आज़ादी Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आज़ादी

सारा गांव स्कूल की ओर बढ़ रहा है। आज पंद्रह अगस्त है, स्कूल में झण्डा फहराया जाएगा।
शहीदों से प्रेम नहीं है गांव को, पर क्योंकि कुछ भी हो रहा है, इसलिए सारा गांव जा रहा है। समय बहुत होता है, करने के लिए कुछ होता नहीं, कहां व्यतीत करें लोग?
इसलिए मदारी के खेल से लेकर स्वतंत्रता दिवस तक में लोग बड़े जोशो - खरोश से भाग लेते हैं।
फिर ऐसे ही दिन के लिए तो करीम का धुला कुर्ता- पायजामा काम आता है, रोजमर्रा में तो सायकिलों का पंचर निकालते निकालते कपड़े भी हाथ - पैरों की तरह काले ही रहते हैं।
वैद्यराज जी नया कोट अब बिला वजह तो पहनने से रहे गांव में, उत्सव है तो पहन लिया है। लाला सोहन लाल भी इसी बहाने नहा लिए हैं आज, दांत चाहें वैसे ही गंदले हों। और वो तो रहेंगे ही, बंसी के कितने पान उनके दांतों तले रौंदे जा चुके हैं! कम्पाउन्डर साहब की कलफ लगी पैंट की शोभा ही निराली है।
स्कूल के लड़के - लड़कियां भी अपनी - अपनी पोशाकें धोकर, इस्त्री करके निकले हैं। सारा गांव धुला धुला सा लग रहा है। शहीदों ने देश के लिए और जो कुछ किया हो सो तो किया ही, गांव की ओवर हॉलिंग का ज़रिया ज़रूर बना गए।
हैड मास्टर साहब के पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे हैं, आज झंडा जो फहराना है उन्हें। ऐसे अवसर पर गांव हो जाता है सारा देश, कन्या शाला रूप लेती है लाल किले का, और प्रधान अध्यापक जी होते हैं महामहिम।
सारी आंखें उठ गई हैं उस ओर, जहां से बड़ी बहन जी गुज़र रही हैं शानो शौकत से। साथ में स्टाफ की अन्य अध्यापिकाएं क्या हैं, छोटा मोटा मंत्रिमंडल है गांव का।
सब लोग जमा हो गए हैं। दो चार करके और भी आते जा रहे हैं।
कार्यक्रम शुरू हो गया है।
बैंक मैनेजर साहब बड़ी बहन जी के साथ बिराजमान हैं, पास की कुर्सी पर डॉक्टर साहब हैं, फ़िर सरपंच साहब, जमुनादास जी, भंवर लाल जी और गांव की बाक़ी हस्तियां।
दुकानें बंद हैं आज। चेहरे पहचाने नहीं जा रहे। क्या यही अमृतलाल जी हैं जो दुकान पर गुड़ तौलते हैं?
प्रधान अध्यापक महोदय भी आ गए हैं, आज के मुख्य अतिथि, कार्यक्रम के अध्यक्ष।
माइक पर आवाज़ आने लगी है- "प्यारे साथियो, आज का दिन हमारे गौरवशाली अतीत का न भुलाया जा सकने वाला दिन है। आज के दिन अमर शहीदों के बलिदान का प्रतिदान अपनी आज़ादी के रूप में हमें मिला था। सदियां गुज़र जाने पर भी आज के दिन का महत्व हमारे लिए इसी प्रकार बना रहेगा। अब मैं माननीय प्रधान अध्यापक जी से निवेदन करूंगा कि वे दो शब्द कहें।"
किन शहीदों ने, कब और कैसे बलिदान दिया, आज़ादी कैसे मिली, किसको मिली और मिली तो रखी कहां है, इन सब बातों से बेखबर जन समुदाय की तालियों की गड़गड़ाहट से मैदान गूंज उठा है। क्योंकि अभी अभी उत्सव शुरू हुआ है, इसलिए उत्साह है, जोश है,इसलिए तालियां हैं।
उठ खड़े हुए प्रधान अध्यापक जी - "भाइयो व बहनो, आज के दिन हम आज़ाद हुए। कितना प्यारा नाम है आज़ादी? आज़ादी हर इंसान के लिए आवश्यक है। आज़ादी के बिना मनुष्य, चाहे किसी भी भौतिक,आध्यात्मिक, अथवा सामाजिक स्तर का हो, वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। जब मनुष्य के पास अपना मस्तिष्क है, जो सोच समझ सकता है, तो वो क्यों किसी की दासता की बेड़ियों को स्वीकार करे?"
