी इसलिये वह चला गया होगा ।” मम्मी ने आँखें चुराते हुए कहा था ।

“लेकिन वह मुझे बिना बताये तो जा नहीं सकता । कम से कम ख़बर तो भिजवा देता ।” मम्मी ने फिर भी अनसुना कर दिया था ।

मम्मी की बात से मैं परेशान हो गई थी । दीपक अब इतना पराया हो गया है कि बाहर जाने की ख़ बर भी नहीं दी ? जब मैंने इसके बारे में रीता से पूछा तो उसने बहुत अजीब ढंग से बताया, “मैं क्या, मम्मी डैडी सभी जानते हैं कि दीपक क्यों नहीं आ रहा ?”

“क्या बात है रीता? जल्दी बता ।”

“दीदी ! बात कोई ख़ास नहीं है । मम्मी के कहने पर डैडी दीपक के घर तुम्हारे रिश्ते की बात लेकर गये थे लेकिन....”

“ये तू क्या कह रही है ? ये क्या गज़ब कर दिया डैडी ने ? मुझसे पूछा भी नहीं ?” मेरी आवाज़ आवेश से काँपकर रह गई ।

“मम्मी ने पूछने की ज़रूरत ही नहीं समझी, क्योंकि वह तो सब कुछ देखती ही थीं ।”

“क्या देखती थीं ?”

“यही.....कुछ......दीपक का रोज़-रोज़ तुम्हारे पास आना । डैडी ने जब यह बात दीपक के डैडी से कही तो वह गरम हो उठे । सुना है दीपक भी वहीं बैठा था, और उसके डैडी ने तो यहाँ तक कह दिया था, तुम क्या मेरी और अपनी दोस्ती का ग़लत फ़ायदा उठाना चाहते हो, मेरे दीपक के गले अपनी लंगडी......।”

“रीता.........!” दरवाज़े पर मम्मी जोर से चीखी, “यह तू यहाँ क्या बक रही है ?” रीता उनके आने से चुप हो गई और चुपचाप बाहर निकल गई । मम्मी डबडबाई आँखों से मुझे देख रही थीं । मैं भी अपने को रोने से रोक नहीं पा रही थी । मैं फूट-फूट कर रो रही थी, बिलख रही थी, “मम्मी ! यह तुमने क्या कर डाला ?....... एक बार तो मुझसे पूछा होता । मैं दीपक की निगाहों से गिर गई हूँगी, वह क्या सोचता होगा....यही न ! मैं उसकी सहानुभूति का गलत फ़ायदा उठाना चाहती हूँ- मम्मी ! मेरे और दीपक के बीच कुछ न था सिवा एक आत्मीय सम्बन्ध के.........यदि कुछ होता भी तो क्या तुम सोचती हो कि मैं शादी के लिये तैयार हो जाती ? नहीं......दीपक क्या, मैं तो इन टाँगों का बोझ किसी पर भी नहीं डाल पाऊँगी...... किसी पर भी नहीं.....तुम्हारे ऊपर ही इनका बोझ क्या कम है ?” मैं लगातार रोती जा रही थी । मुझे तब भी होश न आया जब मैं अपनी मम्मी के भी रोने की आवाज़ सुनी । न जाने हम दोनों ही कितनी देर रोते रहे अपने-अपने दुःख से !

उस दिन कई दिन के बाद दीपक आया था । मैं शर्म से उसके आगे आँख भी नहीं उठा पा रही थी । मैं उसकी संयत आवाज़ सुनकर चौंक उठी थी, “गीता ! मैं तुमसे शादी करने के लिए तैयार हूँ ।”

“क्या?” मैं घबरा उठी थी, “नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता दीपक!”

