जितेन्द्र विसारिया-हादसा- राज बोहरे राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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जितेन्द्र विसारिया-हादसा- राज बोहरे

जितेन्द्र विसारिया-हादसा- राज बोहरे

पुस्तक समीक्षा:

अपने समय से मुठभेड़ करती राजनारायण बोहरे की कहानियाँ

-जितेन्द्र विसारिया

पुस्तक: हादसा (कहानी संग्रह)/लेखक: राजनारायण बोहरे/प्रकाशन: ज्ञानपीठ प्रकाशन, 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003/प्रथम संस्करण: 2013/पृ. 128/मूल्य: 130. 00 रु.।

ग्वालियर-चंबल अंचल साहित्य, संगीत और कला रसिकों की उर्वर ज़मीन रही है। भवभूति, विश्णुदास, तानसेन, बिहारी, रामप्रसाद बिस्मिल, श्री कृष्ण सरल, मुक्तिबोध, सीता किशोर खरे, मुकुट बिहारी सरोज, वीरेन्द्र मिश्र, से लेकर वर्तमान में नरेश सक्सेना, निदा फ़ाजली, ओम प्रभाकर, ज़हीर कुरैशी, प्रकाश दीक्षित, के. बी. एल पाण्डेय, महेश कटारे, राजेन्द्र लहरिया, ए. असफल, पवन करण जैसे कवियों, श्ंाायरों, संगीतकारों और लेखकों की एक लम्बी और अटूट परम्परा है, जिसने इस जनपद की आवाज़ को उसकी सरहदों के पार पहुँचाते सार्वदेशीय और सर्वग्राही बनाया है...।

राजनारायण बोहरे भी इस अंचल और परंपरा के एक चर्चित कथाकार हैं, जिन्होंने अपनी तलस्पर्शी लेखकीय दृष्टि से अंचल की मिट्टी और उसके जन-जीवन को उपन्यास व कथा साहित्य में कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि वह अपने युग और परिस्थिति का सत्य बन पड़ा है। हिंदी में राजनारायण बोहरे की पीढ़ी वह युवा पीढ़ी है जिसने स्वतंत्रता के बाद आज़ादी के स्वप्न को रंगीन नहीं धूल-धूसरित होते देखा है और यही कारण है कि उसके मन में देश और समाज की प्रगति को लेकर न कोई पूर्व का आदर्श शेष है, न भविष्य की संभावनाओं को लेकर कोेई बड़ा उत्साह। वह वर्तमान की जटिल परिस्थितियों में गुम्फित वह जिजीविषा है, जो संघर्ष के माध्यम से इस विकट समय से पार पाना चाहती है, जिसके चलते उसकी स्थिति न इस पार की बनती है न उस पार की...।

यह आश्चर्य नहीं कि लेखक के सद्यः प्रकाशित कथा संग्रह ‘हादसा’ की अधिकांश कहानियाँ वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह, स्वप्नभंग और मोहभंग की कहानियाँ हैं, फिर उसमें चाहें लोकतंत्र में निर्वाचन प्रणाली के मँहगे और उसमें अवैद्य धन व बाहुबलियों के प्रवेश के चलते, एक आम इंसान के चुनाव में खड़े न हो पाने की टीस और विश्वास विघटन वाली संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हादसा’ हो, या वर्तमान शासन व्यवस्था में भृश्टाचार, तानाशाही और सवर्ण वर्चस्व के चलते लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और जातिनिरपेक्ष कही जाने वाली तथाकथित राष्ट्रीय पार्टी से, एक भले ईमानदार दलित के अपने पद से त्यागपत्र देने को आधार बनाती ‘ज़मीन का आदमी’ कहानी, सभी लगभग यही सच प्रकट करती दिखाई देती हैं।

चूँकि कथाकार स्वयं शासकीय व्यवस्था के अंग के रूप में कार्यरत है, इसलिए उसकी अभिव्यक्ति की प्रमाणिकता और अनुभव की सच्चाई इस मायने में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि उसका कहा अवश्य ही सत्य के करीब होगा-एक दम खरा सच। इस दृश्टि से संग्रह की ‘विडम्बना’ ‘निगरानी’ और ‘पूजा’ कहानियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।