सारा गांव समझ रहा है। हैड मास्टर जी समझा रहे हैं। गंगाराम का ध्यान घर में चला गया है। गेहूं खत्म है, आज ही सुबह जौ मंगाए। जौ, जो पहले चार आना सेर नहीं लेता था कोई, आज डेढ़ रुपया किलो देकर मंगाए हैं।
तो यही है आज़ादी? आज़ादी सवा रुपया किलो मिलती है।
चौधरी ने तो शहर में आज़ादी मिलती भी देखी थी। गांधी बाबा तक ने लाठियां खाईं, तब जाकर मिली थी। गांव में तब अख़बार, रेडियो था ही कहां,जो आज़ादी आती हुई दिखती? अब आया है जाकर। और आया भी है तो क्या, दिन भर ...' नजरबाज़ सैयां, नज़रिया न मारो' ही सुनाई देता है। आज़ादी है कहां, कैसी है,कौन बताए चौधरी को?
बोल रहे हैं हैड मास्टर जी- " मानव के सिर से पराधीनता के बादल छंटने ही चाहिए। स्वतंत्रता नहीं होती तो मानवता भी कहां रह जाती है? बंधन सहने का मतलब है, मानसिक मौत, और आख़िर जीवन पाकर मनुष्य क्यों मरे? आज़ादी तो हर मनुष्य का पहला अधिकार होना ही चाहिए।"
लाला दौलत राम के चेहरे की लाली बता रही है कि आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए। ठीक ही तो है। अंग्रेज़ नहीं लेते थे रिश्वत,अब तो घूस देकर जो चाहे करा लो । सच में, वो हमेशा ये ही दुआ करते रहे हैं कि आज़ादी तो सबको मिलनी ही चाहिए।
-"हम आख़िरी दम तक आज़ादी की रक्षा करेंगे... भारत माता की जय"... नारे गूंज रहे हैं, हर्षोल्लास है सब तरफ़!
***
आशा दौड़ कर पड़ोस में गई और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा पीटने लगी।
- भाई साहब, खोलिए जल्दी से!
विमल ने घबराकर बाहर झांका- क्या बात है आशा?
- विमल भैया,घर चलिए जल्दी से!
- हुआ क्या?
- छोटी भाभी की तबीयत फ़िर खराब हो गई, जाने क्या क्या बक रही है, मां को मारने दौड़ी। पागलों की तरह कपड़े फाड़ रही है। मेरे हाथों पर भी दांत गढ़ा दिए। कोठरी में बंद करके रखा तो ठीक थी, जैसे ही दरवाज़ा खोला कि बस, आफत आ गई।
- पिताजी नहीं हैं घर में?
- पिताजी तो दुकान पर गए हैं न, आपकी डिस्पेंसरी की तरह उनकी छुट्टी थोड़े ही है।
- चलो, आता हूं अभी।
कहकर वो उसके पीछे पीछे चल दिए हैं। रास्ते में जाकर ख्याल आया- करेंगे क्या वहां जाकर? छोटी भाभी पागल नहीं तो क्या, पागलपन का दौरा तो है। कैसे संभाले पागल को कोई? फ़िर वो भी औरत !
