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मैत्रैयी पुष्पा अल्मा कबूतरी

मैत्रैयी पुष्पा . अल्मा कबूतरी

पुस्तक समीक्षा-

अल्मा कबूतरीरू कुछ सवाल, कुछ बातें

पुस्तक - अल्मा कबूतरी

लेखिका - मैत्रैयी पुष्पा

हमारे यहा जब किसी व्यक्ति जांच परख की जाती है, तो उसकी शुरूआत से लेकर अब तक की सब गतिविधियां देखी जाती है। एसा ही हास हिन्दी के आलोचना शास्त्र का है। यहां

रचनाकार की रचनाओं को एक के ऊपर एक चढ़ते क्रम मे देखने का रिवाज हे, तेसे कि हर नयी रचना, पिछली से जुड़ी है, या बेहतर है।

मैं यह मानता हूं कि यह गलत परंपरा है। हर रचना को स्वतंत्र रूप से कसौटी पर कसा जाना चाहिये, मैत्रेयी जी के मामले में भी में यही कहना चाहता हूं। इनके उपन्यास बेतवा

बहती रही, इदन्नमम और चाक को अलग रख कर मैं “आल्मा कबूतरी” नामक उपन्यास की चर्चा करना चाहता हूँ ।

हम सब लोग पहले इस उपन्यास की कहानी के बारे में कुछ जान ल्रे यह शायद उपयुक्त होगा। बुंदेलखण्ड के कस्बों से आए लोग गहराई से जुड़े है, इसी कारण कबूतरा नामक

जनजाति हमारे लिये जानी है। नये उपन्यास की पृष्ठभूमि मे रही कबूतरा जन जाति है। कबूतरा लोग सहरी लोगों को कज्जा कहते है। शुरू में उपन्यास में मंसाराम भाते के हाथो

खेलते जंगलिया कबूतरा की कथा आती है ओर इसी के साथ आती है जंगलिया की पत्नि कदमबाई की कथा। जिस पर आसक्त हो गया मंसा अंततः अपने मनसुधो में सफल होता है तो

जंगलिया को भरवा के फिकवा देता है। कदमबाई की कोख मे मंसा का अंश पलता है, जिसे कदम जंगलिया का मानती है, और जन्म के बाद बच्चे का नाम रखती है-

राणा। राजा दूसरे कबूतरा बच्चो की तरह अपराधो के प्रति आकर्षित नही है बल्कि वह बड़ा भावुक है। उसे अपराध पर ले जाते वक्त किये जाने वाले संस्कार रिवाज और टोना टोटका व्यर्थ जाते हैं तो कदमबाई को कबीले का मुखिया दारू बनाकर बैचने के हक से महरूम कर देता है। मंसा, राजा को सुविधा दिलाना चाहता है, पर विवश है और कदम अपने बेटे राजा को पढ़ाने लिखाने तथा कज्जा लोगो की तरह रहने के लिये अपनी विरादरी के पढ़े लिखे लड़के रामसिंह के पास भेजती है। रामसिंह की बेटी अल्मा से साक्षात्कार करके राणा ठगा सा रह जाता है। खुबसूरत और कुशाग्र बुद्धि की अल्मा से मोहित हो चुका राणा एक दिन डाकू बेटा सिंह और दरोगा का वार्तालाप सुनकर इतना उद्देलित हो जाता है कि वह घर के साथ अल्मा को भी छोड़ के भाग जाता है। दरअसल रामसिंह डाकुओ के नाम से भरने के लिये कबूतरा पुरूषो के दृढ़ता फिरता मुखबिर है, जो कि अंततः खुद भी बेनाम मौत मरके बेटासिंह की मौत को प्रचारित करा जाता है। अल्मा पहले से अन्यत्र जगह कैद है जहां से उसे राजनैतिक गुंडे अपने इस्तेमाल के लिये उठा लाते है। परिस्थिती की मारी अल्मा एक दूसरे ताकतवर नेता की सहचरी बन जाती है, कि तभी उस नेता की हत्या और अल्मा के राजनीति में प्रवेश के साथ उपन्यास का अंत हो जाता है।