‘विडम्बना’ जहाँ एक कामकाज़ी स्त्री के कार्य स्थल पर स्वाभिमान पूर्वक काम करते अपने को यौन शोशण से बचाये रखने और पुरुश कर्मचारी वर्चस्व के सामूहिक कोप का शिकार होते, अपने पद के बचने न बचा पाने की जद्दोज़हद भरी कहानी है। इस कहानी में कार्पोरेट संस्कृति का हिस्सा ‘छँटनी’ का विरोध भी एक अलग तथ्य के रूप में शामिल है, जिसके अनुसार मनचाही नीति बनाकर अपने ही बीच के किसी आदमी को हर हालत में घर बिठा दिया जाता है...।

‘निगरानी’ हल्के व्यंग्य बोध के साथ चुनावी माहौल की कहानी है, जिसमें संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी के लिए दिल्ली से आए एक बाहरी अफसर कोहली साहब के आगमन को, चपरासी पंछीराम की भोली दृष्टि से देखा गया है। यह कहानी बताती है कि किस प्रकार चुनावी देख-रेख के लिए आए यह अफसर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी और बाहुबली पार्टियों के नेताओं के संजाल में फँस तमाम तरह की अइय्याशियों में संलिप्त हो जाते हैं और फिर किस तरह उन चुनाव क्षेत्रों में की भाँति वही पुराने फ़र्जी मतदान और बूथकैप्चरिंग से हमारे महान लोकतंत्र का उद्धार होता रहता है...।

‘पूजा’ कहानी भी प्रशासन में वीआईपी अधिकारियों द्वारा दौरे के समय, किस तरह आज्ञा (ओबिडेन्ट) और अनुशासन (डिसिप्लिन) के नाम पर दूसरे शहर और विभाग के मातहत कर्मचारियों को परेशान किया जाता हैं। किस प्रकार तनाव झेलते वे अधीनस्थ कर्मचारी, उन वीआईपीओं की कितनी ही बेढंगी फ़रमाइसें पूरा करते आगे-पीछे हलकान होते घूमते रहेते हैं; यह सब डायरी शैली में लिखित ‘पूजा’ कहानी में सअक्षर और सतिथिवार आया है।...

राज नारायण बोहरे की कुछ कहानियाँ बदलते सामाजिक परिदृश्य और साहित्यक वाद और विमर्श के बीच, अनायास और कुछ-कुछ सायास गहराए सवर्ण द्वेश के प्रतिवाद स्वरूप खड़ी दिखाईं पड़ती हैं! ...अपवाद स्वरूप लिखी गई यह कहानियाँ उन सवर्ण स्त्री-पुरूषों के बारे में हैं, जो संयोग से सवर्ण घर में पैदा होकर भी अपने सम्पूर्ण पक्ष में मानवीय होते हुए भी दलित-पिछड़ों के दुर्वव्यवहार और हिंसा के शिकार होते हैं। ‘बदलाहट’ और ‘मुहिम’ इस रूप में विशेष उल्लेखनीय कहानियाँ हैं:

‘बदलाहट’ जहाँ आजादी से लेकर अब तक अस्तित्व में रहीं तमाम गैर दलित पार्टियों के बाद सत्ता में आई तथाकथित दलित पार्टी और दलित रहनुमाओं द्वारा दलितों के ठगने और मोहरा बनाये जाने को सवर्ण पात्रों की दृष्टि से देखी गई एक संक्षिप्त कहानी है। कहानी में दलित और दलित राजनीति के उभार के चलते सवर्ण पात्रों का भय कुछ इस प्रकार भी सामने आता है कि अब तक की पार्टिर्यों का ध्येय मात्र दलितों को मोहरा बनाकर सत्ता प्राप्ति मात्र था, किन्तु अब दलित पार्टियाँ सरकार आने पर दलितों के आने पर ठाकुर, ब्राह्मण, बनियों को पानी भरने का भी स्वप्न दिखा रही हैं; जो प्रकारांतर से देश में जातिय संघर्ष और वैमनस्य फैलने का कारण बनेगा? चुनावी सभाओं से लौटे यह रक्तबीज अवश्य हमारी आर्य संस्कृति के लिए संकट का कारण बनेंगे? किंतु इस भय के इतर देखा जाए तो जातिवाद और वर्णवाद के नाम पर देश में इस तरह का वैमनस्य भाव, क्या अब से पहले कम रहा है? तथाकथित दलितों की मानी जाने वाली वह तथाकथित पार्टी भी अपने एजेंडे में परिवर्तन लाकर, ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ से ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ के मार्ग पर चल पड़ी है, किन्तु हजारों साल से अस्तित्व में असमानता परक जाति और वर्णव्यवस्था की पक्षधर पार्टियाँ और उनके लोग, क्या अपने में इस तरह की तब्दीली ला पाए हैं? यह भी विचारणीय है...।