बेचारे हैड मास्टर साहब पर भी तरस आता है। जवानी में औरत पागल हो गई। दुनिया तो दबी ज़बान से ये भी कहती है कि जोरू बेचारी पागल न होती तो क्या करती? चरित्र के ठीक नहीं हैं, जब तब यहां वहां मुंह मारते रहे हैं, इसी से तो बीवी बेचारी पागल हो गई।
बुरा हो इन आवारा औरतों का, अच्छे भले घर में आग लगा देती हैं। आख़िर बेचारी कब तक बर्दाश्त करती। रोज किस्से सुनती थी अपने पति के साथ उसकी काली करतूतों के। रामप्यारे की औरत थी निर्लज्ज! एक दिन तो अपनी आंखों से देखा सब कुछ।
मर्दों का क्या है, घाट घाट का पानी पीने में उनके कपड़ों पर कब दाग आया है, पर औरत तो सोचे?
जाने सच क्या है, झूट क्या? कोई कोई दबी ज़बान से ये भी कहता है कि ये नाम की ही औरत है बस, जन्म की पागल। बेचारा अच्छा भला हैड मास्टर! जवान आदमी,सारी उमर पड़ी है सामने। इधर उधर न ताके तो जाए कहां? कुछ भी हो, तरस हैड मास्टर पर भी आता है। आख़िर कुदरत ने ये सब खेल खेलने के लिए ही बनाए हैं,ये तो नहीं कि जी चाहा तो खेले, न चाहा न खेले। घर में रोटी नहीं मिलेगी तो बाहर मुंह मारेगा ही! ये पगली क्या जाने।
पड़ोस में पहुंच कर देखा, सब कुछ शांत, तूफ़ान के बाद का सा सन्नाटा।
अकेली बैठी छोटी भाभी आंसू बहा रही है। आशा की मां घबरा कर पड़ोस में चली गई है।
सामने बैठी मासूम से भीगे भीगे चेहरे वाली औरत। इस पर विश्वास करें कि आशा के कहे हुए पर?
विमल ने उससे बोलने की कोशिश की, पर वो बोली नहीं, बस रोती जाती है। अधिक पूछने पर उठ कर भीतर चली गई और दरवाज़ा बंद कर लिया।
इतने में ही पड़ोस से हैड मास्टर साहब की मांजी भी आ गईं और बताने लगीं- भैया,हमारा तो जीना हराम कर रखा है इसने! इसके पीहर वालों को देखो, कानों में जैसे तेल डाले बैठे हैं। इस करमजली के कारण बेचारा दूसरी शादी भी नहीं कर सकता। ये पागल सारी उमर उसकी नाक में दम किए रहेगी। न जीने देगी, न पीछा ही छोड़ेगी। तलाक़ के लिए भी राज़ी नहीं थे अब तक, हमारी ही छाती पर मूंग दलनी थी न उन्हें! अब जैसे - तैसे माने हैं, देखो क्या होता है। इससे छुटकारा मिले तो दूसरा कुछ और सोचें। कब तक ऐसे ही फिरता रहेगा बेचारा?
अचानक मांजी को ध्यान आया कि एक ख़त भी आया पड़ा है। बोलीं- घर में उस समय था ही कौन, जिससे पढ़वाती? अब आए हो भैया, तो तुम्हीं पढ़ दो।
विमल ने मांजी के हाथ से खत लिया। उसे पढ़कर कुछ बोलने से पहले ज़रा झिझका, लेकिन और कोई रास्ता नहीं था, बोला- आपकी बहू के पीहर से आया है माताजी, लिखा है कि वो लोग तो तैयार थे, पर कचहरी ने नहीं माना है, तलाक़ नहीं मिल सकता, डॉक्टर की रिपोर्ट है कि पागल वागल नहीं है,ठीक है बिल्कुल, ऐसी स्थिति में तलाक नहीं मिल सकता।
मांजी अवाक रह गईं।
***
हैड मास्टर साहब लौट रहे हैं झंडा फहरा कर। आज़ादी पर भाषण देकर। आज़ादी, जो हर इंसान के लिए निहायत ज़रूरी है, जिसके बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं कहलाता। दासता चाहे कैसी भी हो, मानवमात्र के लिए अभिशाप है ! (समाप्त)
- प्रबोध कुमार गोविल (1976)