अब इस उपन्यास में कितनी कबूतरा जनजाति की असलियतें है, और कितनी लेखिका की समर्थ कलम तथा कल्पना का कमाल है, इसे तो इस विषय के विशेषज्ञ ही बता सकते है, पर एक पाठक के नाते इस रचना मे खुद को पढ़ा ले जाने की कूवत है यह सत्य है। कहानी में पढ़ने की व्यास लगे, तभी वह सफल है। इस कला मे मेत्रेयी जी का जवाब नहीं।

इस उपन्यास में पात्र हमारे आपके बीच के जीवंत और विश्वस्व पात्र हैं, हालांकि पात्रों की बरात की बरात इस उपन्यास में मौजूद है, जो कही कहीं तो गैर जरूरी भी लगती है। पर हर पात्र किसी न किसी प्रवृत्ति का प्रतीक बनकर आया है इस कारण पाठक को धुंधलाहट नही होती है।

पूरे उपन्यास में कदमबाई का अंतर्द्ध गूंजता है, वह कबूतरी होकर भी कज्जा औरतों की तरह सोचती है, कज्जा लागो को पसंद करती है और शायद कज्जाओ से घृणा भी उतनी ही करती है, पर अपने बेटे को कज्जा बनाके रखना चाहती है। इसी घुटन में कदमबाई बूढ़ी होने लगती है कि लेखिका कायांकल्प या देहांतरण के द्वारा अल्मा के भीतर वही द्वंद उभारती है। कष्ट के पहाड़ गिरने के बाद भी अल्मा मजबूती के साथ जीवित बनी रहकर परिस्थितियों से समझौता कर लेती है- यह शायद अल्मा की नही स्त्री की जिजीविका का प्रतीक है। यह

कथा कदमबाई और अल्मा की ही कथा है। दवाओं के जानकार मोचिया गुरू की भी कथा है, बंदरो के प्रशिक्षक कलंदरों की भी कथा है, और कबूतरों की तो है ही।

उपन्यास पढ़ते पढ़ते कई चीजे मस्तिष्क मे सवाल के रूप मे उठ खड़ी होती है अगर

उन्हे तरतीब बार रखा जावे तो उसकी शक्ल कुछ इस तरह उतनी है। चित्तोड़ के मूल निवासी होने की किवदंती के साथ-साथ रानी पदमिनी की संतान होने की किवदंती को इतिहास का आधार शायद बिलकुल नही है, क्योंकि इनकी भाषा इनका रहन सहन, इनकी संस्कृति राजपूताना से बिलकुल पृथक है।

दूबले पतले जंगलिया की जगह हष्ट पुष्ट मंसाराम से रात में कदम का न पहचान पाना एक मीठा भ्रम ही दिखता है। सच नही।

रामसिंह की अनेक गतिविधियां अस्पष्ट रहती हैं आखिर क्यों ? अल्मा भयभीत क्यों रहती है शुरू शुरू में यह स्पष्ट नहीं है।

धीरज श्रीराम शास्त्री, केहर सिंह जैसे कितने ही पात्रों की कथा इस उपन्यास से उतनी गहराई से क्यों नही जुड़पाती। तथा कबूतरा लोगों की अपराचिक मनोवृत्ति के पक्ष में उतने तर्क भी क्यों नहीं मिलते इस तरह की कई चीजे गड्डमड्ड है।

इन सब प्रश्नों का मतलब यह नही कि साड़े तीन सौ पृष्ठ का यह उपन्यास किसी तकनीकी दृष्टि से कमजोर है। तकनीक और शिल्प साधना तो मैत्रैयी जी में सदा से है और यही शिल्प विवश करता है कि जिन्होने मैत्रैयी जी का लिखा कुछ नही पढ़ा, वे पढ़ना चाहते है, जिन्होने पढ़ा है वे नया-नया चाहते हैं।

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समीक्षक राजनारायण बोहरे

एल-19, हाऊसिंग बोर्ड कालोनी

दतिया (म0प्र0) 475661

पुस्तक - आल्मा कबूतरी

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