महक SURENDRA ARORA द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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महक

मोबाईल की घंटी बजी तो हमेशा की तरह नंबर पर नजर गयी। कोई अनजाना सा नंबर था। चित्त सुबह से अनमना था। कोई काम तो क्या किसी से बात करने या किसी की बात सुनने की भी इच्छा नहीं हो रही थी। हर दिन की घिसी- पिटी दिनचर्या पहले बोरियत और फिर उदासियों में बदलने लगी थी। सुबह उठते ही किचन, अरविन्द के साथ चाय, अरविन्द की आफिस की तैयारी और उसके बीच - बीच में उनकी छेड़ - छाढ़, कभी - कभी गुस्सा भी, फिर नेहा का स्कूल, काम वाली बाई के साथ झिक- झिक, नेहा का होम वर्क, वही अकेली दोपहर, शाम फिर उसी रूटीन दिनचर्या का बंधन और रात का अधखुला सन्नाटा अक्सर अरविन्द के नाम। क्या इन्ही सब के लिए यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडल लिया था। घंटी बजे जा रही थी। उठाने की इच्छा नहीं हुई। फोन बंद हो गया. नीलू अनमनी सी बेड पर अधलेटी बनी रही और मोबाईल में अपने आप को ढूंढ़ती रही। जिसके पास भी इसका नंबर होता है, वही बड़े आराम से इसे बजा लेता है। इसकी इच्छा हो या न हो, इसे बजना पड़ता है और उम्मीद करता है की इसकी आवाज पर इसे उठाया ही जायेगा। इस उधेड़बुन से वह अभी निकली भी नहीं थी कि थोड़ी देर बाद घंटी फिर बज उठी। नंबर वही था और अनजाना था। उसने सोचा पता नहीं कौन है जो इस कदर पीछे पड़ा है कि उसे पूरा विश्वास है कि उसकी बात जरूर सुनी जाएगी ! क्या पता उसे कोई जरूरी काम हो ! उसने फोन उठा लिया। उधर से आवाज आयी, " हेलो, क्या मैं नीलू जी से बात कर सकता हूँ ? "

उसने कहा, " जी ! पर आप कौन, मैं नीलू ही बोल रही हूँ ? "

" लगता है आवाज को पहचाना नहीं. पहचानोगी भी कैसे ? छह साल कम तो नहीं होते. इतने अरसे में तो बहुत कुछ बदल जाता है। "

" क्या कहना चाहते हैं. साफ़ - साफ़ कहिये कि आप कौन हैं और किसे फोन किया है ? नहीं तो मैं फोन रखती हूँ। "

" इसका मतलब समय के साथ कुछ भी नहीं बदला। सब कुछ वैसा ही है। गुस्सा आज भी तुम्हारी नाक पर रखा रहता है। "

" अच्छा तो तुम हो, अजय ! अरे, इतने अरसे बाद फोन ? " नीलू  सोफे पर तरतीब से बैठ गयी। "

" दूसरो पर दोष मढ़ने की आदत भी नहीं बदली है, तुम्हारी ! मैंने किया तो है, तुम तो वो भी नहीं कर सकी। " अजय ने बेतक्लुफी से कहा।

" हिंदुस्तानी औरत हूँ. मर्द नहीं जो चाहे दुनिया के किसी भी कोने का हो, उसे हर तरह की छूट होती है। " अचानक आये इस फोन से नीलू की उदासी से भरी बोरियत ने अपने आप से निकलने के रास्ते तलाशने की कोशिश की।

" पहले की तरह अपनापन भी दिखाओगी तो वह भी ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान कर रही हो। " अजय ने उलाहना दिया पर जल्द ही बोला," चलो छोड़ो इन बातों को। यह बताओ कैसी हो ? "

" बात कर रही हूँ तुमसे तो क्या पता नहीं लग रहा कि कैसी हुँ ? " उसने कहा।

" मेरा मतलब कितनी तारीफ़ करूँ तुम्हारी ? " अजय भी कालेज के दिनों की लय में था।

" अब तुमने तारीफ़ की बात की है तो यही कहूंगी की जितनी चाहें कर सकते हो। उसकी कोई मनाही नहीं है। " नीलू ने शब्दों में अपनत्व घोलने में कोई कमी नहीं की। उसकी रूटीन दिनचर्या उसके अवसाद का कारण बन रही थी और उसने तय कर लिया था कि वह उससे बाहर निकलना जरुरी है।