इस संबंध में समाज के उदाहरण छोड़ संग्रह की कहानियों को ही देखा जाए, हम पाते है कि दलित तो छोड़िए सवर्ण आज भी किसी दूसरे धर्म, जाति और प्रदेश की स्त्री को उसके सम्पूर्ण बज़ूद के साथ ईमानदारी पूर्वक स्वीकारने को तैयार नहीं है-‘कदाचित यही औरत उत्तरी न सही, दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होती तो वे कुछ सोचते’ (चम्पा महाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा पृ.29) वहीं दलितों के धर्मान्तरण और मत परिवर्तन के विरोध में ज़मीन-आसमान एक किए रहने वाले संघ और आर.एस.एस., रोटी-बेटी के संबंध छोड़िए दलितों को देश के तमाम मंदिरों में पूजा और प्रवेश का भी अधिकार आज तक नहीं दिला सके हैं। बड़े-बड़े मठों-मंदिरों में आज भी अभिषेक करने कराने के अवसर, सवर्ण पुजारी और उनके शिश्यों के लिए ही आरक्षित हैं-‘‘अरे भैया, तुम्हें क्या पता नहीं है कि देवी के अभिषेक का अवसर सिर्फ यहाँ के शिष्यों को मिलता है, केवल सवर्ण शिष्य ही अभिषेक कर पाते हैं। तुम्हारे सचिव किस जाति के हैं?(पूजा पृ.81)

‘मुहिम’ कहानी में भी लेखक ने चंबल की दस्यु समस्या को जातिवादी नज़रिये से देखते उसे सवर्ण-पिछड़े और दलितों के संघर्ष के रूप में रेखांकित किया है, जिसमें पिछड़े वर्ग के दस्यु डकैती और अपहरण जाति देखकर करते हैं-‘‘लोग अपनी जाति-बिरादरी और गाँव का नाम बताने लगे। गिरराज ने गौर किया कि सवारी जब अपनी जाति-बिरादरी और गाँव का नाम बताती तो घोसी, गड़रिया, कोरी, कड़ेरा, नरवरिया और रैकवार सुनकर कृपाराम चुप रहा जाता था। लेकिन बांमन-ठाकुर या कोई दूसरी जाति का आदमी पाता तो वह एक ही वाक्य बोलता था, ‘‘तू उतै बैठि मादर...।’’(पृ.114)

शिल्प और संवेदना में संग्रह की उत्कृष्ट एवं मार्मिक कहानी होने पर भी ‘मुहिम’ न तो चंबल के बाग़ियों के जातीय समीकरण को हल कर पाती है, न उसकी भीतरी पर्तों में जाकर उसकी समस्या की जड़ खोजने में सफल है। यह कहानी ठीक वैसी ही है जैसे कोई नक्सलियों/आदिवासियों की समस्याओं और दुश्वारियों की तह तक न जाकर, उनके द्वारा मारे गए सौ-पचास सी.आर.पी.एफ के जवानों में से किसी एक की त्रासदी लिखकर, पाठकीय संवेदना बटोर ले जाए। ...जबकि सच्चाई यह है कि जिस समाज के अपने नेता या बाग़ी नहीं होते, उस समाज को किसी का गुलाम बनते देर नहीं लगती। रैदास रामायण में एक स्थान पर लिखा है-‘जिसके संग में दुतिय होई, जग में क्रूर कहावै सोई।’(पृ.87) अर्थात जिस व्यक्ति के संग दग़ा और अत्याचार होता है, संसार में वही क्रूर बनता/कहलाता है!!! क्या अच्छा होता बोहरे समस्या की जड़ में जाकर इससे बेहतर कहानी दे पाते, किन्तु यह हिंदी का दुर्भाग्य है कि नीग्रो और स्पार्टा के विद्रोही गुलामों पर यूरोप में गैर अश्वेतों द्वारा लिखे गए ‘अंकल टाम केबिन-हैरियट बीचर स्टो’ और ‘स्पार्टाकस-हार्बट फ़ास्ट’ की भाँति हमारे यहाँ किसी सवर्ण लेखक द्वारा विद्रोही, पिछड़े-दलित-आदिवासियों पर कोई कालजयी रचना की जाती।...