“मैने बहुत सोच समझकर यह निर्णय लिया है तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता?” उसने आवेश में पूछा था ।

मैं धीरे-धीरे बोलती ही चली गई, “इसलिये कि मैंने कभी तुमको प्यार नहीं किया, तुमसे मेरा सिर्फ एक आत्मीय सम्बन्ध है और तुम्हारा भी मेरे लिये प्यार नहीं है क्षणिक आवेश भरा दयाभाव है । तुम्हारी दया का बोझ मुझसे सारी ज़िन्दगी ढ़ोते नहीं बनेगा । तुम आवेश में मत आओ यथार्थ को झेलना कोई सरल काम नहीं है । तुम्हें एक मित्र के रूप में पाकर ही मैं खुश हूँ ।” कहते-कहते न जाने कितने आँसू मेरे गालों पर लुढ़क पड़े थे और इसके बाद को मेरे लम्बे मौन के बाद- वह हमेशा हमेशा के लिये अपने सभी सम्बन्ध काटकर चला गया था । उस रात मुझे याद नहीं कि मैंने अपने कमरे के कैक्टस पर कितना पानी डाला था । मैं तब तक साथ वाले बाथरूम से पानी ला-लाकर कैक्टस पर डालती रही थी जब तक मैं व्हील चेयर आगे-पीछे ढ़केलते, थक कर चूर नहीं हो गई । उस गीले कमरे में मैं थकी सी पड़ी सोच रही थी मम्मी ने यह क्यों नहीं सोचा कि प्रेमी-प्रेमिका या भाई-बहिन से हटकर भी तो और अन्य आत्मीय सम्बन्ध हो सकते हैं । मुझे लग रहा था कि मैं दोबारा रेगिस्तान में खड़ी अकेली लड़की का चित्र बनाऊँ भी तो उस पर कोई पानी डालने वाला नहीं आयेगा ।

दीपक से तो वे कोमल धागे टूट ही चुके हैं जिन्हें दीपक ने भी जोड़ने की कोशिश नहीं की । शायद वह पहले की तरह आकर भी अपने को हमारे घर के माहौल से सहज महसूस नहीं कर पाता । कभी-कभी तो लगता है कि मेरे पीछे मम्मी-डैडी को मज़बूरन भटकना पड़ रहा है । अपना दुःख तो झेलते बनता है । लेकिन उनका दुःख देखकर ऐसा लगता है नींद की गोलियां इकट्ठी खाकर पूर्णतः डूब जाऊँ लेकिन मुझे न जाने कौन सी नियति हाथ पकड़कर रोक देती है या मेरे अपने कहे शब्द । एक सहेली ने किसी कारणवश आत्महत्या कर ली थी तो मैंने बहुत आत्मविश्वास के साथ कहा था,`` ज़िन्दगी से भागना कायरता है । न जाने यह दुःख भगवान अपने किस लक्ष्य से देता है, फिर आत्महत्या भी एक पाप है । मर जाने पर कौन जाने इससे बड़ा दुःख और झेलना पड़े ?``

तब ये शब्द कहने वाली, गीता क्या सोच सकती थी । ज़िन्दगी के इस छोटे मोड़ पर ही वह सब कुछ घट जायेगा, जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकती । कोई बात नहीं, जिस तरह कैक्टस प्यासा बढ़ रहा है तो क्या मैं जी नहीं सकती ? तभी तो ऐसा लगता है, कैक्टस की प्यास बुझाने पर मेरी ही प्यास बुझ रही है।

ये सब सोचते हुए मेरी आँखों से जाने कितना पानी निकल गया है । दिल में कुछ भर सा गया है । लगता है आज की रात कैक्टस पर उतना ही पानी डालूँगी जितना उस दिन डाला था और जब पानी डालते-डालते थक जाऊँगी तभी सो पाऊँगी । सुबह कमरा भीगा देखकर मम्मी भी उसी दिन की तरह दुःखी होकर कहेंगी, “गीता ! तुझे क्या हो गया है ? कैक्टस भी कोई प्यासा होता है ? तुझे तो कैक्टस की प्यास बुझाने की अजब-सी बीमारी लग गई है ।”

--------और मैं भी उसी दिन की तरह फीकी हँसी हँसकर रह जाऊँगी ।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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