अजय, पोस्ट ग्रेजुएशन में उसका सहपाठी था। बॉटनी की थ्योरी क्लास के बाद सभी स्टूडेंट्स को कालेज के बाद पास के छोटे से बोटेनिकल गार्डन में भी जाना होता था। वहां अन्य सामान्य पौधों के साथ बहुत से औषधीय पौधे भी लगाए गए थे। अजय को उन सभी पौधों की पहचान के साथ नाम और गुण अच्छी तरह से रटे हुए थे। उसकी इस प्रतिभा का लाभ सभी सहपाठी उठाते थे। इस कारण लड़कों के लिए जहां वह ईर्ष्या का पात्र था वहीं लड़कियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बना रहता था क्योंकि किसी भी पौधे की विशेषताओं को अजय की सहायता से आसानी से समझा जा सकता था। नीलू भी अजय की इस खासियत के कारण उससे अछूती नहीं रह पाती थी।

"अजय ! अगर पेड़ों की यह हरी - भरी दुनिया न होती तो पौधों के बिना यह धरती कितनी वीरान नज़र आती ? " एक बार नीलू ने उससे पूछा था।

" कैसी क्या ? कल्पना करो की लड़कियों के सर पर एक भी बाल न होता तो वे कैसी लगतीं ? " अजय ने उसकी तरफ उपहास की दृष्टि से देखा था। झेंप गयी थी नमिता। उसे लगा सुन्न हो जाएगी । अजय को लगा कुछ ज्यादा ही हो गया। उसने बात को संभालते हुए कहा, " अरे पगली ! बॉटनी अर्थात वनस्पतियों की वैज्ञानिक हो, इतना तो जानती हो न की पेड़ - पौधे न होते तो हम भी न होते. प्रकृति की उतपत्ति और विकास के मूल में तो वनस्पतियां ही हैं। नेचर ने पेड़ - पौधों की रचना न की होती तो हम भी अस्तित्व में आ न पाते। प्रकृति का प्रथम सौंदर्य हैं ये पौधे ! ये हैं तभी तो हम हैं, आभारी हैं हम इनके, प्रकृति के विकास के सबसे कठिन चरणों को इन्होने ही पार किया है। हमारी उतपत्ति का मूल स्रोत हैं ये." इतना कहकर वह पौधे की पत्तिओं को ऐसे सहलाने लगा जैसे उनका शुक्रिया अदा कर रहा हो की हमारे लिए इन्होने समय के कितने प्रहार झेले ही नहीं, उन प्रहारों से लोहा लेकर, उन्हें हराया भी है। "

अजय ने प्रकृति के रचनात्मक सौंदर्य को इतने सुरीले अंदाज में बताया किनीलू एकटक उसे देखती रह गयी।

" कहाँ खो गयी मैडम, क्या देख रही हो ? " अजय ने टोका था।

" सोच रही हुँ, तुम विज्ञान के स्टूडेंट हो या दर्शन के ? छोड़ो बाटनी, किसी आध्यात्मिक स्कूल को ज्वाइन कर लो। " कहकर खिलखिला पड़ी थी नीलू।

अजय ने भी नाटकीय मुद्रा अख्त्यार कर ली, आदाब की मुद्रा में बोला था, " जनाब की जर्रा नवाजी का शुक्रिया। बोलिये आपकी तारीफ में क्या कहा जाए ? "

" जी ! कुछ खास नहीं, बस हमारे बालों की वैसी ही तारीफ कर दीजिये जैसी इन पौधों की कर रहे हैं। "

दोनों की हंसी की गूंज पूरे गार्डन की हवा में तैर गयी।

अजय, इतने सालोँ बाद नीलू से ऐसी उम्मीद नहीं कर रहा था पर इत्तफाक ने आज फिर अचानक वैसी ही परिस्थितिया उतपन्न कर दी थी।

उसे उम्मीद नहीं थी की नीलू कहेगी जितनी तारीफ़ चाहे कर सकते हो, करो। पर वह था ही हाजिर जवाब। उससे रहा नहीं गया,सो बोला," आपकी तारीफ में हम तो कभी रुकना ही नहीं चाहते, आप अनुमति तो दीजिये। " नीलू सोच नहीं पायी की क्या कहे।