फिर भी ‘मुहिम’ कहानी के पक्ष में एक बात कही जा सकती है कि यह कहानी उस मानसिकता की देन कतई नहीं है कि जिसमें ‘दास के दास बने रहने तक तो सब कुछ ठीक रहता है, किन्तु वह जैसे ही अपनी दासता से विद्रोह करता है: अपराधी ठहरा दिया जाता है।’ क्योंकि चंबल में पिछड़े ही नहीं बकौल दलित पत्रकार चंद्रभान यहाँ के दलितों के पास भी 28 से 30 प्रतिशत जोत भूमि हैं और वह बिहार-बुन्देलखंड के दलितों की भाँति पत्नी बच्चों सहित यायावरों की तरह देशभर में मजदूरी करते नहीं पाए जाते! बसपा सुप्रीमो कांशींराम ने भी उत्तर प्रदेश से सटे इस चंबल अंचल में अपना मज़बूत जनाधार देखा था!! बीएसपी से पूर्व कांग्रेस काल से ही यहाँ दलित-पिछड़ों के अपने नेता और बाग़ी रहे हैं, ऐसे में ‘मुहिम’ जैसी घटना/कहानी का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं!!!

‘चम्पा महाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा’ और ‘विश्वास’ कहानियाँ इसलिए भी उत्कृष्ट बन पड़ी हैं कि उनमें लेखक के अपने जातीय चरित्र हैं और इसी बहाने इन कहानियों में उसने चरित्रों की भीतरी पर्तें उधेड़ने में गज़ब का साहस दिखाया है। यह संभवतः इसलिए भी हुआ कि इन कहानियों में उसका साहित्य बिरादरी में दलित और स्त्री विरोधी होने का भय नहीं सताता, या शायद अनुभव की प्रमाणिकता...कुछ भी हो सकता है कि यह कहानी अच्छी बन पड़ी हैं। ‘चम्पा महाराज....’ यद्यपि भैरव प्रसाद के उपन्यास ‘गंगा मैया’ और शिव प्रसाद की कहानी ‘कर्मनाशा की हार’ जितनी सवर्णीय मानदंडों पर खरी न उतरने वाली स्त्री को अपनाने का सीधा और कड़ा प्रतिवाद तो नहीं करती, किन्तु अंचल की इसी समान पृष्ठभूमि पर रचीें महेश कटारे की ‘छछिया भर छाछ’, ए. असफल की ‘मँझले चाचा’ और ‘बुखार’ कहानियों से आगे जाकर संबंधों में अर्थ प्रधानता खोजती, एक बेहतर कहानी है। कहानी सनातनी पंडित चंपा महाराज के ज़मीन और नौकरी के लालच में अपने अनब्याहे भाई कालका के साथ, गाँव के स्वास्थ्य केंद्र में नवन्युक्त हुई दक्षिण भारती नर्स ‘चेलम्मा से अंतत‘ अनुलोम-प्रतिलोम करने से न बच पाने की कथा कहती है-‘‘चेलम्मा अब इस घर में अवश्य आएगी। वह अगर ब्राह्मण ना भी हुई तो क्या फ़र्क पड़ता है। अभी उसी से कहलवा देंगे कि वह केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण खानदान की है।... विवाह करने के निर्णय के साथ ही उनके मन का सारा द्वन्द्व धूल के अंधड़ की तरह एकाएक मन्दा पड़ता हुआ शांत हो गया-चलो जायदाद बची रह गयी तो जाति और समाज भी सम्मान देगा।’’(पृ.29)

‘विश्वास’ म्युनिसपिल कमेटी में चुँगी-नाके लगाने वाले बाबू हरकचंद के बाजार और वणिकवृत्ति के बीच लगातार भलाई करते रहने पर भी धोखा खाने और अपनी ऑफिस में जड़ी-बूटियाँ बेचने आने वाले आदिवासी सरदार सिंह मोगिया के सहज-विश्वास और निश्चल व्यवहार से, बाबूजी के मनुष्यता पर से उठे भरोसे के पुनः लौट आने की एक उम्दा कहानी है-‘‘वे चौंके, सेठ गहना मल से तो हम सिर्फ एक हजार रुपये की ही उधारी माँग रहे थे, फिर भी उसे विश्वास न हुआ, और यह बेचारा खानाबदोश आदमी बिना हिचक पाँच हजार की उधारी बाँट रहा है। ...उन्हें ठीक समझ आ रहा था कि सेठ गहनामल बाजार में बैठा है, वह हर चीज़ बाज़ार की नज़र से देखता है, कर्मचारी उसके दोस्त नहीं टूल हैं, जबकि सरदार जीवन से जुड़ा आदमी है।’’ (पृ.89) यह कहानी उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ के समान दो विभिन्न वर्गीय चरित्रों के भेद को स्पष्ट करती है, फ़र्क बस इतना है कि यहाँ वह बाजार में है और वहाँ वह परिवार में था।

म्नुष्य को व्यक्ति नहीं टूल मानते बाज़ार और बाज़ारवाद का उल्लेख संग्रह की एक अन्य कहानी ‘बाज़ार वेब’ में भी बड़े ही यथार्थ और विश्वसनीय तरीके से सामने आया है। यह कहानी एक नितान्त घरेलू महिला के एजेन्ट सेल्स गर्ल बन जाने मात्र की कहानी नहीं है, अपितु आज धड़धड़ाते हुए बाजा़र और उसकी गैर ज़रूरी सामग्री के हमारे घरों में घुसे चले आने और ज़रूरी सामान के बेदख़ल होने की भी त्रासदी है-‘‘वर्मा जी के घर में बैठक ही नहीं, स्टोर, किचेन और यहाँ तक कि बेडरूम तक में भी...अन्नपूर्णा भाभी की कम्पनी की चीज़ें अपने प्राइज-टैग प्रदर्शित करती बिखरी हुई थीं...बाजार केवल बाजार तक सीमित नहीं रह गया...। अब वर्माजी जैसों के कई घरों में बाजार स्वयं घुस आया है-अपने पूरे संस्कार, आचरण, आदतों और बुराइयों के साथ।’’(पृ.89)

‘एक बार फिर’ कहानी भारतीय परिवार और वंशवाद के बीच प्रचलित दो उक्तियाँ, पहली कि ‘परिजन चढ़कर बिटिया ही नहीं ब्याहते बाकी सब गत कर डालते हैं’ और दूसरी कि गैर मलयागिरि से गाड़ीभर चंदन लाकर भी दाह संस्कार करे तो भी व्यक्ति का उद्धार नहीं होता और अपना आकर लात ही मार जाए तब भी आदमी तर जाता है’ के दो छोर छूती कहानी है। ...कहानी से कम संस्मरण अधिक ‘एक बार फिर’ संयुक्त परिवार के एक ऐसे विघ्नसंतोषी छोटे दादाजी का कथा है, जिनकी वापसी घर में हर बार तोड़-फोड़ और फ़साद का कारण बनती है किन्तु आश्चर्य वे हरबार माफ़ी पा जाते हैं...।

इस प्रकार राज नारायण बोहरे के ‘हादसा’ संग्रह की यह ग्यारहों कहानियाँ समाकलीन कहानी की नब्ज़ थामती, कुछ क्षम्य त्रुटियों के बाबज़ूद अपने बेहतर कथा शिल्प और संवेदना के कारण उत्कृृष्ट ही नहीं विचारोत्तेजक भी बन पड़ी हैं। सामाजिक सरोकारों से लैस जीवन मूल्यों कों समर्पित यह कहानियाँ निश्चय ही हिंदी साहित्य में स्वागत योग्य हैं।

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