थोड़े अंतराल के बाद अजय ने फिर कहा, " लगता है वक्त के बेरहम बदलाव के साथ आइना देखना भूल गयीं हो। उसे कभी अपनी नजर से देखोगी तो सब कुछ बतला देगा. "

इस बार नीलू चुप नहीं रही, बोलीं," वक्त को पीछे सरका पाते तो वो सब नसीब में नहीं होता जो नसीब में आ गया है। "

" नसीब में किसको, क्या मिला इसका हिसाब तुम्हारे पास कहाँ से आ गया। नसीब का हिसाब - किताब तो कहीं और लिखा होता है। यहाँ तो सब्र से काम चलता है मैडम, बस। " अजय ने कहा.

नीलू कुछ नहीं कह पायी। अजय भी सोच नहीं पाया की क्या कहे. चुप्पी उन दोनों के बीच फ़ैल गयी।

नीलू  कुछ और भी सुनना चाहती थ।

" कुछ कहा नहीं तुमने ? अजय बोला.

" जब इतना कुछ जानते हो तो तुम्ही बता दो की अब क्या कहेगा आइना ? "

" नमिता मैडम,  आइना कहता है, कभी - कभी खुद से भी प्यार करना चाहिए, मंद आवाज में बातें करते हुए। " अजय के स्वर में नशा सा आ गया।

" गहरी बातें अब भी उतने ही भोलेपन से करते हो, जैसे तब करते थे, शरारतें करने की तुम्हारी आदतें अब भी बरकरार हैं.वक्त की धूल में जरा भी धुंधली नहीं हुई. " नमिता के शब्दों में किशोर शर्माहट फिर से आने लगी थी।

" यही तो नसीब है हमारा कि आप को हमारी शरारतें अब भी याद हैं। "

" भूल गए तुम. तुम ही तो कहा करते थे कि कभी - कभी खुद से भी प्यार करना चाहिए......... खुद पर भी प्यार आना चाहिए। लगता है तुम भी आईने से कम ही रूबरू होते हो। "

" ओह थेंक्स गाड. विश्वास हो गया कि आज सचमुच तुमने अपने आईने को हालात की नजरों से नहीं, अपनी खुद की नजरों से देखा है. इसलिए कमसे कम आज तुमसे जीतना मुश्किल है। "

" मैंने अपनी नहीं तुम्हारी बात की है। " नीलू के स्वरों में शोखी थी।

" यह वक्त का आइना ही है जो तुमसे बात करने की हिम्मत जुटा सका हूँ। थेंक्स नीलू ! चाहता हुँ परमिशन दो कि कभी - कभी तुमसे इसी तरह बेबाक बात कर सकूं। " अजय के स्वर में अतिरिक्त भावुकता थी।

" अजय परमिशन मांग कर मुझे और अपने आपको हर्ट मत करो, तुम्हारे सहपाठी के रूप में बेहद खूबसूरत तीन साल गुजरे हैं, इसलिए यह तो हक़ है तुम्हारा। जिंदगी में नयापन न हो तो उसका रोमांस खत्म हो जाता है। हमेशा नई बातों में ही नयापन नहीं होता। बहुत बार अतीत की झांकी भी नयापन दे जाती है।  जिंदगी हर पल जीने का नाम है. इसे भरपूर जीने के लिए जरूरी है की उसमें लचीलापन हो। कुछ हद तक डेविएशन भी हो। " नीलू के हर शब्द में उल्लास था।

अजय को लगा इतने साल बाद, आज फिर से गार्डन में औषधीय पौधे एक नई महक बिखेर रहे हैं।

उस महक से वह ही नहीं नीलू भी महक रही है।

" अच्छा सुनो, हमारे मिस्टर आते ही होंगे. बाकी बातें फिर कभी। जहां भी हो घर पर आ सकते हो। बैठ कर वही वाला पूरी तरह से हर्बल नमकीन जूस पीते हैं जो कभी तुम्हे बेहद पसंद था। "

अजय, नीलू के इस आग्रह को टाल नहीं सकता था. टालना भी नहीं चाहता था। उसे लगा,वह ही नहीं फोन भी महक रहा है।

***

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा  

डी - 184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद ( ग़ज़िआबाद ) - 201005  

मो. न. 9911127277